अपने पथिक से

November 1941

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लेखक-श्री राम रीझनजी रसूलपुरो।

कितनी दूर, कहाँ से आयें; ओ अज्ञात देश के वासी।

निशदिन अपनी राह जा रहे, कितनी दूर तुम्हारी काशी?

संवल साथी हीन विजन में एकाकी निर्जन कानन में,

क्यों असीम की ओर लक्ष है? अविश्रान्त जीवन-प्राँगण में॥

क्षणभर रुको पथिक, निज पथ पर, श्रान्ति मिटालो, सुस्थिर होलो।

अगम कूल है जिस असीम का, कैसे पार करोगे बोलो?

अरे ठहर जा ! देख लगे है वहाँ विपुल बाजार।

क्रय-विक्रय है मोल-तोल है, निज-निज का व्यापार॥

ले लो कुछ तो पथिक यहाँ से अपनी गाँठ टटोल।

हो रक और हिरण्य यहाँ बिकते गुन्जों से तोल।

खिले फूल जो आज हँस रहें, ले यौवन का भार।

उन के उर में छिपी वेदना की प्रतिमा साकार॥

सुना रही है उत्पीड़न की व्यथा करुण संदेश।

क्षण भर सुन लेना, रुक कर फिर जाना अपने देश॥


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