कः विद्या?

May 1990

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तकनीकें सुझाता है सिद्धान्त सिखाता है तब वह शिक्षा होती है सिर्फ बुद्धि और स्मृति गम्य। मतलब इतना ही होता है कि बुद्धि समझे और स्मृति याद रखे।

शिक्षा की परिपक्वता के बाद जब संगीत साधक अन्तर भावों में डूब कर गाता है। स्वयं विभोर होकर औरों को विभोर करता है। तब इन क्षणों में शिक्षा कला का स्वरूप प्राप्त करती है। इस अपूर्व तन्मयता में उसकी विकसित होती जा रही भाव चेतना अपनी मौलिकता की अभिव्यक्ति विषय की निगूढ़ताओं अन्तर की अनेकानेक सूक्ष्मताओं में करती हैं।

भाव स्पर्शी कला यदि विकास की गति पर बढ़ सकी तो कला साधना बन जाती है। ऐसी साधना जो भावों के प्रगाढ़ परिपक्व होने पर जीवन बोध करा दे। अलाउद्दीन खाँ, रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कला का विकास इसी तरह तक किया था। यह कथन सिर्फ संगीत के क्षेत्र में ही नहीं अपितु साहित्य यहाँ तक कि विज्ञान के क्षेत्र में भी सात्य है। इमर्सन ने साहित्य तथा रमन -आइन्स्टीन के विज्ञान के माध्यमों से विद्या के इसी स्वरूप के बाद भी आवश्यक नहीं कि प्रत्येक शिक्षा कला बने और प्रत्येक कला विद्या के स्तर तक विकसित हो सके।

इस विकास के न हो पाने का एक उदाहरण यूनान के साफिस्टों में मिलता है। ये लोगों से पैसा लेकर अपने स्कूलों में उन्हें तर्क करना सिखाते थे। इन्हीं में से एक बहुत बड़ा साफिस्ट था, जीनो। उसने घोषणा कर रखी थी, कि किसी को भी हराना हो, तो मैं तर्क की शिक्षा देता हूँ। वह आश्वस्त इतना था कि विद्यार्थी से आधी फीस लेता और कहता आधी तब देना, जब तुम किसी को तर्क में हरा दो।

उसके पास अरिस्तोफेनीज नाम का छात्र आया। आधी फीस दे कर दो साल पढ़ा। दो साल बाद शिक्षक राह देखने लगा कि कब आधी फीस मिले। इधर अरिस्तेफेनीज ने बहस करना बन्द कर दिया कारण कि अगर वह जीत जाए तो आधी फीस चुकानी पड़े।

जीनो मुश्किल में था। इधर अरिस्तोफेनीज ने कहा मैं फीस देने वाला नहीं, जब तक मैं जीतूँ न। शिक्षक भला क्यों हार मानता-मामला अदालत में गया। जीनो का ख्याल था कि अगर अदालत ने अरिस्तोफेनीज को जिता दिया तो मैं कहूँगा कि फीस ला क्योंकि तू मुझ से पहला विवाद जीत चुका है और यदि वह न जीत कर मैं जीता-तो फीस मिल ही जायेगी। लेकिन शिष्य भी कम चालाक न था। उसने कहा यदि मैं जीत भी गया तो पैसा नहीं देने का क्योंकि मैं अदालत में प्रार्थना करूँगा कि यह अदालत का अपमान है। और यदि हार गया तब तो पैसा देने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि मैं पहला विवाद ही हार गया। हुआ यही अदालत से जीत जाने के बाद उसने पैसा न दिया। यह है शिक्षा अर्थात् विकसित बौद्धिकता जो अपने निहित स्वार्थों के रक्षण अभिवर्धन में खपती रहती है।

आज की स्थिति में भी इसका उपयोग धन सम्पदा के अर्जन तक सिमट कर रहा गया है। कला सम्मान अर्जित करने में खप रही है। फिर भला इनका विकास विद्या के रूप में कैसे हो? यही कारण है कि सच्चे अर्थों में कला भी खोती लुप्त होते जा रहे है। कारण एक ही है उनकी रीति-नीति का भाव स्पर्शी होने के स्थान पर वैभव स्पर्शी होना।

उपनिषदों ने इन सबका वर्गीकरण दो वर्गों में किया है अपरा विद्या व परा विद्या। पहले में शिक्षा व कला की समस्त विधाओं का समावेश है। दूसरे में जीवन बोध के सूत्रों का। इन सूत्रों को उचित ढंग से समाविष्ट करने पर जीवन का प्रत्येक कार्य आत्मोन्नति का साधन बनता है और अपरा विद्या भी परा विद्या का स्वरूप प्राप्त करती है। आचार्य शंकर की प्रश्नोत्तरी माला में एक सवाल आता है कः विद्या? वह उत्तर देते हैं सा विद्या या विमुक्तये। अर्थात् विद्या वही जो मुक्ति दिला सके। मुक्ति किससे? भ्रम जंजालों से इन्द्रियों की दासता से, स्वयं की दैन्यता से। हर उस चीज से जो जीवन बोध में अवरोध बनती है शिक्षा विज्ञानी टी.एम. श्रीनिवासाचारी अपनी कृति ‘काॅन्सेप्ट ऑफ रियल एजूकेशन में कहते हैं ऐसी विद्या भला विद्यालयों में कहाँ? उलटे वर्तमान स्थिति में विद्यालय विद्या के लय होने के आगार बन गए हैं। इसकी प्राप्ति एकाकी पुस्तकों के बल पर होती भी नहीं। अन्यथा ईसा के उपदेशों को अपने में संजोने वाली बाइबिल की प्रकाशित संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। इसके बाद भी ईसा के उपदेशों को जीवन में धारण करने वाले नगण्य है। इसे तब तक सीखा जाना दुष्कर है जब तक सामने मानवी प्रकृति का ऐसा मर्मज्ञ न हो जिसने स्वयं का रूपान्तरण कर लिया है।

अतीत के भारत में गुरुकुल आरण्यक परम्पराओं के माध्यम से इस संजीवनी विद्या का विस्तार होता था। पुरोहित व परिव्राजकों दूसरे शब्दों में ब्राह्मणों व साधुओं का समूचा वर्ग इसके विस्तार के लिए सर्वथा तैयार रहता था। सिर्फ भारत ही क्यों संसार के किसी भाग में साँस्कृतिक गरिमा के दिवाकर की रश्मियाँ चमकी है। इन विद्या विस्तारकों की अप्रतिम भूमिका रही है। वसुन्धरा के प्रत्येक कोने में जिन्दगी की ऊँचाइयों गहराइयों की परख करवाने वाले ईसा फ्रांसिस संत पाल, लाओत्से, कन्फ्यूशियस जैसे जीवन विद्या के आचार्य हुए हैं। जिन्होंने कुम्हलाई मुरझाई मानवता पर अपनी संजीवनी विद्या का प्रयोग कर विद्यायाऽमृतमश्नुते के कथन को चरितार्थ किया है।

आज जबकि समाज समग्र प्रत्यावर्तन के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में उसे आचार्य शंकर, गौतम, बुद्ध, ऋषि, दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द जैसे विद्या विस्तारकों की याद आना अस्वाभाविक नहीं है। जो अपनी जीवन विद्या के माध्यम से मानवता को गढ़कर तराशकर कल के प्रकाशमान युग के लिए तैयार कर सकें। कोई व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष नहीं समूची मानव जाति तीव्र रूप से अभीप्सित है उस विद्या के लिए जिसे भगवान कृष्ण ने ‘अध्यात्म विद्या विधानां’ कहा है। शास्त्रकारों ने जिसे ‘नास्ति विद्या समंचक्षु’ कहकर जीवन दृष्टि देने वालों में अनुपमेय ठहराया है।

इस जीवन विद्या के विस्तार के लिए ही व्यापक स्तर पर लोक शिक्षकों की आवश्यकता है जो जीवन जीने की कला के साथ भावों की प्रगाढ़ता को भी गूँथ कर व्यक्ति के मन में समाहित कर सके। तभी परिलक्षित होगा-भावी देवमानव का रूपान्तरित स्वरूप।


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