प्रार्थना का स्वरूप

November 1941

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पवित्र आत्मा वाले मनुष्य की प्रार्थना वस्तु होती है। वह सन्निपात के रोगी की तरह चीज की इच्छा नहीं करता वस्तुतः किसी की किसी को जरूरत हो तो उस शुद्ध अपेक्षा की पूर्ति अवश्यमेव कहीं से न कहीं से हो जाती है। कोई आदमी पानी में डूब रहा है तो बचाने वाले उसके प्रार्थना करने से पूर्व उसे बचाने लिये दौड़ पड़ते हैं। किसी के घर में आग लगी हो तो बिना बुलाये सैकड़ों मनुष्य उसे बुझाने जाते हैं। विद्या पढ़ने के इच्छुक बालक के कोई न कोई दयालु महानुभाव उसके लिये आवश्यक सामग्री जुटा ही देते हैं। सच्चे जिज्ञासु को सच्चा गुरु मिलकर रहता है। परोपकार में धार्मिक संस्थाओं का बहुत बड़ा मासिक खर्च अपने आप जुट जाता है। किन्तु आलस्य और आदतवश कामचोर आदमी जो माँगते हैं वह वास्तविक आवश्यकता नहीं होती ऐसे लोग एक पाई माँगते फिरते हैं, और हर जगह से धिक्कारे जाकर आधा चौथाई पेट भरकर सो जाते हैं। सच्ची आवश्यकताओं की पूर्ति के पर्याप्त साधन ईश्वर की इस पवित्र सृष्टि में मौजूद हैं। वे निकम्मे लोगों को प्राप्त नहीं होते।

अदृश्य जगत में अनेक प्रकार और स्वभावों की चेतनाएं निवास करती हैं। इन में अनेक देव स्वभाव की और सूक्ष्म शक्तियों से सम्पन्न होती हैं। जिस प्रकार हम डूबते हुए मनुष्य को बचाने के लिये अनायास ही दौड़ पड़ते हैं वैसे ही अपने उच्च संस्कारों के कारण वे चेतनाएं मृत्युलोक के प्राणियों की सहायता करती हैं जिन्हें कि उस सहायता की वास्तविक आवश्यकता होती है। हम उनके कार्य-कलापों को देख नहीं पाते तो भी वे हमारी मूक प्रार्थना को सुनती हैं और उसके औचित्य को देखते हुए भरपूर सहायता देने का प्रयत्न करती रहती हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी को राम का दर्शन कराने के लिये हनुमान जी की सहायता प्राप्त होने की कथा प्रसिद्ध है। ठीक ऐसी ही सहायताएं हम में से बहुतों को जीवन में अनेक बार मिलती हैं। परन्तु जड़ जगत में लिप्त रहने और आध्यात्मिक साधनाओं में दूर हटते जाने के कारण हमारी मनोभूमि ऐसी जड़ बन गई हैं कि अपनी उन अदृश्य सहायताओं के स्वरूप को पहचानना तो दूर उन सहायताओं तक को नहीं जानते। काश; आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा हमने अपनी अन्त दृष्टि को कुछ स्वच्छ किया होता तो देखते कि हमारे ऊपर कितनी अयाचित सहायताओं की वर्षा हो रही है और हम दूसरों के जरा से उपकार के लिये कितनी आनाकानी करते हैं।

वास्तविक आवश्यकता एक उत्तम प्रार्थना है। वह अखिल आकाश में ऐसी कम्पन लहरें उत्पन्न करती हैं जिनमें पर्याप्त मात्रा में चुम्बकत्व होता है। कबूतरबाज अपने सिखाये हुए कबूतर को ऊपर उड़ा देते हैं और वह किसी झुण्ड में जाकर बहुत से कबूतरों को उड़ाकर अपने साथ ले आता है उसी तरह आकर्षण शक्ति युक्त हमारी कामना लहरें जब यात्रा पूरी करके अपने मूल स्थान पर वापिस लौटकर आती हैं तो अपनी जाति के बहुत से तत्वों को साथ में चिपकाये लाती हैं। चुम्बक पत्थर के टुकड़े को लोहे के बुरादे के बीच में से यदि खींचकर ले जाओ तो उसके साथ साथ बहुत सा चूरा चिपका हुआ चला आवेगा। बलवान मानस की प्रार्थना जब वापिस लौटती है तो उसके साथ उसकी पूर्ति के बहुत से साधन भी होते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में अभी यह निराकरण अच्छी तरह नहीं हुआ है कि किन वस्तुओं के लिये किससे प्रार्थना करनी चाहिये और उसकी क्या विधि होनी चाहिये? जिज्ञासुओं को जानना चाहिये कि परमात्मा से पिता का काम लेना चाहिये नौकर का नहीं, जिस प्रकार हम किसी महान् कार्य को करने के लिये चलते हैं तो माता पिता या गुरुजनों के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद चाहते हैं। आशीर्वाद सुदृढ़. कवच का काम देता है। दिव्य आत्माओं द्वारा वरदान प्राप्त होने की साक्षी से समस्त धर्मों के इतिहास पुराण भरे पड़े हैं। गुरुजनों के आशीर्वाद से कठोर कार्य सहज में ही पूरे हो जाते हैं। क्योंकि अन्तरात्मा से निकला हुआ आशीर्वाद सूक्ष्म जगत में एक स्वतन्त्र व्यक्ति का रूप धारण कर लेता हैं और उनकी रक्षा करता है। दुर्वासा के शाप से एक राक्षसी का पैदा होकर अम्बदीप के पीछे दौड़ना और शिवजी के शाप से वीरभद्रा का पैदा होकर राजा दक्ष का यज्ञ विध्वंस करने की कथाएं झूठी नहीं हैं। उस समय के मनुष्यों के आत्मिक बल के अनुसार यह सूक्ष्म प्राण अधिक बलवान होते होंगे और आँखों से प्रत्यक्ष भी दिखाई देते होंगे पर आज भी उनका अभाव नहीं है। आत्मशक्ति के अनुसार इन अदृश्य प्राणियों का उत्पन्न होना विज्ञान सम्मत है। वे सदा पैदा होते थे और अब भी होते हैं। अस्तु गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करना किसी महान् कार्य के लिये आवश्यक होता है। परन्तु कोई मूर्ख यदि यह सोचे कि “पिताजी के आशीर्वाद में इतना बल है तो शरीर में न जाने कितना होगा इसलिये इन्हें घोड़ा बनाकर सवारी के काम में लिया जाये’ तो उस अज्ञानी का विचार उपहासास्पद होगा। यदि वह अपने इस विचार को कार्य रूप में परिणित करे तो लाभ के स्थान पर हानि ही उठाएगा। हममें से असंख्य लोग इसी नादानी को दुहराते रहते हैं।

विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर एक स्थान पर कहते हैं-परमात्मा हमें बुद्धि देता है, जिसका अर्थ हैं कि हम अपने ऊपर निर्भर रहें। उसने हमें वह आदर्श दिया है कि हम रोते हुए जाकर उसका द्वार न खटखटावें। उसने अपने को हमारे क्षेत्र से अलग रखा है और एक चिन्ताशील माता की तरह बार-बार प्रकट नहीं होता। उसने पूरी पूरी जिम्मेदारी के अधिकार देकर हमारे पौरुष को सम्मानित किया है। वह कायरों की उँगली नहीं पकड़ता, वरन् उन्हें विपत्तियों को अकेले भुगतने के लिये धकेल देता है ताकि वे निर्भयता और स्वावलम्बन के साथ जीना सीखें” यह शब्द बड़े ही भव्य पूर्ण हैं। किन को यह पसंद नहीं कि हर पुत्र उसे घोड़ा बनावे या हर घड़ी नौकर की तरह पानी पिलाने और हाथ धुलाने के लिये मजबूर करे। परन्तु अज्ञानी भक्त स्वयं निकम्मे बैठे रहते हैं और प्रार्थना करते हैं कि है ईश्वर! आप हमारे कपड़े धोकर सुखा जाइये। जब सारे अधिकार और सारे हथियार हमें दे चुका हैं फिर भी हम उसे ही हल में जोतना चाहें तो यह कितनी बेवकूफी की बात है। हर काम जिसे हम उचित समझते हैं और करने की योग्यता रखते हैं स्वयं करें। परमात्मा द्वारा दिये हुए शरीर और मस्तिष्क का भरपूर प्रयोग करें तो वह वस्तु जिस के लिये प्रार्थना करते हैं आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। चिट्ठियाँ लाने और ले जाने का काम डाकखाने का है, कोई मूर्ख यदि कलक्टर साहब के ऊपर बरस पड़े कि भगवन्! आप मेरी चिट्ठियाँ लाया कीजिये तो वे यही उत्तर देंगे कि महाशय ! सरकार ने इस सुविधा के लिये डाकखाने का महकमा अलग खोल दिया है, आप उससे भरपूर लाभ उठा सकते हैं, जो कार्य शरीर और मस्तिष्क के करने के हैं, उनको पूरे उत्साह और पूरी शक्ति के साथ करना चाहियें।

ईश्वर से प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिए। कि -”आप हमें प्रेरणा दीजिए, हमारे अन्दर अपनी शक्ति का संचार कीजिए, हमें साहस, उत्साह और धैर्य दीजिए।” यही वस्तुएं सूक्ष्म सत्ता के केन्द्र से आती है और इन्हें ही हम ईश्वर से प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर आटा गूँथने न आवेगा, पर हम प्रार्थना करेंगे तो वह हमारी उस योग्यता को जागृत कर देगा, जिसके द्वारा वैसे कामों को आसानी से किया जा सकता है। इन पंक्तियों में बार-बार यह दुहराया जा रहा है कि आप अपना कर्तव्य अवश्य पूरा कीजिये परिश्रम में रत्तीभर भी कमी न रखिये। तभी पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं, प्रार्थना की पहली सीढ़ी यह है कि यदि किसी साँसारिक वस्तु की हमें आवश्यकता है तो उसके लिये भरपूर प्रयत्न करें, जैसे आज्ञाकारी पुत्र को पिता अधिक प्यार करता है और अधिक वस्तु देता है, उसी प्रकार शक्ति भर प्रयत्न करने की ईश्वरीय आज्ञा को पालन करने वाला जगत पिता का अधिक स्नेह भोजन बन सकता है। भूल कर भी अकर्मण होकर मत बैठिये कि हम तो भजन करेंगे, यह कार्य तो ईश्वर करके रख जायगा। ईश्वर को ऐसे भजन या खुशामद की जरूरत नहीं है कि वह बदले में तुम्हारा चूल्हा फूँके। प्रार्थना की दूसरी सीढ़ी यह है कि कर्तव्य पूरा करते हुए भी प्रारब्ध कर्मों के कारण, अपनी त्रुटि के कारण या समष्टि मन के दोषों के कारण जो विपत्तियाँ सामने आवें उनसे कायरों की भाँति न तो डरें और न घबराये वरन् प्रभु से प्रार्थना करें “कि प्रभो, हमें इन्हें सहन करने की शक्ति दीजिये, हमारे अन्दर धैर्य भर दीजिये, ताकि फोड़े को चिरवाते समय विचलित न हों।” विपत्तियाँ सब पर आती हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, शिव, दधीचि, हरिश्चन्द्र जैसी महान आत्माओं को विपत्ति ने नहीं छोड़ा, तो हम उससे अछूते नहीं बचे रह सकते। अप्रिय अवस्था को देख कर न तो चीखना चाहिए और न डरपोकों की तरह किंकर्तव्य विमूढ़ होना चाहिये। यह उचित है कि ऐसे समय में निवारण का उपाय करें और जब तक वह कष्ट है तब तक अविचल धैर्य की प्रभु से याचना करें। तीसरा प्रेम का ऊँचा दर्जा है। सबसे ऊँची प्रेम सगाई। परमात्मा-सत चित् आनन्द स्वरूप है। जैसे-जैसे आत्मा-परमात्मा के निकट पहुँचती जाती है, वैसे-वैसे ही आनन्द का अविचल स्त्रोत प्राप्त होता जाता है। स्वार्थ और इन्द्रिय परायणता को छोड़ कर जैसे-जैसे हम सत्य और परमार्थ की ओर बढ़ते जाते हैं, वैसे ही वैसे आत्मा निर्मल होकर दिव्य स्वरूप में चमकने लगती है और अन्ततः हृदय में आनन्द ही आनन्द शेष रह जाता है। जिस दिन एक पैसा भिखारी को देकर हम स्वार्थ का करोड़वाँ कण छोड़ देते हैं, उसी दिन मन बड़ा हलका रहता है, अन्दर शान्ति सी प्रतीत होती है। स्वार्थ और लिप्सा का जितना ही अधिक त्याग होता चलता है उतने ही अनुपात से लघु आत्मा परमात्मा के रूप में परिणित होती जाती है। तत्व दर्शियों का मत है कि जिसका हृदय तुच्छ विचारों से रहित होकर समदर्शी हो गया है अपने और पराये में जिसे भेद नहीं प्रतीत होता वह ब्राह्मी भूत परमहंस यथार्थ में जीवन मुक्त है। मुक्ति का आनन्द, जिसके लिये प्राणी व्याकुल रहते हैं, वह पवित्र और निस्वार्थ आत्मा को ही प्राप्त हो सकता है। भले ही वह आत्मा शरीर धारण किये हुए हो या अदृश्य जगत में विचरण कर रही हो।

प्रार्थना का एक ही रूप होना चाहिए विशुद्ध ज्ञान की याचना। यह पदार्थ सूक्ष्म लोक से ही प्राप्त होता है। इसलिए नित्य जितने अधिक समय तक संभव हो मन की बहिर्मुखी वृत्तियों को रोक कर अन्तर्मुखी करना चाहिये। साँसारिक विचारों का बिलकुल परित्याग करके आत्म-चिन्तन करना चाहिये।


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