नवसृजन का आधार-विद्या विस्तार

May 1990

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राजभवन का मंत्रणाकक्ष। उनके चेहरे पर रह-रह कर चिन्ता की रेखाएँ कौंध उठती थीं। उनके दाएँ मनीषियों की कतार थी, बायीं और मंत्री परिषद के सदस्य विराजमान थे। मनीषी मण्डल में से एक सदस्य ने उठकर धीरे से पूछा आप कुछ परेशान से दिख रहे हैं सम्राट?

परेशान तो नहीं पर चिन्तित अवश्य हूँ? इसी के निवारण के लिए आप सभी को आमंत्रित किया है। गौरवर्णीय राजपुरुष ने एक हल्की मुस्कान के साथ कहा।

कारण स्पष्ट करेंगे? एक अन्य प्रश्न दायीं ओर से उभरा। ‘कारण?’ थोड़ा रुककर वाणी गतिमान हुई। यही कि जनता किस प्रकार सच्ची उन्नति करे? लोक जीवन किस तरह प्रगतिशील रहकर कल्याण की ओर अग्रसर हो?

प्रश्नों के जवाब में सभी ने अपनी-अपनी राय सुझायी। आखिर में विचार मंथन नवनीत यह निकला कि शिक्षा का व्यापक प्रसार हुए बिना सर्वजनीन उन्नति संभव नहीं। अतएव समूचे देश में जगह-जगह विद्यालयों की स्थापना हो। देश की उन्नति पाठशालाएँ क्रियाशील हो। देश की उन्नति के लिए इसकी अनिवार्य आवश्यकता है।

निष्कर्ष समीचीन है- सम्राट का स्वर था। शिखा के बिना बौद्धिक विकास संभव नहीं। विचार की दिशाओं का विकास इसी से होता है। बात दिमाग में बैठ जाने पर राजाज्ञा जारी हो गई समूचे देश में विद्यालयों की स्थापना का क्रम शुरू हो गया।

राजसेवक जगह-जगह डुगडुग्गी पीटने लगे ‘अब से प्रत्येक बालक के लिए शिक्षा अनिवार्य है जनता इसमें सहयोग करे।’ जन समुदाय ने कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग किया। जिसके पास धन था धन दिया जमीन वालों ने जमीन दी, श्रमशीलों ने श्रम की पूँजी लगाई। शिक्षितों ने अपने योग्यताएँ समाज को साक्षर बनाने में समर्पित की देखते-देखते सारे राज्य से निरक्षरता भाग गई। क्यों न? जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति समूह के प्रति जिम्मेदारी अनुभव करता है, निभाने के लिए तत्पर रहता है तो असंभव कुछ नहीं।

साक्षरता के साथ उन्नति की आकांक्षाएँ जंगी जगह-जगह नए-नए उद्योग स्थापित हुए। व्यापार बढ़ा। कृषि में अनेकों तरह के अनुसंधान हुए शिक्षा के प्रसार में राज्य ने जो तपस्या की थी व आर्थिक उन्नति के रूप में तुरन्त साकार दिखाई दे लगी।

पर यह स्थिति थोड़े दिन ही चल पाई कि सारे राज्य में धन, पद, प्रतिष्ठा की होड़ लग गई लोगों में इसके लिए द्वन्द्व उठ खड़ा हुआ मनोमालिन्य ईर्ष्या, द्वेष, छल कपट के दाँव-पेंच चले जाने लगे। भ्रष्टाचार अनाचार का बोल-बाला हो गया। सम्राट बड़े चिन्तित थे शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण साधना के फल ऐसे भी हो सकते हैं यह किसने सोचा था? क्या उपाय किए जाय? जिससे सामाजिक अशान्ति दूर हो? सारे मंत्री सभासद सभी चिन्तित थे। किसी को सूझ नहीं रहा था किया क्या जाय?

भाई की चिन्ता तपस्विनी बहिन को भी ज्ञात हुई। एक दिन जब वह अन्यमनस्क से बैठे थे तभी बहिन राज्य श्री ने प्रवेश किया। सम्राट चौंक कर उठे। बहिन को आदर के साथ बिठाया बातों का सिलसिला चल पड़ा।

‘इतने उदास क्यों हैं भाई?’

‘अनपेक्षित परिणाम देखकर’।

जीवन विद्या से अपना रिश्ता तोड़ लेने वाले पाठशालाओं की शिक्षा भला और क्या परिणाम प्रस्तुत करेंगी? बहिन ने कुछ रुककर भाई की ओर देखा फिर कहना शुरू किया। सतयुगी परिस्थितियों के लिए व्यक्ति और समाज को जिस ढाँचे में ढलना है, उसका प्रकाश आभा शिक्षा में भला कहाँ? जिस सुधार और सृजन को समय माँग रहा है, उसके लिए इसमें कोई संकेत तक नहीं। तो फिर अब तक के प्रयत्न सम्राट के स्वरों में परेशानी थी।

ये एकाँगी हैं इन्हें समग्र बनाना पड़ेगा ठीक है पाठ्यक्रम संशोधित कर दिया जायेगा। ‘यह बात भी ठीक है पर इतने से काम नहीं चलेगा’। ‘तो फिर?’

जीवन विद्या पुस्तक रटन से नहीं सीखी जा सकती। इसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का प्रेरणाप्रद वातावरण सामने रहना चाहिए। विशेषतया सिखाने वाले इस स्तर के होने चाहिए, जो अपने साँचे में ढाल कर व्यक्तियों को प्रतिभावान प्राणवान बना सकें। इसके लिए इस संजीवनी विद्या में निष्णात निस्पृह किन्तु सक्रिय लोकसेवियों के समूचे तंत्र को सुव्यवस्थित करना होगा। जो मात्र वाणी से नहीं अपने जीवन से जन समुदाय को जीवनबोध कराएँ। द्वार-द्वार जाकर घर-घर पहुँच कर अपने उद्देश्य के प्रति सन्नद्ध रहें।

ठीक कहती है हो बहिन अपने यहाँ यह वर्ग बिखर गया है।

इसे फिर से संभालना होगा। लोकसेवी परिव्राजक सामाजिक जीवन के प्रहरी हैं। समाज रूपी शरीर की जीवनीशक्ति जो इसे जर्जर करने वाली व्याधियों से टकराती, नष्ट करती और शरीर को पुष्ट करती है। ये निस्पृह तपस्वी परिव्राजक समाज की रीढ़ है ‘भाई। इनका स्थान सम्राट से भी ऊँचा है। तुम स्वयं इन्हें सम्मानित प्रोत्साहित और सुव्यवस्थित करो, करने में सहायक बनो।

बात समझ में आ गई। भूल का परिमार्जन आज से ही करेंगे सम्राट की वाणी में संकल्प की गरिमा थी।

उस दिन से सम्राट जुट गए लोक शिक्षकों के तंत्र को सुव्यवस्थित करने से, प्रारंभ हो गई कुंभ मेलों में विद्या−विस्तार एवं सर्वमेध की परम्पराएँ। प्रहरी सशक्त हुए, उन्होंने कर्त्तव्य निष्ठा को समझा। लोक कल्याण के लिए शपथ उठाई। समाज का कायाकल्प होता दीखने लगा। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण के स्वप्न को मूर्त होते देख वह विभोर थे। इस सबका श्रेय संजीवनी विद्या के प्रसार को था। इस हेतु प्रयत्नरत होने वाले सम्राट थे हर्षवर्धन।

विद्या विस्तार का यह कार्य आज के क्षणों में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जबकि समाज का कायाकल्प वसुन्धरा व्यापी होने जा रहा है। ऐसे में बहाने बाजी गढ़ने, भावनात्मक दुर्बलता पर पर्दा डालने की विडम्बना छोड़कर लोक शिक्षकों के वर्ग में शामिल हो प्रहरी की भूमिका निभाने में और अधिक तत्परता दिखानी अभीष्ट है।

स्टेशन मास्टर के कार्यालय के सामने भीड़ एकत्रित होती जा रही थी। स्टेशन मास्टर का क्रोध देखते ही बनता था। किन्तु बेचारी बुढ़िया ठण्ड के मारे अंगीठी पर हाथ सेंकना चाहती थी। स्टेशन मास्टर उसे दुत्कारने में लगा था। जो भी आता वहाँ रुकता। पूछता बाबूजी क्यों झल्ला रहे है? एक समझदार व्यक्ति भीड़ में से आया और बोला यदि इस बेचारी ने ठण्ड में हाथ सेंक लिए तो क्या जुर्म हो गया? मास्टर साहब आपने तो बाइबिल पढ़ी होगी। ईसा ने भी ऐसे गरीबों की हिमायत की है। फिर भी आप में सहानुभूति का बीजारोपण नहीं हुआ। इतना कहकर उस व्यक्ति ने अपने कंधे से ऊनी चादर उतारी और उस वृद्धा के कंधों पर डाल दी। ये सज्जन थे दीनबन्धु ऐंड्रूज।


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