जाग्रत भावनाओं का युग अब निकट ही

May 1990

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संक्रान्ति के इन क्षणों में मानव सामूहिक रूप से एक नए जमाने के प्रवेश द्वार पर आ पहुँचा है। प्रवेश करते ही उसे सारी परिस्थितियाँ बदली हुई मिलेंगी। ऐसी दशा में हरेक का अपरिहार्य दायित्व हो जाता है कि प्रविष्ट होने के पहले अपने को तद्नुरूप ढाल ले। बदले परिवेश की विशिष्टताओं के अनुरूप स्वयं को विशिष्ट बना ले। इन विशेषताओं का केन्द्र बिन्दु होगी मानवीय संवेदना। जिसमें यह जितनी अधिक विकसित होगी वह उतना ही अधिक सुयोग्य साबित हो सकेगा। उतना ही कारगर सक्रिय सतेज बन सकेगा।

पहाड़ों पर चढ़ने वालों को महीनों पहले वहाँ की जलवायु को सह सकने की क्षमता देने वाले अभ्यासों से गुजरना होता है। शरीर और मन दोनों की कतिपय क्षमताएँ निखारनी पड़ती हैं। जो अपने को जितना अधिक प्रशिक्षित कर सका वह उतना ही सफल पर्वतारोही साबित होता है। अंतरिक्ष यात्रियों को यात्रा के पहले सालों-साल खाज जीवन शैली का अभ्यास कराया जाता है। हवा का दबाव सहा जा सके गन्तव्य के गुरुत्वाकर्षण में चला फिरा जा सके इसके लिए न जाने कितनी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। तब कहीं अंतरिक्ष में, अन्य ग्रहों में जाने का काम करने का गौरव हासिल होता है। जो इन प्रशिक्षणों को कष्ट साध्य बताते, अस्वीकार करते, उन्हें बदली हुई परिस्थितियों में खुद को बनाए रख पाना असम्भव प्रायः होता है। ठीक यही बात भावी समाज के अनुरूप अपने को ढालने के बारे में हैं। आज के बुद्धिवादी युग में अपनी सम्वेदनाओं को जाग्रत परिमार्जित और विस्तृत करने की बात कुछ विचित्र सी लगती है। पर किया क्या जाय? नियन्ता ने भावी समय के लिए इसे अनिवार्य योग्यता घोषित कर दिया है। निहायत जरूरी इस प्रवेश शुल्क को चुकाए बिना खैर नहीं।

योग संवेदनाओं का स्थान बौद्धिकता से सर्वदा उच्च रहा है। इनके कारण को विकसित जीवन की सर्वोच्च ऊँचाई भी कहा जा सकता है। आत्म जागरण अथवा अध्यात्म की शुरुआत यहीं से होती है। यह एक ऐसा तालाब है जिसमें अनेकों नेक सद्गुण अपने-आप सिमट-सिमट कर आ भरते हैं। इतना सब कुछ होते हुए इस ओर गति न होने का कारण है बुद्धिवाद की साँकल में जकड़े होना। बहुतों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है, कि अब यह साँकल कैसे टूटेगी। युग तो बुद्धि का है भाव की तरफ गति कैसे होगी? भाव के विकसित होने का कोई उपाय भी नहीं दिखाई पड़ता। सारे जीवन की व्यवस्था का संचालन बुद्धि से होता मालूम पड़ता है। इस बुद्धि के शिखर पर बैठे युग में भाव की ओर रास्ता कैसे खुले?

पर जीवन का का विचित्र नियम है। वह यह कि एक अति पर जा पहुँचने पर दूसरी अति की ओर चल पड़ना आसान हो जाता है। ठीक घड़ी के पेंडुलम की भाँति। जब यह बायीं तरफ के आखिरी सिरे को छू लेता है तो दायीं और मुड़ना शुरू हो जाता है। आज का जमाना न सिर्फ बुद्धि से ग्रस्त है बल्कि त्रस्त और पीड़ित भी है। समाधान जितने खोजे जाते हैं उतनी ही नई समस्याएँ जन्म लेती हैं। प्रत्येक समाधान स्वयं में समस्या बन जाता है।

बौद्धिकता का संताप अपने चरम शिखर पर छू रहा है अब स्वाभाविक है कि जीवन का पेंडुलम भाव की ओर मुड़ चले। इस स्थिति को भाँप लेने के कारण ही डॉ. पाल ब्रान्टन का स्प्रिचुअल क्राइसिस ऑफ मैन” में कहना डडडड धरती पर शीघ्र ऐसा समय आने को है, तब पहली बार मनुष्य की भाव सम्वेदनाएँ इतनी गहरी और विस्तृत होंगी, जितना कि इसके डडडड भी नहीं हुई। कारण कि पहले मानव जाति ने बुद्धि का स्वाद नहीं चखा था डडडड के रहते उसमें इस ओर लालच था। अब इस स्वाद को चख लेने, उकता जाने के कारण एक साम्राज्य जन्म होगा। बुद्धि का संचालन संवेदना डडडड हाथ होगा। इनसे संचालित हो वह विवेक डडडड।

इस सदी के शीर्षस्थ बुद्धि माने में से एक हुए हैं बर्ट्रेंडरसेल। उनने अपनी जीवन कथा में एक स्थान पर अपना एक अनुभव बताया है। ग्रामवासियों का मस्ती भरा प्रेममय जीवन विस्मय हुआ और हर्ष भी। वह लिखते हैं कि बुद्धि की कमी के बाद भी जीवन इतना हलका फुलका और मस्ती हुआ और वह पहली बार मानने को बाध्य हुए कि भावनाओं का स्थान बुद्धि से ऊपर है। इतना ही नहीं वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भावनाएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को विस्तृत बनाती हैं और बुद्धि उसे स्वार्थों के संकीर्ण दायरे में समेट देती है।

रसेल के अनुभव की सत्यता हर कहीं परखी जा सकती है। बुद्धिवादी सम्राट अशोक की सोच डडडड थी कि हर किसी को जीत कर अपने अहं के झण्डे तले ला पटकेगा। साधारण दृष्टि में भले उसकी योजना विस्तार की लगे पर असलियत में वह हर किसी को स्वार्थों के दायरे में घसीट लेना चाहता था। जिनने उसकी इस नीयत को परखा उसे चण्ड अशोक कहने लगे। पर कलिंग की विजय के दौरान तड़प रहे सिपाहियों, अनाथ-बेसहारा स्त्रियों भूख से व्याकुल बच्चों की पीड़ा देखकर उसकी भाव सम्वेदनाएँ जग पड़ीं। जाग्रत सम्वेदनाओं ने अहंकार स्वार्थ को कूड़े के ढेर में फेंक दिया। फिर जो विस्तार का क्रम शुरू हुआ रोके नहीं रुका। पहले का चण्ड अशोक अब अशोक महान बन गया।

राजकुमार सिद्धार्थ पहले सामान्य थे। राह चलते बीमार और पीड़ित वृद्ध ने उनके मर्म को छुआ। संवेदनाएँ जगी और इनने उन्हें बेचैन कर के रख दिया। मानव के कष्ट को कैसे दूर करें इस हेतु वह व्याकुल हो उठे। तद्नुरूप क्रियाशीलता- आत्म विस्तार ने उन्हें बुद्ध बना दिया। ऐसी ही घटना चैतन्य के जीवन में घटी। बंगाल में कोई मुकाबला न था उनकी प्रतिभा का। उनके तर्क के सामने कोई टिकता न था। उनके शिक्षक भी उनसे डरते थे। दूर-दूर तक खबर थी कि उनकी बुद्धि का कोई मुकाबला नहीं है। पर गया धाम में एक कोढ़ी के कष्ट ने माधवेन्द्र के उद्बोधन ने उनकी संवेदना को जगा दिया। विस्तृत हुआ व्यक्तित्व चाण्डाल, गरीब, दुखी-पीड़ित सभी को अपनाने में जुट गया और वह महाप्रभु बन गए। संवेदनाएँ न जगती तो छोटी सी पाठशाला के शिक्षक बन कर रह जाते।

अपनी बुद्धिमत्ता की धाक जमाने वाले आइन्स्टीन ने जब हिरोशिमा में हुई बर्बरता को सुना। वह अवाक् रह गए बुद्धि का यह दुरुपयोग। उनका समूचा व्यक्तित्व हिल गया और संवेदनशीलता की जाग्रति ने उन्हें बाल कल्याण में जुटा दिया। वह संत बन गए। फ्रेड्रिक हरनेक ने अपनी कृति “अलबर्ट आइन्स्टीन इन लेबेन वाहरहेत, मेन्सच्लिचेकेत एण्ड फ्रेडेन में उन्हीं के शब्दों को दुहराते हुए लिखा है संवेदनाएँ जीवन की दिव्यता हैं। वे ही जीवन की पहेली का हल हैं।

आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी सत्या की ओर बढ़ रहे हैं। मनोविद् लेसली. डी. व्हीदरहेड अपनी रचना साइकोलॉजी इन द् सर्विस ऑफ सोल” में लिखते हैं भावनाओं को व्यक्तित्व से निकाल फेंकना सारी समस्याओं का मूल है। इस केन्द्र को पुनः स्थापित और सुदृढ़ किए बगैर वर्तमान के संताप से कोई छुटकारा नहीं। संताप छूटे जीवन की उलझनें सुलझे इसके लिए स्वयं की भावचेतना को जगाना होगा। दूसरे के कष्टों को सामयिक आवश्यकता को समझने का प्रयास करें। प्रयास की तीव्रता जब हमें कुछ करने के लिए बेचैन करने लगे तो समझें कि जाग्रति हो रही है। संवेदनाओं की सक्रियता की शुरुआत होने का लक्षण है सहानुभूति और प्रखरता का चिन्ह है सेवा। इसकी परिणति है अपनत्व का विस्तार अपने पराये के भेद का अभाव।

इसकी सामयिक अनिवार्यता समझ कर स्वयं में इनका विकास किया जाय। नयी परिस्थितियों के लिए ऐसे ही उत्कृष्ट भाव सम्पन्न व्यक्तियों की आवश्यकता है। लक्ष्मी और वैभव न होने पर किसी को रंज नहीं करना चाहिए। बुद्धि की ऊँचाइयों न दिख रही हों तो भी निराश न हों। लालसाओं आवश्यकताओं से सन्तुष्ट होकर समय की माँग को पूरा किया जा सका तो समझना चाहिए कि मानव जीवन धन्य हुआ। भविष्य के भावनात्मक समाज में रह सकने योग्य सुयोग्यता हासिल हुई। कालचक्र इन दिनों सिर से पैर तक संकीर्ण स्वार्थपरता से भरे हुए मानव समूह को आदर्शों की ओर मोड़ रहा है, नये जमाने लायक ढाल रहा है। जो मुड़ न सका उसे कटना पड़ेगा। स्थिति की गम्भीरता को समझें स्वयं को आदर्शवादी परिस्थितियों के अनुरूप मोड़ें। स्वयं प्रकाशित होकर औरों को प्रकाश का प्रतिदान करें।


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