निराशा के बाद आशा

November 1941

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(ले.-पं. प्रेमनारायण शर्मा गिरदावर कानूनगो, अम्बाह)

स्काटलैंड के राजा ब्रुश को अपने शत्रुओं से छह बार हारना पड़ा। उसने हर बार प्रयत्न किये, किन्तु असफलता के सिवाय और कुछ हाथ न आया।

छह बार हार जाने के पश्चात् वह बहुत निराश हो गया था और खिन्न मन से अपने प्राण बचाने के लिये एक टूटे-फूटे स्थान में छिपा पड़ा था। नाना प्रकार के विचार उसके मस्तक में घूम रहे थे, सोचता था, शायद मेरे भाग्य में असफलता ही लिखी होगी।

इन्हीं विचारों में वह पड़ा हुआ था, कि ऊपर छत पर उसकी निगाह गई। देखा कि एक मकड़ी जाला तान ने के लिये बार-बार प्रयत्न करती है, किन्तु बार-बार असफल होती है, उसका तार हर बार टूट जाता है। राजा बड़े मनोयोग के साथ उसकी ओर देख रहा था, छह बार वह मकड़ी असफल हुई, किन्तु सातवीं बार उसका मनोरथ पूरा हो गया उसने जाले को तान ही लिया।

ब्रुश के मन में एक नवीन स्फुरणा हुई, उसने कहा यदि सातवीं बार मकड़ी सफल हो सकती है, तो मैं भी कृतकार्य हो सकता हूँ। अबकी बार उसने दूने उत्साह के साथ सेना का संगठन किया और शत्रु पर चढ़ाई कर दी। इस हमले में उसे सचमुच विजय प्राप्त हुई और अपना खोया हुआ राजसिंहासन प्राप्त कर लिया।

हममें से कितने ही ऐसे हैं जो एक दो बार की असफलता से ही निराश हो जाते हैं और प्रयत्न को छोड़ बैठते हैं। यह सफलता का मार्ग नहीं है। विजय की पुष्पमाला उसके गले में पहनाई जाती है, जो अनेक बार निराशा के अवसर आने पर भी उन्हें कुचलता हुआ अपने ध्येय पथ पर बढ़ता ही चला जाता है।


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