शिवजी कहाँ से देते हैं।

November 1941

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(ले.-मास्टर उमादत्त सारस्वत, कविरत्न विसवाँ)(सीतापुर)

एक थे ब्राह्मण-देवता। शिव के अनन्य-भक्त, साथ ही निर्धनता की साक्षात् मूर्ति। घर में भी सिवा उनकी स्त्री के और कोई नहीं था। जाड़ा, गर्मी वर्षा कुछ भी हो पण्डितजी प्रातःकाल चार बजे उठते, नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वयं पुष्पं चुन लाते और फिर शंकर आराधना में निमग्न हो जाते। बेचारी स्त्री दूसरों का कूटना-पीसना करके किसी प्रकार से उदर-पोषण का प्रबन्ध कर पाती थी।

श्रावण का महीना। पण्डितजी एक सशस्त्र एक बेल पत्रों में राम-नाम लिख कर प्रतिदिन अत्यन्त भक्ति पूर्वक शिवजी पर चढ़ाते थे। शिव-संकीर्तन तथा नाना प्रकार से पूजा-पाठ करके तब कहीं सायं-काल में जाकर जल ग्रहण करते थे। इसी प्रकार से उनतीस दिन व्यतीत हो गये।

संयोग वश ठीक तीसवें दिन प्रातःकाल शंकरजी तथा पार्वती जी उधर से निकले। पण्डितजी शिव पूजन में तल्लीन थे। पार्वती जी की दृष्टि उन पर पड़ी तो उन्होंने शंकर जी से कहा-”भगवन् ! यह ब्राह्मण वर्षों से आप का भजन करता है, परन्तु निर्धन ही बना है। देखिये न, श्रावण भर इसने कैसी श्रद्धा एवं भक्ति से आप का पूजन किया है!”

“ठीक कहती हो, देवि ! महीने भर इसने जो इस प्रकार मेरी सेवा की है, उसका पारिश्रमिक इसे आज सायंकाल में दिया जायेगा।” इतना कह कर वे दोनों अन्तर्ध्यान हो गये।

संयोग तो देखिये, जिस समय भगवान् शंकर तथा पार्वती जी में यह वार्तालाप हो रहा था; ठीक उसी समय एक ‘करोड़पति’ वैश्य लोभीमल उधर से कहीं जा रहा था। उसने शंकर जी का अन्तिम वाक्य सुना तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ (मन ही मन सोचने लगा कि ‘अरे यह तो बड़ा अच्छा सौदा हाथ लगा। शंकर जी उस ब्राह्मण को क्या कोई साधारण वस्तु थोड़े ही देंगे, सहस्रों-लाखों का धन उसके हाथ लगेगा। क्यों न इस अवसर से लाभ उठाया जाये तथा यह धन किसी प्रकार से स्वयं ही क्यों न हजम किया जाये!’

यह सोच कर यह उस ब्राह्मण से उसी दिन जाकर मिला। बोला-”महाराज ! आप अत्यन्त निर्धन हैं। अतः आपने श्रावण भर जो बेल-पत्र शंकर जी पर चढ़ाये हैं उसके बदले में आप मुझ से सौ रुपये ले लें उसका जो फल मिलेगा, वह मेरा रहा।”

ब्राह्मण ने स्त्री से यह समाचार कहा तो वह बोली “प्राणनाथ ! आप देखते ही हैं कि कैसी कठिनता से हम लोगों के दिन व्यतीत होते हैं। यद्यपि ‘पुण्य’ बेचना अनुचित है, फिर भी विवशता सब कुछ करा लेती है। सौ रुपये मिल रहे हैं, यही सही। कुछ दिन तो आराम से कट ही जाएंगे।

पण्डित जी राजी हो गये। उन्होंने सौ रुपये वैश्य से ले लिये और वैश्य खुश-खुश अपने घर चला गया।

श्रावण की पूर्णिमा। सन्ध्या का समय। लोभीमल शिवालय में विराजमान हैं। मारे प्रसन्नता के फूले नहीं समा रहे हैं शंकर जी से असंख्य धन उन्हें जो मिलने वाला था !!! बैठे-बैठे रात्रि के दस बज गये। ग्यारह का समय भी व्यतीत हो गया। अब उन्हें कुछ-कुछ सन्देह होने लगा।

“अरे क्या शंकर जी भी झूठ बोलते हैं।” एक घण्टा और व्यतीत हुआ बारह बजे, फिर एक भी बजा, परन्तु कहीं कुछ भी नहीं। अन्त में क्रोध में आकर उसने दोनों हाथ शिव-मूर्ति पर पटक दिये। बोला-”अरे, तू भी अब झूठ बोलने लगा!!” दोनों हाथ उसी मूर्ति में चिपक कर रह गये!! ज्यों-ज्यों छुड़ाता त्यों त्यों और भी मजबूती से चिपकते जाते अन्त में बेचारा हार कर बैठ रहा। हाथ छुड़ाने में उसने बड़ा परिश्रम किया था, इससे उसे तत्काल ही निद्रा आ गई। स्वप्न में देखा कि वही शंकर जी त्रिशूल लिये हुए सामने खड़े हैं। वह भयभीत होकर उनके चरणों पर गिर पड़ा। कहने लगा ‘-महाराज ! अब किसी प्रकार से मेरे हाथ इसमें से छुड़ वाइये।”

“काम तो तूने बड़ा बुरा किया है, परन्तु सबेरे यदि तू पचास हजार रुपया उस मेरे भक्त ब्राह्मण को दे दे, तो तू इस बन्धन से छूट सकता है, अन्यथा इसी प्रकार से तू कुत्ते की मौत मर जायेगा।”

प्रातःकाल वही ब्राह्मण-देवता शंकर जी की पूजा के लिये वहाँ गये तो देखा कि बेचारे लोभीमल बुरी तरह से मूर्ति से चिपके बैठे हैं। पूछा तो लोभी मल ने अपनी सारी कथा उनसे कह सुनाई। बोले-”कृपा करके आप मेरे पुत्र से कहलवा दीजिये कि वह फौरन पचास हजार रुपया लाकर मुझे दे जाये। वह रुपया शंकर जी ने आप को दिलवाया है।

इस प्रकार से पचास हजार रुपया जब उस शंकर-भक्त को मिल गया तब उस वैश्य के हाथ छूटे। ब्राह्मण ने वह धन कंगाल तथा अपाहिजों में बाँट दिया। उस दिन से उसकी भक्ति शिव जी के प्रति और भी बढ़ गई।

“भगवन् ! आपने अपने उस भक्त को कुछ दिया नहीं? पार्वती जी ने एक दिन शंकर जी से पूछा।

“क्यों? दिये तो पचास हजार रुपये।” “वह तो उस वैश्य ने दिये। आपने क्या दिया?”

इसी प्रकार से तो मैं देता ही हूँ। अन्यथा मेरे पास सिवा भाँग धतूरा तथा नन्दी बैल के और है ही क्या?

पार्वती जी मुस्कराई और चुप हो गई।


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