(श्री गोपी किशनजी बियानी, अक्याव (ब्रह्मा))
स्वतृः शील सम्पन्नः प्रसन्नात्मात्मविद् बुधः।
प्राप्येह लोके सन्मानं सुगति प्रेत्य गच्छति॥
व्यक्ति हो चाहे कुटुम्ब हो, समाज हो चाहे राष्ट्र हो इन सबका कल्याण और सुख प्रायः उनके सदाचार पर अवलम्बित रहता है। सदाचार ही कल्याण और सुख का घर है। व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज अथवा राष्ट्र के सदाचार का जब ह्मस होने लगता है, तब उनके नाश का आरम्भ हो जाता है।
सदाचार के अमृत रूपी वृक्ष का बीज बालपन मैं ही मनुष्य के हृदय में बोया जाता है और दुराचार के विष वृक्ष का बीज भी बालपन में ही बोया जाता है, इसलिये कुटुम्ब के प्रौढ़ मनुष्यों को अवश्य ही इस विषय में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए।
साँसारिक कर्तव्यों और व्यवहारों को सुचारु रूप से सम्पादित करने से मनुष्य की हार्दिक वृत्तियों का विकास होता जाता है।
निर्दोष और स्थिर अन्तःकरण में सद्बुद्धि की उपज होती है, सद्बुद्धि से कर्तव्य-निष्ठा बढ़ती जाती है। जब कर्तव्य-निष्ठा बढ़ने लगती है तब मनुष्य के द्वारा सत्कार्य होने लगते हैं। सत्कार्यों से हृदय पर उत्तम संस्कार पड़ते हैं, जिससे सदाचार की वृद्धि होती है, यदि आप सदाचार की उन्नति चाहते हो, तो सद्बुद्धि रूपी स्वच्छ और निर्मल बहके रहना चाहिए। हृदय खूब शुद्ध और पवित्र रहना चाहिए। हृदय में दोषों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेना अत्यन्त आवश्यक है और इसके लिये प्रत्येक मनुष्य को आत्म-निरीक्षण करके अपने दोषों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेना सदाचार सोपान का महत्वपूर्ण अंश है।
धर्म, ईश्वर और सत्पुरुष के विषय में पूज्य श्रद्धा उत्पन्न होने से हृदय की सद्वृत्तियां प्रबल होती हैं और मनुष्य के सदाचार की उन्नति होती है।
साराँश यह है कि शिक्षा, आर्थिक दशा, शासन पूवर्जनों का तिरस्कार और सज्जनों का पुरस्कार इत्यादि सामाजिक निबंधों का यदि उचित रूप से पालन किया जाये तो लोगों के सदाचार में अवश्य वृद्धि होती है।