असन्तों के स्वभाव

November 1941

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(तुलसीकृत रामायण से)

सुनहु असन्तन केर सुभाऊ।

भूलेहु सगत करिये न काऊ॥

तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।

जिमि कपिलहि घाले हरहाई॥

खलन हृदय अति ताप विशेखी।

जरहिं सदा पर-सम्पति देखी॥

जहँ कहुँ निन्दा सुनहिं पराई।

हर्षहिं मनहुँ परी निधि पाई॥

काम क्रोध मद लोभ परायन।

निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥

बैर अकारण सब काहू सों।

जो कर हित अनहित ताहू सों॥

झूठै लेना झूठे देना।

झूठे भोजन झूठ चबेना॥

बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा।

खाँय महा अहि हृदय कठोरा॥

दोहा-पर द्रोही पर-दाह रत, परधन पर अपवाद।

ते नर पामर पाप मय, देह धरे मनु जाद॥

लोभै ओढन लोभैं आसन।

शिश्नोदर पर यमपुर त्रासन॥

काहू की जो सुनहिं बड़ाई।

स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥

जब काहू के देखहिं विपती।

सुखी होहिं मानहु जग नृपती॥

स्वारथ रत परिवार विरोधी।

लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥

मातु पिता गुरु विप्र न मानहिं।

आपु गये अरु आनहि घालहिं॥

करहिं मोह वष द्रोह परावा।

सन्त संग हरि कथा न भावा॥

अवगुण सिन्धु मन्द मति कामी।

वेद विदूषक पर धन स्वामी॥


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