पतन का भागी बनता (Kahani)

November 1990

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एक यात्री लम्बे सफर में जाते समय एक बियावान में किसी सुन्दर वृक्ष की घनी छाया में जा पहुँचा। संयोगवश वह कल्पवृक्ष का पेड़ था। उसमें इच्छा करते ही तत्काल कामना पूर्ण करने की शक्ति थी।

यात्री बहुत प्यासा था। उसने इच्छा की कि किसी प्रकार पानी मिलता। देखते देखते शीतल जल से भरी सुराही सामने आई। पीकर तृप्ति लाभ की।

अब इच्छाओं का सिलसिला बढ़ा। भोजन चाहा तो वह भी आ गया। पलंग माँगा तो वह भी प्रस्तुत हुआ। इच्छा की कोई सुन्दर युवती पैर दबाकर थकान उतार देती। देखते-देखते एक अप्सरा आई और उसकी सेवा करने लगी।

यात्री को आश्चर्य हुआ। उसे लगा कि यह किसी देव-दानव का वृक्ष मालूम पड़ता है। ऐसा न हो कि इसका अधिकारी मेरे ऊपर टूट पड़े और सफाया कर दे।

यही हुआ। पेड़ पर से एक दैत्य उतरा और यात्री की गर्दन मरोड़कर रख दी।

मन ही वह कल्पवृक्ष है जो हमारी भली-बुरी इच्छाओं को पूरा करने का ताना-बाना बुनता है और उसी के कारण व्यक्ति उत्थान एवं पतन का भागी बनता है।


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