‘काम’ एक उल्लास, एक दिव्य प्रेरणा

May 1990

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अध्यात्म शास्त्रों में जीवनक्रम के सफलता के चार आधार महत्वपूर्ण माने गये हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें से ‘काम’ शब्द का अर्थ ठीक प्रकार से न समझ सकने के कारण असमंजस उत्पन्न होता है। योगी, तपस्वी, संयमी और ब्रह्मचारी लोग सोचते हैं कि कहीं वे कामवासना की उपेक्षा करके भूल तो नहीं कर रहे हैं। भौतिकवादी प्रतिपादनों में तो कामवासना को मानवी चेतना की मूल प्रवृत्ति ही ठहरा दिया है। कितने ही पाश्चात्य मनोविज्ञानियों ने उसे प्रकृति प्रेरणा ठहराते हुए कामुकता की पूर्ति पर बहुत जोर दिया है। भ्राँतियों का मूल कारण ‘काम’ का अर्थ यौनलिप्सा के निम्न स्तर पर करने लगाना है।

कामशक्ति का भ्रांतिपूर्ण प्रतिपादन करने में फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक को अग्रणी माना जाता है। कामवासना को उसने मनुष्य की मूल प्रवृत्ति माना और उसे ‘लिविडो’ नाम से संबोधित किया है। उसके अनुसार जीवन की समस्त क्रियाओं की संचालिका शक्ति यही है। सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करने की क्षमता इसमें है। जब उसका असाधारण रूप से दमन किया जाता है तो अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक बीमारियाँ पैदा हो जाती है। किन्तु उसका उदात्तीकरण कला, धर्म, परोपकार, भक्ति आदि की भावनाएँ जाग्रत करता है, इस तथ्य की ओर उन का ध्यान ही नहीं गया, ऐसा अध्यात्मपरक मनोविज्ञान के समर्थकों का मत है।

मूर्धन्य मनोवैज्ञानिक अल्फ्रेड एडलर ने उक्त प्रतिपादन को फ्रायड की एक बड़ी भूल बताते हुए कहा है कि ‘काम प्रवृत्ति सामान्य जीवन का एक अंगमात्र है, जिसकी प्रतिष्ठा वंश-वृद्धि में सन्निहित है इस आधार पर की गई एकाँगी विवेचना मनुष्य जीवन के समग्र व्यक्तित्व को प्रकाशित नहीं कर सकती। उनका कहना है कि मनुष्य के सामान्य व्यवहार का स्रोत सामाजिक प्रतिष्ठा की प्रबल इच्छा है, न कि कामुकता की इच्छा। सामाजिक प्राणी होने के कारण प्रत्येक मनुष्य अपने साथियों में समाज में एक विशिष्ट स्थान बनाना चाहता है जिसे प्रतिष्ठा की कामना कह सकते हैं। यही मनुष्य की प्रेरणात्मक शक्ति है जिसे उल्लास उमंग भी कह सकते हैं। काम प्रवृत्ति के स्थान पर उसके परिष्कृत रूप ‘आत्म स्थापन’ को उसने मानव जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। काम शक्ति का यही उच्चस्तरीय परिवर्तित रूप भी है।

प्रख्यात मनोवेत्ता कार्ल गुस्तेव जुँग के अनुसार कामशक्ति को यौन उत्तेजनाओं के सीमित दायरे में केन्द्रित नहीं किया जा सकता। यह एक सशक्त साइकिक एनर्जी-मानसिक ऊर्जा है, जिसके द्वारा मानव मन के प्रत्येक क्रिया-कलाप संचालित होते हैं। ‘लिविडो’ का अर्थ है इच्छाशक्ति संयम-शक्ति इसी के आधार पर मनुष्य जीवन की दिशाधारा निर्धारित होती है। इस शक्ति का प्रवाह कई दिशाओं में हो सकता है। मनुष्य में अनेक प्रवृत्तियाँ होती हैं। जिसमें जिस प्रवृत्ति की प्रधानता होती है, उसकी मानसिक शक्ति का प्रवाह भी उसी दिशा विशेष में होने लगता है। इस प्रवाह की दिशाधारा ही मानव के चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्धारण करती है। दमन की अपेक्षा आकांक्षा एवं अभिरुचि का उत्साह का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। अतः कामशक्ति का सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजन भी कठिन नहीं होना चाहिए।

‘द् साइकोलॉजी ऑफ द् अनकाॅंशस’ नामक अपनी कृति में जुँग कहते हैं कि काम प्रवृत्ति वस्तुतः एक अभेद्य जीवनशक्ति है। इस जीवन ऊर्जा की अभिव्यक्ति उत्कर्ष की खोज में, कलात्मक सर्जन तथा अन्यान्य सृजनात्मक क्रियाओं में होती है। यौन सुख तो उसका एक क्षणिक एवं आँशिक भाग है जिसका प्रयोग मात्र जाति संरक्षण के लिये किया जाता है। इस तथ्य को जानने वाले कामुकता के भ्रमजंजाल से बचते और कामबीज का उन्नयन एवं नियोजन साँस्कृतिक, सामाजिक उत्कर्ष या आत्मोत्थान के लक्ष्यों को प्राप्त करने में करते हैं। उनके अनुसार इस मानसिक ऊर्जा का उपयोग जब सही दिशा में निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति में किया जाता है तो मन संतुलित अवस्था में बना रहता है और उसकी परिणति मानसिक उल्लास-उमंग के रूप में, साहस एवं प्रतिभा के रूप में सामने आती है।

मनोविज्ञानी जुँग का उक्त प्रतिपादन प्रकारान्तर से भारतीय ऋषियों की उस मान्यता का समर्थन करता है जिसमें कामबीज को परम प्रयोजनों में, ज्ञानबीज में परिवर्तित एवं नियोजित करने की बात कही गई है। अथर्व वेद में कामशक्ति के अवतरण की प्रार्थना करते हुए ऋषि कहते हैं ‘हे परमेश्वर! तेरा काम रूप भी श्रेष्ठ और कल्याणकारक है। उसका चयन असत्य नहीं है। आप कामरूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें।’

काम वस्तुतः प्रत्येक प्राणी के अन्तराल में समाहित एक उल्लास है। छिपी प्रेरणा है जो आगे बढ़ने, ऊँचे उठने विनोद का रस लेने एवं साहसिक प्रयास करने के लिए निरन्तर उभरती रहती है। इसी को आकर्षण शक्ति कहते हैं। जड़ पदार्थों में यह ऋण और धन विद्युत के रूप में काम करती है। परम्परा उन्हें जोड़ती खदेड़ती रहती है। भौतिकी के अनुसार सृष्टि की गतिविधियों का उद्गम यही है। परमाणु का नाभिक अपने भीतर इसी क्षमता का निर्झर दबाये बैठा है और समयानुसार उसे उभार कर विकिरण उत्पन्न करता है। शक्ति तरंगें उसी से उद्भूत होती और संसार की अनेकानेक हलचलों का सृजन करती है।

प्राणियों में उसका उभार उत्साह उल्लास एवं उमंगों के रूप में होता है। पारस्परिक प्रेम, सहयोग से उत्पन्न उपलब्धियों में परिचित होने के कारण आत्मा उस स्तर के प्रयासों में रस लेती है और सहज विनोद के लिए उन प्रयासों में प्रवृत्त होती है। इसी को शास्त्रकारों ने ‘काम’ कहा है और उसकी उपयोगिता का समर्थन किया है।

इसी प्रवृत्ति का एक छोटा रूप ‘यौनाचार’ है जिसे फ्रायड जैसे पाश्चात्य मनोविज्ञानियों ने पूर्ण प्रवृत्ति का नाम दे डाला और मनुष्य को उसका गुलाम बनने को प्रोत्साहित किया है। परिणाम की दृष्टि से यह नर और नारी के लिए बोझिल ही नहीं कष्टकारक भी है। भारतीय मनीषियों ने कामतत्व की व्यापकता को समझते हुए ही संतानोत्पादन को इसका एक अति सामान्य प्रकृति प्रयोजन भर माना है जिससे वंश प्रवाह को सुस्थिर रखा जा सके। किन्तु मनुष्य ने इस संदर्भ मर्यादा का उल्लंघन एवं स्वेच्छाचार का दुस्साहस किया है।

वनस्पति जगत में पुष्पों का सौंदर्य और सौरभ उनके अन्तराल में उभरे हुए कामोल्लास का परिचय देते हैं। भ्रमर के गुँजन, मयूर के नृत्य, पक्षियों के क्रीड़ा कल्लोल में उनके उभरते हुए अन्तःउल्लास का परिचय मिलता है। मनुष्यों में यही विनोद, उल्लास अनेक अवसरों पर अनेक प्रकार से उभरता है। बच्चे अकारण उछलते मचलते रहते हैं। किशोरों को क्रीड़ांकन में तथा युवतियों को नृत्य-गायन में अपनी स्फूर्ति, अंतःउल्लास की शक्ति का परिचय देते देखा जाता है। प्रौढ़ों को दूरदर्शी योजनाएँ कार्यान्वित करते एवं गुत्थियाँ सुलझाने में भावविभोर देखा जाता है। कवि, कलाकार आदि को अपनी ही तरह के सरसता के निर्झर में आनन्द लेते और दर्शकों को उल्लसित करते देखा जाता है जो अगणित उमंगों के रूप में प्रकट होता है और विनोद भरे क्रियाकृत्य करने की प्रेरणा देता है। प्राणियों की प्रगति और पदार्थों की हलचल उसी उभार पर निर्भर हैं। संसार में जितने भी महत्वपूर्ण काम हुए हैं, जितने भी व्यक्तित्व उभरे हैं उन सबके मूल में अदम्य अभिलाषा और भाव भरा उल्लास ही काम करता रहा है।

जिन्हें उक्तमन्द बनने की चाह हो, उन्हें अपनी जीभ पर काबू रखना चाहिए।

‘काम’ को हेय तब से समझा जाने लगा, जब से उसे यौनाचार के रूप में प्रतिपादित किया जाने लगा। यों अश्लील चिन्तन और उस प्रयोजन के लिए होने वाले अन्य कृत्य भी कामुकता की व्याख्या परिधि में आते हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि यह समस्त परिकर-सुविस्तृत कामशक्ति का बहुत ही छोटा और हेय स्वरूप है। वस्तुतः ‘काम’ शब्द की परिभाषा क्रीड़ा उल्लास ही हो सकती है, जिसका उभार या उमंग सृजनात्मक प्रयोजनों में निरत होने पर सामान्य से मानव को महामानव स्तर का बना देता है। इस शक्ति का उन्नयन आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रमुख आधार खड़ा करता है। धर्म और मोक्ष जैसे आत्मिक एवं अर्थ और काम जैसे भौतिक प्रगति की चतुर्विधि महान उपलब्धियों में उसकी गरिमा के अनुरूप ही ‘काम’ को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। हमें कामशक्ति के इसी उत्कृष्टता सम्पन्न स्वरूप को समझना और इससे जुड़ती रहने वाली भ्राँतियों से बचना चाहिए।


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