“अपने विचारों को पवित्र रखो” धर्म का समस्त तत्व इसी एक वाक्य में छिपा हुआ है। अन्याय विधान तो धर्म की भूमिका और शब्दाडम्बर मात्र है। क्रोध, कटु भाषण, ईर्ष्या और लोभ से बचना यही तो धर्म प्राप्ति का मार्ग है। सदैव शुभ कर्म करने में प्रवृत्त रहो परोपकार को कार्यों में पूरी शक्ति और पूरा उत्साह लगाना यही तो कर्तव्य है। नेकी से बढ़कर न तो काई धर्म है और न बदी से बढ़कर कोई पाप। यह मत पूछो कि धर्म से क्या लाभ है? जिज्ञासुओं! धर्म से उत्पन्न होने वाला सुख ही सच्चा सुख है। अन्य सुख तो विडम्बना मात्र हैं। यदि तुम एक क्षण भी व्यर्थ खोए बिना जीवन भर नेक काम करते रहो तो निश्चय ही एक दिन जन्म मरण की फंसी से छूट जाओगे। धर्म के पथ पर आरुढ़ होने में एक पल का भी विलम्ब मत लगाओ। आज से ही सेवा मार्ग को अपनालो, ऐसा न हो कि ‘कल करूंगा’ सोचते सोचते मृत्यु तुम्हारा गला दबाले और जनम जन्मान्तरों तक साथ रहने वाले धर्म रूपी अमर मित्र को प्राप्त करने से वंचित रह जाओ।
भाग 2 सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य अंक 11