जाग्रत संवेदना ने चैन से नहीं बैठने दिया

May 1990

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गौरवर्ण के तरुण के कदम जंगल में से गुजरने वाली पगडंडी पर तेजी से बढ़ रहे थे। शायद उसे घर पहुँचने की जल्दी थी अथवा ढल रहे दिन के कारण वह समय से सुरक्षित अपने गाँव पहुँच जाना चाहता था। भला इस वियाबान जंगल में क्या भरोसा कब कुछ अघटित घट जाए? अचानक उसके कानों में किसी नवजात शिशु के रोने की आवाज पड़ी। एक बार तो सोचा शायद भ्रम है। भला यहाँ बालक कहाँ? पर नहीं रोने का स्वर तो लगातार आ रहा था तनिक ठिठका मुड़ कर पीछे की ओर देखा, आस पास की झाड़ियों में झाँका, कहीं कुछ तो नहीं। पर बाल कण्ठ का रुदन तो साफ सुनाई दे रहा था। अरे यह क्या इस पेड़ की डाल पर लटकी टोकरी में तो कहीं कुछ नहीं है? जरूर यहीं कुछ होगा अन्यथा यहाँ टोकरी लटकाने का क्या प्रयोजन?

पेड़ पर चढ़ा देखा। सचमुच नवजात बालक हाथ-पैर चला रहा था। भला कोई यहाँ क्यों लटका गया अपने जिगर के टुकड़े को। तप्त स्वर्ण वर्ण के इस शिशु के सुडौल अंग, बड़ी कजरारी आँखें उन्नत भाल सभी कुछ उसे ऐसा मोहक बना रहे थे कि एक बार देखकर किसी का दिल उसे लेकर गोद में खिलने हेतु मचल उठे। उस पर ऐसी निर्ममता? उलझन सुलझी नहीं। उसने टोकरी से उतार बच्चे को गोद में लिया और चल पड़ा गाँव की ओर।

गाँव में पहुँचकर उसने पता करवाया क्या किसी के घर अभी हाल में बालक जन्मा है। जागीरदार होने के नाते उसे खोज-बीन करने में अधिक देर न लगी। शीघ्र ही मालूम पड़ गया कि यह पुत्र उसी के गाँव में रहने वाले एक क्षत्रिय परिवार का है। सुनकर आश्चर्य हुआ भला इस समृद्ध परिवार के समाज में उच्च स्थान प्राप्त सदस्यों ने ऐसा क्यों किया? समझदारों ने ऐसी नासमझी क्यों की?

स्वयं गया। जागीरदार को सामने खड़ा देख परिवार के सदस्यों ने आव-भगत की। सामान्य कुशल प्रश्न के बाद उसने गोद में लाए शिशु को दिखाकर ‘पूछा यह बच्चा आपका है’?

‘हाँ पर आपके पास कैसे’? परिवार के एक सदस्य का प्रश्न था।

‘किन्तु आप लोगों ने इसे जंगल में क्यों लटका दिया था’? ‘दरअसल कल इसकी छठी थी।’

‘छठी और जंगल का मतलब’?

‘वस्तुतः हमारे कुल में एक परम्परा है परिवार के अधेड़ वय के मुखिया ने गर्व के साथ बताना शुरू किया। छठवें दिन नवजात बालक की वीरता की परीक्षा ली जाती है। उसे जंगल में लटका देते हैं। यदि वह रात्रि भर जीवित रहा तो बहादुर मानकर परिवार में स्थान दे दिया जाता है। अन्यथा मृत की लाश या तो जंगली जीवों का आहार बन जाती है अथवा उसे नदी में बहा देते हैं।’

इस विचित्र परम्परा को सुन वह सिहर गया। सोचने लगा परम्परा मान्यता रीतियाँ सभी एक पिटारी में रहने वाले जहरीले साँप बिच्छू हैं। इनके दंश से न जाने कितने अबोध बालक, नारियाँ बिलखते तड़पते अपनी जान गँवाने के लिए विवश होते हैं। संभवतः इस अनन्त आकाश की भी कोई सीमा हो। पर अपने को बुद्धिमान कहने समझने वाले मानव की मूर्खता का विस्तार अनन्त है। खैर उसे जैसे-जैसे समझा-बुझा कर बालक का पालन-पोषण करने को राजी किया।

किन्तु इस घटना ने उन्हें व्यथित बहुत कर दिया। आसाम प्रान्त के निवासी होने के कारण वह अपने गाँव अलिपुखरी के पास टोना टोटका, तन्त्र मंत्र जैसी विचित्र चीजें प्रारंभ से सुनते आए थे। अपने को तन्त्रयोगी कहने मानने वालों के बीच में प्रचलित ‘रात्रिखोवस’ नामक की विचित्र पद्धति से उन्हें शुरू से घृणा थी। नारी को अपनी पाशविक वासना का शिकार बनाने वाली इस प्रथा से कोई भी विवेकी घृणा ही करता। एक दो नहीं मूढ़ मान्यताओं को पूरा जखीरा था। विष की वल्लरी नहीं समूचा जंगल था। कैसे इसे साफ करे? मन में ऊहापोह चल ही रहा था इसी बीच स्वयं के दाम्पत्य जीवन पर नियति का क्रूर आघात हुआ। पत्नी विछोह ने व्यथा को द्विगुणित कर दिया। सगे संबंधी दूसरे विवाह के लिए दबाव डालने लगे। उन्होंने जवाब दिया जब स्त्री पति के मरने के बाद दूसरा विवाह नहीं करती तो पति को पत्नी के मरने पर क्यों कर दूसरा विवाह करना चाहिए? किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। इन दिनों वह गहन चिन्तन कर रहे थे। अतीत और वर्तमान की अनेकों घटनाओं स्वयं के जीवन और सामाजिक परिस्थितियों का समीकरण बनाते हुए उन्हें सूझा। क्रिया का आधार सोच ही तो है। यदि किसी तरह सोच बदला जा सके तो। चेहरा खिल उठा परिणाम की सुखद संभावना से।

वह निकल पड़े पदयात्रा पर, जन मानस की सोच बदलने। माध्यम बनी भागवत कथा। अपनी मर्मस्पर्शी शैली में जब वह प्राचीन घटना प्रसंगों को समसामयिक परिप्रेक्ष्य में कहते तो जन सामान्य अपनी भूलों को पकड़े बिना न रहता। विचारों में फेर बदल के प्रयास कहीं अधिक प्रभावी हो इसके लिए उन्होंने स्वयं लिखे नाटक का मंचन करना शुरू किया। ऐसा ही एक नाटक ‘चिन्ह यात्रा’ वहाँ की आंचलिक भाषा में लिखा। जिसे देखकर अनेकों के अंतर्मन में खुद को बदलने के लिए संकल्प जग उठे।

अपनी इस यात्रा के दौरान उन्होंने कीर्तन घोषा, भक्ति प्रदीप, रुक्मणी हरण, काव्य बड़गीत, गुण माला आदि कई कृतियाँ लिखीं जिसमें कीर्तन शैली में अपने विचार और भक्त हृदय को खोल कर रख दिया।

उनकी कोशिशों ने तत्कालीन आसाम के निवासियों की सोच में उथल-पुथल मचा दी। यद्यपि उन दिनों आज से चार सौ वर्ष पूर्व पन्द्रहवीं सदी में विचारों में फेर बदल कर डालने वाली क्राँति का संचालन सहज न था। पर वह पुरुष ही क्या जिसके प्रबल पौरुष के सामने परिस्थितियाँ नतीजतन न हो उठे। इस दिशा में उनका अगला कदम उठा राम नाम की पीठों की स्थापना के रूप में। जिसके माध्यम से लोकसेवी सृजन सैनिकों का प्रशिक्षण चलता। सौ वर्ष से अधिक अवस्था वाले इष्टदेव पुरुष को सुदर्शनचक्र के समान गतिमान देखकर तरु वर्ग तक हैरत में पड़ जाता। पर अनुभवों जानते हैं जाग्रत संवेदनाओं ने किसे कब बैठने दिया है? १९१ वर्ष की आयु तक सक्रिय सतेज रहकर मानवी सोच में सुधार लाने हेतु तत्पर यह महामानव थे शंकर देव जिन्होंने तत्कालीन आसाम अंचल के निवासियों को अनेकों कुप्रथाओं से त्राण दिलाया और वहाँ के जन समूह में देवता की तरह पूजे गये।

आज भी अनेकों सड़ी-गली रीतियों के बदबूदार कंकाल को अपनी छाती से चिपकाए मानव रुग्ण हुआ पीड़ा से बिलख रहा है। उसे भ्रम से मुक्त करने पीड़ा की त्रासदी से मुक्ति दिलाने हेतु संकल्पित महाकाल की परा पश्यन्ति बैखरी वाणियाँ पुनः गूँज उठी है आमूल-चूल परिवर्तन हेतु अनेकों शंकर देव चाहिए।

शिष्य के पास ध्यान सीखने गया। तो गुरु ने शिष्य से कहा कि इस तरह ध्यान करो कि तुम सुध-बुध भूल जाओ और जैसे तुम बचे ही नहीं। चेला मुसीबत में पड़ गया कि अच्छा ध्यान बताया। यदि बंधोगे नहीं तो ध्यान किस काम आयेगा। वह नित्य गुरु के पास आता और गुरु नित्य ध्यान के बारे में बतलाते। किन्तु गुरु सदैव यही पूछते कि ‘अरे तुम अभी तक बचे हो। फिर ध्यान क्या खाक करते हो?’ शिष्य चला जाता।

पुनः अगले दिन आया तो गुरु ने पुनः वही प्रश्न दोहराया। एक दिन शिष्य ने सोचा ऐसा कब तक चलेगा और प्रातः गुरु के दरवाजे पर पहुँचकर धम्म से गिर गया आँखें बन्द श्वाँस खींच ली ऊपर को। मानो मर गया हो। गुरु चाल को समझ गए। वे बोले, ‘मैंने तुझे एक सवाल दिया था। उसका जवाब दे।’ उस शिष्य ने आँखें खोली और कहा जवाब तो अभी नहीं मिला। सोचा शरीर को ही गिरा दूँ शायद आप सन्तुष्ट हो जायें कि शिष्य ने वचनों का पूर्ण पालन किया। गुरु बोले ‘मरने से मेरा अभिप्राय प्राणान्त से नहीं था। मैं तो तुम्हारे अन्दर छिपे बैठे अहंकार को निकालने उसे मारने की बात करता था, जो तुम नहीं समझ सके। अहं के रहते यदि तुम आँखें बन्द किये भी बैठे रहे तो ध्यान में कौन सी सफलता की आशा की जा सकती है। ढोंग मत करो, वास्तव में अपने ‘मैं’ को मारने का प्रयास करो। सब कुछ पा जाओगे।’


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