स्वर्ग में देवताओं की सुरक्षा में अमृत कलश है। इस कथन की व्यावहारिक संगति इस तरह बिठाई जाती है कि मस्तिष्क स्वर्ग है। उसमें ब्रह्मरंध्र को अमृत कलश समझा जाता है। उससे नीचे की ओर जो रस टपकता है वह सोमरस है। मनुष्य लोक का अमृत यही है।
साधारणतया मुख क्षेत्र में रासायनिक स्राव चलते रहते हैं। उनसे मुख गीला बना रहता है और अपने जिम्मे के कार्यों को ठीक तरह संचालित करने में समर्थ रहता है। यह स्राव न निकले तो मुँह सूख जाय। बोलते-खाते न बने। गला चटखने लगे। भोजन करते समय इन रसों के प्रवाह में तीव्रता आती है। ग्रास में उसका समुचित सम्मिश्रण हो जाने पर वह सुपाच्य भी बन जाता है और गले में नीचे सरलतापूर्वक खिसक भी जाता है। मोटी जानकारी के हिसाब में शरीर विज्ञानी इतना ही इस रस का उपयोग बता पाते हैं और उसकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं।
किन्तु अध्यात्म विधा के आधार पर वह स्राव मात्र उच्चारण और पाचन की जिम्मेदारी निबाह सकने की स्थिति में मुख गह्वर को बनाये नहीं रहते, वरन् एक विशेष प्रकार के हारमोन स्तर के अनुदानों की आवश्यकता भी पूरी करते हैं। वे समूचे पाचन तंत्र को प्रभावित करते हैं और मस्तिष्क की जड़ों को उलट कर सींचते भी रहते हैं। मुँह सूखने लगे तो तीव्र ज्वर अथवा भय आतंक का बोध होता है। इन स्रावों के अभाव में मनुष्य जीवित भी नहीं रह सकता।
इनकी मात्रा बढ़ जाने से जीवनी शक्ति बढ़ती है और मस्तिष्क को उत्तेजना मिलती है। पान, सुपाड़ी, इलायची आदि मुँह में डाले रहने का प्रभाव यही समझा जाता है कि मस्तिष्कीय स्राव अधिक मात्रा में निकलने लगे और उनके कारण उत्साह एवं क्रियाशीलता का दौर बना रहे। इस निमित्त कई व्यक्ति तम्बाकू भी खाते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि इस प्रकार के कृत्रिम दोहन में अक्षय के सूखने जैसी कितनी ही हानियाँ भी होती हैं।
इन स्रावों की मात्रा एवं गुणवत्ता बढ़ाने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि उस ओर ध्यान दिया जाय। रसों के स्राव एवं उसकी गुणवत्ता पर विश्वास किया जाय। इतने भर से एक अन्तःस्रावी टानिक का लाभ मिलने लगेगा। उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा। अध्यात्म संदर्भ में यह टानिक सोमरस है। उससे मानवी सत्ता के अन्तराल तक प्रभाव पहुँचता है जिससे जीवनी शक्ति बढ़ने के बहुमुखी प्रभाव परिलक्षित होते देखे जाते हैं।
दैवी भागवत् और शिव संहिता में बताया गया है कि कुण्डलिनी जागरण में बाधा पड़ने के विशेष व्यवधान खेचरी मुद्रा का अभ्यास न होना है। यदि उसे आरम्भ में ही सम्पन्न कर लिया जाय तो आगे चलकर कठिनाई न पड़े।
योग रसायन में यह कहा गया है कि मुख गह्वर में लघु कुण्डलिनी है जिसे खेचरी मुद्रा द्वारा जाग्रत किया जाता है। इसके लाभ भी न्यूनाधिक मात्रा में वैसे ही हैं जैसे विशाल कुण्डलिनी के जागरण में मिलते हैं।
योग सूत्र में लिखा है - तालु के ऊर्ध्व भाग महत् ज्योति का निवास है। उसके दिव्य दर्शन से सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
घेरण्ड संहिता में उल्लेख है कि - खेचरी विद्या से शरीर सौंदर्यवान बनता है। समाधि का आनन्द मिलता है। दिव्य रसों की अनुभूति होती है। यह साधना परम श्रेयस्कर है।
शिव संहिता का कथन है कि - खेचरी मुद्रा का साधक आत्मनिष्ठ हो जाता है। पाप मुक्त हो वह परमगति को पाता है। मनोलय और ब्रह्मलीन होने के समाधि स्तर के लाभ मिलते हैं।
दैवी भागवत् का कथन है कि - “अमृतधारा, सोमवाहिनी- खेचरी तालु देश में कुण्डलिनी बन कर निवास करती है। इस रहस्य को जानने वाले सरलतापूर्वक बड़ी उपलब्धि प्राप्त करते हैं।
जिह्वा मूल में जो ऋणात्मक शक्ति है उसे नारी स्तर की कहा गया है और तालु का काक चंचु नर स्तर का प्राण है। इनका मिलन विषयानन्द और ब्रह्मानंद का सम्मिश्रण है। कुण्डलिनी जागरण में भी यह प्रक्रिया कार्यान्वित होती है।
कुण्डलिनी में कामेन्द्रिय को नियन्त्रित करके ऊर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया है। खेचरी मुद्रा में रसना इन्द्रिय को परिमार्जित किया जाता है। रस के दो ही केन्द्र हैं एक स्वादेन्द्रिय दूसरा कामेन्द्रिय। कामेन्द्रिय को काबू में लाने से पूर्व जिह्वा की रसना शक्ति पर नियन्त्रण करना होता है। दोनों के आकार भी लगभग एक जैसे ही हैं और स्वाद में भी तनिक सा ही अन्तर है। इन दोनों में ही विलासिता की अति रहती है। दोनों की शारीरिक मानसिक क्षमताओं का असाधारण क्षरण करती हैं। इसलिए रस तन्मात्रा की उच्छृंखलता को नियन्त्रित करके इन्द्रिय निग्रह का उद्देश्य पूरा करना पड़ता है। जिह्वा के तालू भाग से स्रवित होने वाले सोमरस से सम्बन्ध जोड़ कर उसे स्वाद से सम्बन्धित मर्यादाओं का पालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। साथी ही उच्चारण में मधुरता, शिष्टता, नम्रता का समावेश रखने के लिए कहा जाता है। द्रौपदी के मुख से कौरवों के लिए व्यंग्य उपहास अपमान भरे शब्द निकल आये थे। उसका परिणाम महाभारत हुआ और द्रौपदी को अपने पाँच पुत्रों से हाथ धोना पड़ा। जिह्वा इन्द्रिय दसों इन्द्रियों में मूर्धन्य है, उसमें समाविष्ट शिष्टता और अशिष्टता के भले बुरे परिणाम मनुष्य को जीवन भर भोगने पड़ते हैं। इसलिए उसे सोमरस का रसास्वादन कराते हुए सज्जनोचित नम्रता के साथ उच्चारण करने की कला सिखायी जाती है।
तालु क्षेत्र को धन विद्युत का भण्डार कहा गया है। सर्वविदित है कि ऋण और धन प्रवाहों के संयुक्त हो जाने पर विद्युत धारा चल पड़ती है। वह जहाँ भी पहुँचती है वहाँ स्थिति के अनुरूप हलचल उत्पन्न करती है। मस्तिष्क क्षेत्र में जाकर उसके कार्य चिन्तन में उत्कृष्टता का और बुद्धि में तीक्ष्णता का समावेश संवर्धन होता है।
इतना ही नहीं प्रतिभा के अनेक केन्द्रों का स्थान जिस क्षेत्र में है, उसको इस तालु घर्षण में उत्तेजना मिलती है और साधक अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान अधिक सूक्ष्मदर्शी बनने लगता है।
आत्मा का परमात्मा से मिलन जिस ब्रह्मरंध्र सहस्रार के साथ होता है, उसका समीपस्थ स्थान यह तालु भाग ही है। वहाँ सब कुछ प्रसुप्त निष्क्रिय पड़ा रहता है, पर खेचरी मुद्रा की रगड़ से पेण्डुलम जैसी गति उत्पन्न होती है और आत्मा को परमात्मा से - परमात्मा को आत्मा से लिपटने के लिए उत्तेजित करती है। यह उत्तेजना ब्रह्म मिलन ईश्वर सान्निध्य में अतीव सहायक सिद्ध होती है।
रगड़ से आगे बढ़ने और पीछे हटने की दो क्रियायें होती हैं। तत्व दर्शन में इसकी विवेचना इस प्रकार की गयी है कि साधक अवांछनीय दुष्प्रवृत्तियों से पीछे हटता और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने
इसके दो परिणाम और भी हैं - एक उत्साह दूसरा उल्लास। शरीर उत्साह के अभाव में आलसी अनपढ़ बनता है और मन में उल्लास न हो तो वह मन्दमति, प्रमादी, अदूरदर्शी बनता है। इन दोनों दुर्भाग्यों को दूर करने में खेचरी मुद्रा दैवी वरदान जैसी सिद्ध होती है।