दंगे और अहिंसा

November 1941

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(महात्मा गाँधी)

मेरी अहिंसा में खतरे से भाग जाने की या अपने प्रियजनों को अरक्षित छोड़ देने की गुँजाइश नहीं है। जहाँ हिंसा और डर कर भाग जाने में से एक चीज़ चुननी हो वहाँ मैं कायरपन की अपेक्षा हिंसा को ही अधिक पसन्द कर सकता हूँ। जिस प्रकार मैं किसी अन्धे आदमी को स्वास्थ्यकर दृश्यों का आस्वाद लेने के लिए ललचा नहीं सकता उसी प्रकार डरपोक को अहिंसा का उपदेश नहीं दे सकता। अहिंसा तो वीरता का गौरीशंकर है। मेरा अपना यह अनुभव ही है, कि जिन लोगों ने हिंसा की तालीम पाई है उनको अहिंसा की श्रेष्ठता समझाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती। मैं खुद बरसों तक कायर रहा तब तो मेरे दिल में हिंसा थी। ज्यों ज्यों मैं अपनी कायरता छोड़ने लगा, त्यों -त्यों अहिंसा की कीमत करने लगा। जो हिन्दू संकट के समय अपने कर्तव्य क्षेत्र से भागे वे इसलिए नहीं भागे कि वे अहिंसक थे या प्रहार करने से परहेज करते थे, बल्कि इसलिए भागे कि मरना या कोई चोट सहना भी नहीं चाहते थे। शिकारी कुत्ते के सामने से भाग जाने वाला खरगोश कुछ खास तौर से अहिंसक नहीं होता। वह तो कुत्ते को देखते ही काँपने लगता है और अपनी जान बचाने के लिये भागता है। जो हिन्दू अपनी जान बचाने के लिए भाग गये वे अगर अपना सीना खोल कर मुस्कराते हुए अपनी जगह पर डटे रहते और मर जाते तो वे दरअसल अहिंसक होते अथवा यश उज्ज्वल करते, अपने धर्म की क्रान्ति बढ़ाते और अपने मुसलमान हमलावरों की दोस्ती के पात्र होते। अगर वे अपनी जगह डटे रह कर प्रहार के बदले प्रहार करते तो भी वे इससे कुछ कम अच्छा काम करते, फिर भी अच्छा ही काम करते।


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