अतिवाद न बरता जाय

November 1990

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महत्त्वाकाँक्षाएँ बड़ी रखने में कोई हर्ज नहीं। ऊँचा उठना, आगे बढ़ना और सफलताएँ प्राप्त करना मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। वह सही रीति से उपलब्ध होती चलें, तो मनोबल बढ़ता है और प्रगति की दिशा में बहुत कुछ करते बन पड़ता है। ऊँचा लक्ष्य सामने हो तो शारीरिक श्रम और मानसिक उत्साह के उभरने की गुँजाइश भी रहती है।

महत्त्वाकाँक्षा उभरने या उभारने से पहले यह जरूरी है कि उनके औचित्य पर विचार कर लिया जाय। अनुचित होने पर उत्साह भी हानिकारक सिद्ध होता है। अपने गुणों को बढ़ाना उचित है, पर साधनों के लिए इतना लालायित नहीं होना चाहिए, जिनके लिए औचित्य की मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़े।

हर मनुष्य अपने श्रम, उत्साह और विवेक के आधार पर ही ऐसी सफलताएँ प्राप्त कर सकता है, और प्रशंसनीय होने के साथ -साथ दूसरे के औचित्य का अपहरण न करती हों, किसी के मार्ग में बाधक न बनती हों। जो सफलता दूसरों के लिए कष्टकारक हों, उसके अधिकारों का अपहरण करती हों, वह किसी प्रकार पायी तो जा सकती है, पर अन्ततः उसका परिणाम हानिकारक ही होता है। साधन उसी सीमा तक प्राप्त करने चाहिए जिस सीमा तक कि वह प्रामाणिकता को न गँवा दें। जिस सफलता के पीछे कुमार्ग पर चलने के लिए विवश होना पड़े, उसे काठ की हाँडी ही समझना चाहिए, जो दूसरी बार नहीं चढ़ती। अपने कृत्यों से सर्वसाधारण का विश्वास गँवा बैठना इतनी बड़ी हानि है, जिसकी क्षतिपूर्ति फिर अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकती।

इस तथ्य को समझते हुए महत्त्वाकाँक्षा जगाने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि इस प्रसंग में उन मर्यादाओं का उल्लंघन तो नहीं होता जिनके कारण व्यक्ति विश्वासपात्र बनता है और दूसरे का सहयोग सहज ही अर्जित कर लेता है।

सफलताएँ अपने स्थान पर मूल्यवान हैं। उनके कारण अधिक करने और अधिक आगे बढ़ने की उमंग उठती है, जिसके आधार पर मनुष्य की योग्यता में अभिवृद्धि होती है, पर जब वही योग्यताएँ अप्रामाणिकता को छूने लगती हैं तो जो कमाया है उससे अधिक गँवा दिया जाता है। कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें खोकर भी दुबारा प्रयत्नपूर्वक पाया जा सकता है। उदाहरण के लिए धन ऐसी वस्तु है, जो खर्च हो जाने पर नये सिरे से नया परिश्रम करके फिर से कमाया जा सकता है। स्वास्थ्य के संबंध में भी बहुत हद तक यही बात है। अनियमितता अपनाने और आहार-विहार में अनौचित्य बढ़ा लेने से स्वास्थ्य गिरता है। उसमें सुधार होना तब तक नहीं बन पड़ता है जब तक कि भूल न सुधारी जाय और संयम बरतने के लिए मनोबल न जुटाया जाय, अन्यथा प्रकृति जहाँ कठोर है, वहाँ वह दण्ड देना भी जानती है। उसे क्षमा करना आता है, पर उसे पात्रता का ही ध्यान रहता है। जो अपने को सुधारने में कठोर बनता है, प्रकृति उसके लिए दयालु बनती है, पर जो भूल पर भूल करता जाता है, गलतियों को खोजने और उन्हें सुधारने में उपेक्षा बरतता है, उसे किये दण्ड भी भुगतना पड़ता है। प्रकृति के अनेक अनुग्रहों में एक प्रताड़ना भी है। जो लोग अपनी सूझबूझ का उपयोग नहीं करते, परिणामों पर विचार नहीं करते और उद्दण्डतापूर्वक कुछ भी कर गुजरने के लिए उतावले रहते हैं, वे उस विधान से बच नहीं पाते जो ढीठता बरतने वालों के कान उमेठ कर रास्ते पर लाना भी जानती है।

शान्ति और धैर्यपूर्वक चलने के लिए जो अपनी रीति-नीति बना लेते हैं और उन्नति की उत्कंठा बनाये हुए भी औचित्य का ध्यान रखे रहते हैं, वे ही सही समय पर सही मंजिल पूरी कर पाते हैं।

सहन शक्ति की इस दुनिया में कमी नहीं। लोग दूसरों की गलतियों को भी सहन कर लेते हैं और बहुधा क्षमा भी कर देते हैं, किन्तु देखा यह भी गया है कि बात जब आगे तक पहुँचती है तो फिर सृष्टि का वह नियम भी लागू होता है जिसमें ढीठता के अहंकार को नीचे उतारने की व्यवस्था है और बदमाशों की हेकड़ी को रास्ते पर चलने के लिए विवश किया जाता है। अन्य मर्यादाओं का भी ध्यान रखना चाहिए, महत्त्वाकाँक्षाओं की दिशा में कदम बढ़ाते समय भी।


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