भावनाओं को परिष्कृत रखें

November 1990

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मनुष्य भावनाओं का पुतला है। उनकी अभिव्यक्ति के लिए स्रष्टा ने पंचतत्वों से विनिर्मित कायकलेवर की व्यवस्था की है। भावनाएँ विचारणाएँ जिस स्तर की होंगी व्यक्तित्व भी तदनुरूप बनता ढलता चला जायेगा। उनकी उत्कृष्टता-निकृष्टता ही व्यवहार में चरितार्थ होकर प्रगति अवगति का मार्ग खोलती और व्यक्ति, को उन्नत-अवनत स्थिति में ला प्रतिष्ठित करती हैं।

महान दार्शनिक अरस्तू का कहना है कि भावनाओं का काया पर उसी प्रकार आधिपत्य रहता है जैसा मालिक का नौकर पर, स्वामी का गुलाम पर। भाव-चिंतन की स्वच्छता जहाँ शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखती है, वहीं उसकी विकृति अनेकानेक बीमारियों का कारण बनती है। इस तथ्य की पुष्टि मनोविज्ञानियों एवं मनःचिकित्सकों ने अब गहन अध्ययन एवं अनुसंधान के आधार पर की है।

सोवियत संघ की एकेडेमी ऑफ सांइसेज के वरिष्ठ सदस्य एवं स्नायु विज्ञानी प्रो. पावेल सिमोनोव के अनुसार भावनाएँ दो प्रकार की होती हैं- एक विधेयात्मक और दूसरी निषेधात्मक। इनमें से प्रथम श्रेणी में आशा, उत्साह, विश्वास, प्रेम, साहस, प्रफुल्लता आदि को गिना जा सकता है, जिनका मन-मस्तिष्क पर अच्छा व अनुकूल प्रभाव पड़ता है, जबकि काम, क्रोध, चिन्ता, भय, शोक, द्वेष जैसी निषेधात्मक भाव तरंगों से कायातंत्र के विभिन्न भाग अतिरिक्त रूप से उत्तेजित हो उठते हैं और दुख संक्षोभ से लेकर तनाव, उद्वेग तक उत्पन्न करते हैं। यह पूर्णतया व्यक्ति की मान्यताओं, इच्छा आकांक्षाओं पर निर्भर करता है क इनमें से कौन सी उसके लिए लाभदायक हैं और कौन सी हानिकारक। भावनात्मक असंतुलन स्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व दोनों को लकड़ी में लगे घुन के कीड़े की तरह चट कर जाता है। विधेयात्मक भावनाएँ यदि संकीर्ण - स्वार्थपरता जैसी प्रवृत्तियों को भड़काने लगें तो वह व्यक्ति एवं समाज के लिए कष्टकर हो सकती हैं, जबकि छोटे बच्चों के निर्मल अन्तःकरण से प्रस्फुटित भाव हर व्यक्ति को आकर्षित करते और सेवा, सहायता एवं सहानुभूति प्रदान करने की प्रेरणा उभारते हैं।

मनीषियों का कहना है कि मनुष्य मूलतः पवित्र एवं परिष्कृत भावनाओं का पुँज है, किन्तु अनुपयुक्त परिस्थितियों के कारण आज उसमें अनेक विकृतियाँ भर गई हैं। उत्तेजनापूर्ण विषाक्त वातावरण तो उसने स्वयं विनिर्मित किया है जिसे अप्राकृतिक एवं अस्वाभाविक ही कहा जा सकता है। इसका दुष्परिणाम मनोकायिक आधि- व्याधियों के रूप में उसे भुगतना भी पड़ रहा है। उनके अनुसार जिसकी भावनाएँ जितनी संकुचित होती हैं, वह शारीरिक -मानसिक एवं आत्मिक दृष्टि से उतना ही कमजोर होता चला जाता है। विभिन्न तरह की आधि-व्याधियों से ऐसे ही लोग अधिक पीड़ित होते और समय से पूर्व दम तोड़ते देखे जाते हैं। जिसने अपनी भावनाओं की परिधि को जितना अधिक विस्तृत बना लिया, समझना चाहिए कि वह उतना ही स्वस्थ, समुन्नत और परिष्कृत बनता चला जायेगा। जन सम्मान और दैवी अनुदान घटाटोप बनकर उस पर बरसते रहेंगे। इसके विपरीत विकृत भाव सम्पन्न व्यक्ति से दूसरों का, समाज का हित साधन हो सकना तो दूर अपना भी वह कल्याण नहीं कर पाता। स्वार्थी व्यक्ति क्षणिक प्रसन्नता भले पा लें, पर उसकी जीवात्मा अपनाई गई शूद्रता के लिए उसे सदैव कचोटती रहती है। परिचितों की घृणा बरसती और सम्बद्ध जनों की रुष्टता सहनी पड़ती है, सो अलग।

इसी तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए प्रख्यात मनःचिकित्सक एच. एफ. डनबार ने कहा कि जिनका अन्तराल और मनःसंस्थान उदात्त है, प्रसन्नता-प्रफुल्लता ही जिनकी प्रकृति है, ऐसे व्यक्तियों का शरीर स्वस्थ रहता है। चेहरे पर दमकती आभा और आँखों की चमक उनकी जीवनी शक्ति का प्रमाण स्वयं उपस्थित कर देती हैं। व्यक्तित्व का चुम्बकत्व सहज ही दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। भाव संस्थान में छाई विषाक्तता जीवन ऊर्जा का अनावश्यक क्षरण करती रहती है। ऐसे में प्रगति की आकांक्षा बुझ जाती है। इच्छा शक्ति को उमंग को लकवा मार जाता है। बाह्य उपचार, औषधियाँ इसके लिए अस्थायी लाभ भले दिला दें, पर दीर्घकालिक एवं स्थायी सत्परिणाम अंतःकरण के परिष्कार से ही मिल सकता है। अतः भावनाओं का विवेकयुक्त सुनियोजन ही शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य एवं आत्मिक प्रगति का मूलाधार है।


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