कर्तव्य कर्म

November 1941

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(श्री स्वामी विवेकानन्दजी महाराज)

केवल कर्तव्य समझ कर कर्म करने वाले बहुत थोड़े हैं। श्रेष्ठ पुरुष कीर्ति, धन अथवा अन्य कोई भी स्वार्थ मन में न रख कर सिर्फ इसीलिए कर्म करते हैं कि दूसरे का भला हो। किसी का भी भला उन्होंने देखा कि उन्हें आनन्द होता है। कीर्ति के हेतु जो कर्म किया जाता है, उसका फल प्रायः देर में मिलता है। कई बार देखा जाता है कि लोग जब जन्म भर कीर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, तब अन्त काल में कहीं जाकर यश मिलता है। यदि मनुष्य कोई भी उद्देश्य मन में न रखकर कर्म करेगा, तो क्या उसे उसके कर्मों का कोई भी फल न मिले? मिलेगा अवश्य मिलेगा। सब से उच्च श्रेणी का फल उसे मिलेगा। परन्तु साधारण मनुष्यों में इतना धैर्य नहीं होता कि वे उसके फल फूल होने तक रास्ता देखते रहे। शारीरिक स्वास्थ्य पर भी ऐसे कर्मों का बहुत उत्तम प्रभाव होता है।

प्रेम, सत्य और निस्वार्थ बुद्धि इन तीनों गुणों में हमारी चैतन्यता को पूर्णतया जागृत करने की सामर्थ्य है। स्वार्थ बुद्धि से प्रेरित होकर कर्म करने में हमारी जो सामर्थ्य खर्च होती है, वह किसी उपाय से फिर हमें लौट कर नहीं मिलती, किन्तु स्वार्थ बुद्धि छोड़ देने पर-मन पर अधिकार रखने में जो शक्ति खर्च होती है, वह कई गुनी अधिक होकर हमारे पास लौट आती है। इस प्रकार जिसका मन वश में हो जाता है, उसकी इच्छा शक्ति अत्यन्त दृढ़ हो जाती है और वही आगे चल कर ईसा मसीह, मुहम्मद और बुद्ध की पदवी तक पहुँच जाती है।


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