प्रश्न उपस्थित होता है कि आध्यात्मिक साधनाओं के अभ्यासों में हम क्यों प्रवृत्त हों? उनसे हमारा क्या प्रयोजन? हमें क्या लाभ मिलेगा? यह प्रश्न यथार्थ में महत्वपूर्ण है। आइये आज इन पर विचार करें।
जिस प्रकार शारीरिक बल का संपादन करने से शारीरिक स्वास्थ्य उपलब्ध होता है और इसके आधार पर दैनिक जीवन के अन्यान्य कार्य पूरे होते हैं, उसी प्रकार मानसिक बल का उपार्जन करके मन चित्त की स्थिरता और शान्ति का अनुभव कर सकते है। निश्चय ही मानसिक सन्तुलन ठीक रखने पर लौकिक और पारलौकिक सफलताएं मिल सकती है।
मनुष्य विद्युत शक्ति का भण्डार है। उसमें प्राण-तत्व इतनी प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है कि इसके आधार पर असम्भव और आश्चर्यजनक कार्यों को पूरा किया जा सकता है। किन्तु हम उसका ठीक प्रकार उपयोग करना नहीं जानते। यदि उसका समुचित रीति से उपयोग करना जान लिया जाये तो जीवन की दिशा दूसरी हो सकती है। मानवीय विद्युत का समुचित उपयोग करना सीखना वैसा ही उपयोगी है जैसे घर के कीमती घोड़े पर चढ़ना जानना या बैंक में जमा हुए रुपये को निकालने की जानकारी रखना। वे मनुष्य बड़े अभागे हैं जिनके पास बहुमूल्य घोड़ा है पर उस पर चढ़ना नहीं जानते। अथवा जिनकी विपुल सम्पत्ति बैंक में जमा है किन्तु उसे निकालने की विधि नहीं जानते और पैसे पैसे को मोहताज फिरते हैं। आध्यात्मिक साधना का यह प्रथम फल बहुत ही महत्व-पूर्ण है कि अपनी अपरिमेय शक्ति का समुचित उपयोग करना मालूम हो जाये।
दुखों को दूर करने और सुख प्राप्त करने का हम सतत प्रयत्न करते हैं, सारा जीवन इन्हीं दोनों की उलट पुलट में व्यतीत हो जाता है, किन्तु मनोकामना पूरी नहीं होती। यदि कोई ऐसा उद्गम प्राप्त हो जाये जहाँ से सुख और दुख का उदय होता है और वहाँ अपनी इच्छानुसार चाहे जिसे ले लेने की सुविधा हो तो क्या इसे मामूली चीज़ समझना चाहिए। विद्या, धन, स्वास्थ्य, स्त्री, सन्तान, प्राप्त करने पर भी जिस सुख को हम नहीं प्राप्त कर सकते उसकी सच्ची स्थिति प्राप्ति का सच्चा मार्ग केवल आध्यात्मिक साधना द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
अपनी शक्ति को विकसित करना यह कितना महान लाभ है। मानवीय अन्तःस्थल में ऐसे ऐसे अस्त्र शस्त्र छिपे पड़े हैं जैसे भौतिक विज्ञान द्वारा अब तक न तो बन सके हैं और न भविष्य में बनने की सम्भावना है। यह हथियार, भ्रष्ट तान्त्रिक प्रयोक्ताओं की तरह मारण, मोहन, उच्चाटन के लिये ही नहीं वरन् बाल्मीक जैसे डाकुओं को ऋषि के रूप में परिणित करने की भी शक्ति रखते हैं। सुदामा और नरसी जैसे दरिद्रों के सामने क्षण भर में स्वर्ण सम्पदा के पर्वत खड़े कर सकते हैं, कोढ़ियों को स्वर्ण काय बना सकते हैं और डूबते दरिद्रों को पार कर सकते हैं यह दिव्य शक्तियाँ भी आत्म-साधना द्वारा ही संभव हैं।
यह बड़ी पेचीदगी है कि दूसरे क्या हैं? वे किस प्रकार के विचार रखते हैं? क्या चाहते हैं और कितनी योग्यता रखते हैं? यदि इन सब बातों का ज्ञान हो जाये तो मनुष्य की बहुत सी कठिन समस्याएं हल हो सकती हैं और वह ठीक व्यक्तियों से ठीक लाभ उठा सकता है। दूसरों के मनकों पहचानना, अन्यत्र होने वाली घटनाओं को जानना, भविष्य का पूर्वाभास प्राप्त करके सावधान रहना यह भी बातें एक से एक उत्तम हैं और मानवीय अपूर्णता को दूर करती हैं।
हम स्वयं क्या हैं? संसार क्या है? कुच और कंचन का तत्व क्या है? इनका ठीक ज्ञान न होने के कारण भव बाधाओं की कठिन पीड़ायें हम सहते हैं और चिरकाल तक नारकीय यंत्रणाओं में तड़पते रहते हैं। बंधन से मुक्त होकर सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त करना तभी संभव हैं जब हम ज्ञान दृष्टि से, दार्शनिक पद्धति से, ईश्वर, जीव, और प्रकृति का विवेचन कर सकें। रोग का ठीक रूप जाने बिना इलाज करना असंभव है। विश्व का तात्विक रूप जाने बिना भव से तरना नहीं हो सकता। और वह तत्व दर्शन आत्म-साधन के ही परिणामस्वरूप प्राप्त हो सकता है।
मिट्टी के खिलौनों से खेलने वाले, कुच कांचन में व्यस्त, बाल-बुद्धि के अज्ञानी पुरुष, आध्यात्मिक साधनाओं का उपहास कर सकते हैं, अविश्वास कर सकते हैं, परन्तु विश्व की प्रचण्ड अनुभूतियों का तेज हमसे कहता है कि अज्ञानियों ! आत्मा ही सत्य है। आध्यात्म-विद्या ही सत्य है। प्राणियों! असत् की ओर नहीं सत् की ओर चलो।