सहकार पर ही टिका है मानवी अस्तित्व

May 1990

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रूस के प्रख्यात मनीषी प्रिंस क्रोपाॅट्किन ने अपनी कृति ‘म्यूचुअल एड’ में कहा है कि सृष्टि में संघर्ष का नहीं, वरन् पारस्परिक सहयोग-सहकार का ही अस्तित्व है। मनुष्य सहित समस्त प्राणिसमुदाय का वास्तविक अभ्युदय मिलजुल कर रहने और एक दूसरे के सुखदुःख में साथी बन कर रहने में ही सन्निहित है। संघर्ष से तो अराजकता, अव्यवस्था फैलती है और विकसित जातियाँ भी नष्ट हो जाती है। मरने-मारने पर उतारू जातियाँ आपस में ही लड़ भिड़कर समाप्त हो जाती है। इतिहास साक्षी है कि कितनी ही बलिष्ठ और समर्थ जातियाँ केवल इस कारण विलुप्त हो गई कि उनमें छीना झपटी की, मारा-मारी की हिंसात्मक प्रवृत्ति का बाहुल्य हो गया था।

आदिमकालीन नर-वानर की तुलना में आज के प्रगतिशील मनुष्य में जमीन आसमान जैसा अन्तर हो गया। इसका प्रमुख कारण उसका सहकारी स्वभाव है मिलजुल कर रहने की इच्छा से ही परिवार बसाए, समाज, समुदाय बनाये, संगठन खड़े किये। शासनतंत्र का सशक्त ढाँचा विनिर्मित किया। कारखाने, उद्योग चल पड़े। यदि सहकारिता को मानव स्वभाव में से निकाल दिया जाय तो वह मात्र लड़ने-भिड़ने और स्वच्छंदता अपनाने वाले प्राणियों की तरह अविकसित रह जाता। परस्पर सहयोग का ही प्रतिफल है कि समाज, शासन उद्योग, व्यवसाय आदि वर्तमान स्थिति तक पहुँचे। अलग-अलग व्यक्ति यदि उन्हें अपने ढंग से करते तो शायद इनमें से एक भी काम न बन पड़ता। मिलजुल कर काम करना और संयुक्त शक्ति का उपयोग कर सकना जहाँ भी संभव होगा, वहाँ समर्थता रहेगी और सफलता मिलेगी।

वर्तमान समाज व्यवस्था में प्रायः बड़े शहरों की घनी बस्तियों में सहयोग सहकार के भाव समाप्त होते जा रहे हैं। एकता के बंधन टूटते जा रहे है। एक-दूसरे की सहायता करना तो दूर से पड़ोसी तक को नहीं जानते। अन्यान्यों की आवश्यकताओं की चिन्ता न करते हुए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की जिस-तिस प्रकार पूर्ति करना ही आधुनिक जीवन की तथाकथित सभ्य सम्पन्नों की प्रवृत्ति बनती जा रही है। सुप्रसिद्ध विचारक प्लिमसोले का कहना है कि सम्पन्नता ने आज मनुष्यता का गला घोट दिया है। सहानुभूति की भावना में केवल संकुचित हो गई है, वरन् कुंठित भी हो गई है। निर्धन एवं पिछड़ों की सहायता करना तो दूर उनके साहसिक कार्यों, कष्टमय जीवन की दिन-रात की बहादुरी और हृदय की कोमलता की कदर करना तक उन्हें नहीं आता। इसके विपरीत श्रमिकों में निर्धनों में एक दूसरे की सहायता करने की भावना आज भी कूट-कूट कर भरी है। दूसरों की सहायता करने में वे अपने प्राणों पर भी खेल जाते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने एक बहुत ही मर्मस्पर्शी घटना का उल्लेख किया है।

फ्राँस की जेल से एक बार एक कैदी भाग गया और दिन भर अपने आपको खेतों में छिपाये रखा। पुलिस उसकी तलाश कर रही थी। दूसरे दिन वह एक शहर के पास खुदी हुई खाई में जा छिपा। वह वहाँ कुछ समय तक ही बैठ पाया था कि पास के मुहल्ले में आग लगी। उसने देखा कि एक महिला जलते हुए मकान से बाहर निकल रही है और जोर-जोर से सहायता के लिए लोगों को पुकार रही है। उसका एक मात्र बच्चा जलते हुए मकान की दूसरी मंजिल में फंस गया था। कैदी ने स्त्री की करुणा, किन्तु नैराश्यपूर्ण पुकार सुनी और जब देखा कि सभ्य सम्पन्न पड़ोसियों में से कोई भी उसकी मदद करने और बच्चे को बचा लेने के लिए आगे नहीं आ रहा तो वह अपने को नहीं रोक सका। भागता हुआ आग के भीतर लपका और अन्दर जाकर उस बच्चे को सुरक्षित बचा लिया और उसकी माँ को सौंप दिया। बाहर निकलते समय कैदी के कपड़ों में आग लग चुकी थी और उसका चेहरा बुरी तरह झुलस गया था। पुलिस भी तब वहाँ मौजूद थी, जिसने उसे पुनः गिरफ्तार कर लिया। उसका अपराध मात्र इतना था कि मालिक द्वारा नौकरी से निकाल दिये जाने के कारण जब परिवार को भूखों मरने की नौबत आ गई तो उसने कहीं से खाना चुरा लिया था। विडम्बना यही है कि समाज के सफेद पोशवर्ग के निष्ठुर धनिक किन्तु अपराधी तो पकड़े नहीं जाते वे ऐसे भाव संवेदना के धनी छोटे से अनजाने में किये अपराध पर कानून की बेड़ियों में जकड़ दिये जाते है।

पाश्चात्य, मनीषी जोसेफ जी, फीतेसाज का कहना है कि श्रमिक जातियाँ, पहाड़ी अन्य जातियाँ, एस्किमो आदि इसलिए आज भी जीवित बनी हुई हैं कि उनमें व्यापक रूप से आपसी सहयोग बना हुआ है, अन्यथा विषम परिस्थितियों की कठिनाइयों के कारण वे कब की दम तोड़ गई होती। उनके अनुसार कितनी ही सभ्य एवं समुन्नत मानव जातियाँ केवल इसलिए मिट गई कि उनसे संकीर्ण स्वार्थपरता का रास्ता अपनाया और परस्पर संघर्ष करने लगे यद्यपि यह परम्परा परिवर्तित रूप में कहीं-कहीं अब भी विद्यमान है किन्तु मिलजुल कर रहने और मिल-बाँट कर खाने की सहकारिता की भावना जितनी अधिक श्रमिकों, धनिकों निर्धनों में है, सम्पन्नों में उसके कदाचित ही दर्शन होते है। बहुत से धनी यह नहीं समझ सकते कि अत्यधिक निर्धन आपस में एक दूसरे की किस प्रकार सहायता कर सकते है। कारण कि वे यह नहीं जानते कि निर्धनतम जातियों के परिवार का जीवन-मरण कितनी सी खाद्य सामग्री या पैसे पर निर्भर रहा करता है जिसकी पूर्ति प्रायः वे पारस्परिक सहयोग से कर लेते हैं। फीतेसाज ने अपने जीवनचरित्र में जिन संकटपूर्ण विषम परिस्थितियों का वर्णन किया है, उनके अनुसार कोई विरला ही मजदूर परिवार होता है जिसे अपने जीवनकाल में उनका सामना न करना पड़ा हो। विपन्न परिस्थितियों में भी यदि वे सभी नष्ट नहीं हो जाते तो इसका प्रमुख कारण उनका पारस्परिक सहयोग ही है। अपने स्वयं के बारे में वे लिखते हैं कि उन दिनों जब मेरा परिवार भूखों मरने ही वाला था, उस वक्त एक वृद्ध परिचारिका ने जो स्वयं अत्यन्त निर्धन थी, कुछ रोटियाँ, थोड़ा कोयला और बिस्तर लाकर पूरे परिवार की काल के मुँह में सामने से रक्षा की थी। वृद्धा इन वस्तुओं को कहीं से उधार माँगकर लाई थी। यदि वह न होती तो और कोई अथवा पड़ोस वाले ही पीड़ित कुटुम्ब की सहायता कर देते। मैक्सिसगोर्की तथा कार्ल मार्क्स ने ऐसी गरीबी स्वीकार करके औरों के साथ शोषितों के साथ रहकर जीना पसन्द किया था नहीं तो उनकी प्रतिभा उन्हें महलों का वैभव भी दे सकती थी। सहयोग सहकार एक मानवी सद्गुण है एवं जब तक वह है, मानवता जीवित रहेगी।

विकासवाद, ओरीजिन ऑफ स्पेसिज, डीसेन्ट ऑफ मैन, जैसी प्रसिद्ध कृतियों के रचयिता एवं जीवन के लिए संघर्ष को अनिवार्य मानने वाले विख्यात वैज्ञानिक डार्विन ने अपनी तीसरी कृति में स्वयं लिखा है कि सामाजिकता की मानवी विकास का प्रमुख कारण है। यद्यपि उसमें कई कमियाँ हैं किन्तु सहकार भाव के कारण असीम संभावनाएँ हैं। प्रकृति के अन्य प्राणियों की अपेक्षा आत्मरक्षा के साधन उसके पास नहीं है, फिर भी अपनी बौद्धिक शक्तियों एवं अन्य सामाजिक गुणों द्वारा वह इन कमियों की क्षतिपूर्ति सरलतापूर्वक कर लेता है। एक दूसरे की सहायता करके उसने इन शक्तियों को प्राप्त कर लिया है। मनीषी रूसो का कहना है कि प्रकृति में सर्वत्र प्रेम, शक्ति और सहयोग की कूट-कूट कर भरा है किन्तु मनुष्य ही उसे नष्ट कर संकट मोल लेता रहता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में इस संदर्भ में प्रख्यात रूसी वैज्ञानिक प्रोफेसर केसलर ने प्रकृतिवादियों के एक सम्मेलन में कहा था कि सहयोग प्रकृति का एक अटल नियम एवं विकास का मुख्य अंग है। संघर्ष की अपेक्षा कहीं अधिक कारगर रूप से इसे प्रयुक्त होते हुए देखा जा सकता है। मानव जाति के विकास में पारस्परिक सहयोग का कितना अधिक हाथ रहा है, यह किसी से भी छिपा नहीं।

मनुष्य में साथ-साथ रहने और एक दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्ति उतनी ही पुरानी है, जितना कि उसका धरती पर आगमन। समय-समय पर इतिहास में उतार-चढ़ाव होते रहे, मनुष्य पर आपदाओं के प्रहार होते रहे। कितने ही देश युद्धों के कारण बर्बाद हो गये, और मानव जाति दरिद्र बन गई। फिर भी जिन समुदायों में सहकारी प्रवृत्ति जीवित रही, वे समय के अनुकूल नवीन संरचना खड़ी करने में समर्थ हुए। विषम एवं विपन्न परिस्थितियों में भी मानव की रचनात्मक प्रतिभा को प्रेरणा एवं सुविधाएँ आपसी सहयोग की प्रवृत्ति से ही मिली है। आशा रखनी चाहिए कि आने वाले दिनों में सहयोग-सहकार की भावना का इतना अधिक विस्तार होगा कि समस्त मानव जाति भिन्न-भिन्न धर्मों, भाषाओं और जाति वर्गों के भेद को भूल कर उसे अपनी जीवनधुरी बना लेगी।


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