(सन्त कबीर)
हिरदे भीतर लौ जले, धुवाँ प्रकट नहिं होय। जाकी लागी सो लखे, कै जिहि लागी सोय॥
मारया है ते मरि गया, बिन शिर थौथा भाल।
पड़ा पुकारै वृक्ष तर, आज मारै के काल॥
नदियाँ जलि कोयला भई समंदर लागी आग।
मछली रुखाँ चढ़ि गई, देखि कबीरा जाग॥
पिंजर प्रेम प्रकासिया जागा जोग अनंत।
संसय छूटा सुख भया, मिला पियारा कंत॥
पिंजर प्रेम प्रकासिया, अंतर भया उजास।
मुख कस्तूरी महँकसी, वाणी फूटी बास॥
पानी ही ते हिमि भया, हिमि है गया बिलाय।
जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहा न जाय॥
अंक भरे भरि भेटिया, मन में नाहीं धीर।
कहै कबीर ते क्यूँ मिलै, जब लोग दोय शरीर॥
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देखा माँहि॥
मान सरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुक्ताहल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं॥ ममता मेरा क्या करे प्रेम उघाड़ी पौलि।
दरशन भया दयाल का सूलि भई सुख सौड़॥
नैनों अंतर आब तू पलक बन्द कर लेहूँ।
न हौं देखों और को, ना तोहि देखन देहुँ॥
मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सोंपते, क्या लागत है मोर॥
कबीर सीप समुद्र की, रटे पियास-पियास।
समुद्रहि तिनका सम गिनै स्वाँति बूँद की आस॥
तो तो करै तो बाहुरों, दुर दुर करे तो जाऊँ।
ज्यों हरि राखें त्यों रहो, जो देवैं सो खाऊँ॥
उस समरथ का दास हों, कभी न होय अकाज। पतिव्रता नंगी रहे, तो पति को हो लाज॥