गीता में भाग्य

November 1941

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न जाने क्यों और किस प्रकार यह घातक विश्व से जनसाधारण के मस्तिष्कों में घर कर गया है कि मनुष्य का भविष्य भाग्य के अधीन है। ईश्वर ने जैसा कुछ भाग्य में लिख दिया है, वहीं भोगना पड़ेगा हमारे करने से कुछ नहीं हो सकता।’ यह विचार मूर्ख और आलसी ही रख सकते हैं। अपनी त्रुटियों की जिम्मेदारी ईश्वर पर थोपकर लोग कुछ देर के लिए आत्म वंचना कर लें इसके अतिरिक्त और कोई लाभ किसी को नहीं मिल सकता।

ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि देकर कर्म क्षेत्र में भेजा हैं कि वह इच्छानुसार काम करे और तदनुसार फल भोगे। ईश्वर किसी को बुरे कर्म करने की प्रेरणा नहीं करता। वह तो इन कर्म-अकर्मों से बहुत दूर रहता हैं। गीता में भगवान कहते हैं-

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्म फल संयोग स्व भावस्तु प्रवर्तते॥

गीता अ. 5 श्लोक 14॥

कर्तापन कर्म और कर्म फल की ईश्वर नहीं बनाता इनमें तो जीवन स्वभाव से ही प्रवृत्त होता है।

अनादित्वान्निर्गुण त्वात्परमात्माय मव्ययः।

शरीरस्थोऽपि कोन्तेय न करोति न लिप्यते॥

अ. 13 श्लोक 31॥

हे अर्जुन ! ईश्वर अनादि है, निर्गुण है, और अपरिवर्तनशील है। वह शरीर में है तो भी कुछ नहीं करता और अच्छी या बुरी बात से उसका कोई सम्बन्ध नहीं।

न माँ कर्माणि लिप्यन्ति न में कर्म फले स्पृहा।

इति माँ यो∙िभ जानाति कर्ममिर्नप बद्धयते॥

अ 4 श्लोक 14॥

मुझे (ईश्वर को) कर्मफल की इच्छा नहीं है इससे कर्म मुझको बन्धन में नहीं डालते और जो मुझे मुझको ऐसा समझता है कि ईश्वर है कि ईश्वर न कुछ करता हैं और न कराता है, निरंजन, निष्काम, अकर्ता अभोक्ता, अव्यय, निर्गुण, कूटस्थ, अचिन्त्य और अविकारी है, वह मनुष्य भी कर्म के बन्धन में नहीं पड़ता।

त्रिभिर्गुण मयै र्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत।

मोहितं नाभि जानाति मामेभ्य परमव्ययम्।

अ. 7 श्लोक 25॥

सत्व गुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीन गुण वाले स्वभाव पर सारा जगत मोहित है। इसे वहीं नहीं जानता कि मैं (ईश्वर) इन तीनों गुणों से अलग हूँ, श्रेष्ठ हूँ और विकार रहित हूँ।

मूढो∙यं नाभि जानाति लोकोमामजमव्ययम्।

अ 7 श्लोक 25॥

यह मूढ़ लोग नहीं जानते कि मैं अजन्मा और विकाररहित हूँ।

नादत्ते कस्य चित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।

अज्ञाने नावृतं ज्ञानं तेन मुह्यान्ति जन्तवः।

अ. 5 श्लोक 15॥

सर्वव्यापक ईश्वर किसी के पाप पुण्यों से सम्बन्ध नहीं रखता। अज्ञान से ज्ञान ढ़का होने के कारण ही जीव मोह में पड़ जाते हैं।

गीताकार ने स्पष्ट कर दिया है कि जो जैसा करता है वैसा पाता है इसमें ईश्वर, भाग्य या और किसी का दोष नहीं है।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।

स्वकर्म निरतः सिद्धिं यथ विन्दन्ति तच्छुगु॥

अ 18 श्लोक 45॥

अपने अपने कर्म में लगे हुए मनुष्य अच्छी से अच्छी और बड़ी सिद्धि पाते हैं।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैं ह्यात्मनों बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।

अ. 6 श्लोक 5॥

आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है इसलिए आत्मा का उद्धार करना चाहिए, नाश नहीं।

बन्धुरात्मात्मन स्तस्य येनात्मैवात्मनोजितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

अ. 6 श्लोक 6॥

जिसने आत्मा को अपनी आत्मा से जीता है उसकी आत्मा अपनी आत्मा का मित्र है और जो अनात्मा है अर्थात् आत्मज्ञान से रहित है उसी की आत्मा उसके साथ शत्रु सा व्यवहार करती है।

गीता के अन्त में सारा ज्ञान सुनाने के बाद भी भगवान ने किसी प्रकार का हुक्म नहीं दिया वरन् उसकी स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए यही कहा है-जो तेरी इच्छा हो सो कर।

इति ते ज्ञान माख्यातं गुह्याद गुह्यतरं मया।

विमृश्यै तदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।

अ 18 श्लोक 13॥

मैंने तुझसे गुप्त से गुप्त ज्ञान कहा, इसको शुरू से अन्त तक विचार करके जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर।

पाठकों को यह जानना चाहिये कि ईश्वर किसी के भाग्य में कुछ, किसी के में कुछ लिख कर पक्षपात नहीं करता और न भविष्य को पहले से ही तैयार करके किसी को कर्म करने की स्वतन्त्रता में बाधा डालता है। हर आदमी अपनी इच्छानुसार कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है कर्मों के अनुसार ही हम सब फल प्राप्त करते हैं। इसलिये भाग्य के ऊपर अवलंबित न रह कर मनुष्य को कर्म करना चाहिए।


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