दूसरों की नाराज़गी।

November 1941

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(पी. जगन्नाथराव नायडू नागपुर)

यदि हमसे कोई नाराज़ होता है, तो उसका उत्तर वैसी ही नाराज़गी में न देना चाहिए, वरन् गम्भीरता-पूर्वक विचार करना चाहिए कि इसका वास्तविक कारण क्या है। बहुत करके हमें अपने दोष दिखाई नहीं पड़ते और दूसरों पर दोषारोपण आसानी से कर देते हैं। एकान्त में न्यायबुद्धि से आत्म-चिन्तन करने पर यह मालूम हो सकता है कि इस नाराज़गी में हमारा कितना दोष है। अपनी त्रुटियों को सुधारना हर मनुष्य का धर्म है। हमारी भूल से यदि दूसरों को दुख पहुँचता हो, तो अपना सुधार करना चाहिए और नाराज़ होने वाले से निःसंकोच क्षमा माँग लेनी चाहिए।

किन्तु कई बार इसके विपरीत परिस्थितियाँ भी सामने आती हैं। दूसरे लोग अपनी भूलों का दण्ड हमें देना चाहते हैं। अपनी अनुचित इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमारी आत्मा का हनन करना चाहते हैं। ऐसे अवसरों पर गिड़गिड़ाने या परास्त हो जाने से काम न चलेगा। सत्य मार्ग पर पर्वत की तरह दृढ़ता के साथ खड़े होकर अपने कर्तव्य का पालन करना ही योग्य है। बालकों की इच्छानुसार अध्यापक नहीं चलता और न अपराधियों की इच्छानुकूल शासक अपना धर्म छोड़ देता है। कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य भूले भटके और भ्रमवश दोषारोपण करने वालों की रत्ती भर भी परवाह नहीं करता, वरन् उन्हें सुधारने के लिए कड़ुवे कार्यों को भी करता है, फिर भले ही उसे इसके लिए विरोध, उपहास या कष्टों का सामना करना पड़े।


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