आत्मिक प्रगति का प्रथम सोपान जीवन शोधन

May 1990

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उपासना में असफलता अथवा उस में धीमी प्रगति रहने का कोई विशेष कारण होना चाहिए। इस पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। यह न युग का प्रभाव है और न उपासनाओं के माहात्म्य एवं विधान में कोई त्रुटि ही है। यदि ऐसा होता तो इन्हीं दिनों कितने ही साधक क्यों अत्यन्त उच्चकोटि की स्थिति में पाये जाते हैं? क्यों उन्हें सिद्धियों से ओत−प्रोत देखा जाता है?

इसका स्पष्ट कारण एक ही है कि साधकों का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार निकृष्ट कोटि का बना रहता है। वे उसमें सुधार नहीं करते। व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते। इसी जन्म के किये हुए तथा पूर्वजन्मों के संचित कुसंस्कारों - दुष्कर्मों के परिमार्जन का प्रयत्न नहीं करते। फलतः मलीन वस्त्र पर रंग चढ़ाने की तरह, रेगिस्तान में बीज बोने की तरह पूजा कृत्यों का सत्परिणाम उत्पन्न ही नहीं हो पाता। कीचड़ के हौदी में एक बूँद गंगाजल डाल देने से उसमें शुद्धि कहाँ हो पाती है।

ध्यान रखे जाने योग्य बात यह है कि पूजा कोई जादू नहीं है। वह विशुद्ध विज्ञान है। उस मार्ग पर चलने वाले को सर्वप्रथम आत्मशोधन करना पड़ता है। धुले कपड़े पर ही रंग चढ़ता है। जोतकर तैयार की हुई भूमि में ही बीज उगता है। अंतरंग और बहिरंग जीवन में जितनी पवित्रता और प्रखरता का समावेश होगा, उतनी ही मात्रा में पूजा उपासना का चमत्कार उत्पन्न होगा। दुष्कर्मों में निरत व्यक्ति किसी देवी देवता का अनुग्रह अर्जित नहीं कर सकते, क्योंकि समूचा देव परिकर शुद्धता प्रधान है। जहाँ उसकी जितनी कमी होती है वहाँ उन्हें उतनी ही उपेक्षा या अप्रसन्नता उत्पन्न होती है। जब साधारण मनुष्य घिनौनी, दुर्गन्धित, अस्त-व्यस्त जगह में नहीं रुकना टिकना चाहता तो देवता किसी घिनौने व्यक्तित्व की ओर क्यों ध्यान देंगे?

इस तथ्य, को समझा जा सके तो मानना चाहिए कि उपासना को फलित होने का सूत्र हाथ लग गया। इसका अनुमान लगाया जा सकता है, कि अध्यात्म मार्ग की सफलता का प्रारंभ कहाँ से करना चाहिए। प्रथम सोपान है आत्म परिष्कार। इसके लिए अपने गुण-कर्म स्वभाव की वर्तमान त्रुटियों को पैनी नजर से परखा जाय और उन्हें बहार फेंकने का साहस भरा पराक्रम कर दिखाया जाये।

पूजा से पाप नष्ट हो जाते हैं। इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि यदि पूजा कृत्यों को भावनापूर्ण किया जाय तो उसके फलस्वरूप सन्मार्ग पर चलने और दुष्कर्मों को त्यागने की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होनी चाहिए। उसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जो पाप कभी किये गये हैं उनके दण्ड दुष्परिणामों से बचा जा सकेगा। उसके परिशोधन का उपाय तो एक ही है सच्चे मन से, किया हुआ पश्चाताप और प्रायश्चित।

प्राचीनकाल के कितने ही पापियों की कथा गाथाएँ सुनने को मिलती है। उन में राम नाम का प्रताप नहीं वरन् जीवन शोधन में कायाकल्प जैसा परिवर्तन कर लेना कारण था। बाल्मीकि, बिल्व मंगल, अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि ने अपने पुरातन जीवन क्रम में आमूल चूल परिवर्तन कर लिया था इतना ही नहीं उसने पिछले किये हुए पापों की क्षतिपूर्ति के लिए उतने ही वजन के सत्कर्म करके पुरातन अशुभ संकलन का प्रायश्चित भी किया था। अंगुलिमाल अम्बपाली ने अपनी संचित सम्पदा बुद्ध संघ को अर्पित कर दी थी। इतना ही नहीं भावी जीवन में लोकमंगल के लिए परिपूर्ण प्रयास करते हुए सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के क्रिया-कलापों में सारा जीवन खपा दिया था।

अशोक ने कलिंग विजय में जो रक्तपात किया था उसके प्रायश्चित हेतु उसने अपना सारा वैभव ही नहीं अपना पुत्री संघमित्रा पुत्र महेन्द्र का सारा जीवन धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए लगा दिया था। अंगुलिमाल और अम्बपाली भी ‘धर्म’ शरणं गच्छामि का दीक्षा मंत्र लेते ही देश विदेश में धर्म धारणा को सुविस्तृत करने में जुट गये। संचित पापों का प्रायश्चित करने के लिए ही सूरदास ने अपनी आँखें फोड़ ली थीं।

इन उदाहरणों में साधक को आध्यात्मिक पृष्ठभूमि बनाने के अपने प्रथम प्रयास का पता चलता है। जो इस प्रकरण को अनावश्यक समझकर लंबी छलाँग लगाना चाहते हैं, जमीन से उछल कर छत पर बैठना चाहते हैं, उनके पल्ले निराशा और असफलता ही हाथ लगती है। फलतः पूजा पाठ से कोई स्वार्थ सिद्ध न होने पर वो उपासना विमान तथा उसके क्रिया–कलापों को कोसते देखे जाते हैं। बिना नींव की दीवार यदि एक धक्के में ढह जाय तो आश्चर्य ही क्या है? रेगिस्तान में बगीचा लगाने वालों को तद्नुरूप तैयारी करनी पड़ती है। इच्छा करने मात्र से या पूजा पाठ की बाल क्रीड़ाएँ करने भर से किसी उच्चस्तरीय सत्परिणाम की आशा करना आकाश कुसुम तोड़ने के समान है, जो शेखचिल्ली जैसी कल्पना ही बन कर रह जाती है।

शास्त्र का कथन है-देवता बनकर देवता की उपासना करनी चाहिए’ इसका तात्पर्य यह है कि देव परिकर की जैसी प्रवृत्ति है उसी के अनुरूप अपने को ढालना चाहिए। यह सोचना व्यर्थ है कि मनुष्य को अपने को बदलने सुधारने की आवश्यकता नहीं है। देवता ही उलट कर मनुष्य जैसे घिनौने बन जाय। काली भैरव आदि के संबंध में लोगों ने ऐसी ही मान्यता कर रखी है कि उन्हें गद्य माँस जैसी वस्तुएँ भेंट करके, स्तवन की जय-जयकार सुनाकर उन्हें अपने भक्त की मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए सहमत किया जा सकता है। चाहे वे कामनाएँ सर्वथा अनीतियुक्त ही क्यों न हो? इस प्रकार की मान्यताओं वाले देव संपर्क के लिए जो सोचना करना चाहिए उस से ठीक विपरीत दिशा में चलते हैं। फलतः जब प्रतिकूल दुष्परिणाम सामने आते हैं तो उनका दोष देवता पर थोपते हैं।

भावी गतिविधियों को उत्कृष्ट आदर्शवादी बनाने के अतिरिक्त अध्यात्म के चमत्कार देखने वालों के लिए आवश्यक है कि वे पूर्व संचित दुष्कर्मों का प्रायश्चित करें। प्रायश्चित का अर्थ किसी नदी में नहा लेना, किसी प्रतिमा का दर्शन कर लेना पंचगव्य पी लेना आदि नहीं है वरन् यह है कि रास्ता चलने वालों की राह में जो काँटे बिखरे हैं, उन्हें मिट्टी डालकर समतल किया जाय। यह कार्य किन्हीं पूजाकृत्यों से नहीं हो सकते वरन् सच्चे अर्थों में इस बात का साहस जुटाना पड़ता है कि जितने पाप कमाये हैं उसी के भार के समतुल्य पुण्य भी इतनी मात्रा में कमाये जायें जिनसे तराजू का पलड़ा भारी नहीं तो कम से कम समान हो जाय। इन साहसिक प्रयत्नों को करने के लिए उद्यत समुचित लाभ उठाते हैं। शेष तो खिलवाड़ का परिणाम उपहास भर के रूप में पाते हैं।


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