स्वस्थ व्यक्तित्व बनाम ब्राह्मणत्व

November 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परिवर्तनकारी शक्तियाँ इन दिनों उन व्यक्तियों को तलाशने-तराशने बटोरने में जुटी हैं, जिनसे भावी मानवता का श्रृंगार किया जा सके। उज्ज्वल भवितव्यता जिनके नेतृत्व में फूल-फल सके। यही कारण है कि व्यक्तित्व विकास इस समय जिन्दगी की सबसे गहरी जरूरत बन गई है। इसकी अवहेलना-अवमानना करने वाले तो आज भी हर कहीं-पिछड़े-उपेक्षित समझे जाते हैं। जिन्दगी के हर किसी क्षेत्र में उन्हें प्रवेश निषेध की तख्ती का सामना करना पड़ता है। भविष्य में काल का अनन्त प्रवाह इन्हें कहाँ से लाकर पटकेगा, कौन जानता है? यों इस बारे में हर कोई अपने-अपने ढंग से कोशिश करता है। किन्तु यह प्रक्रिया कहाँ अपनी पूर्णता प्राप्त करती है, इसका सांगोपांग विधान क्या है? इसे जानने वाले विरल हैं। प्राच्य मनोविज्ञान ने इसकी पूर्णता को ब्राह्मणत्व नाम दिया है। ब्राह्मण होने की साधना, व्यक्तित्व के परिष्कार परिमार्जन एवं विकास की पूर्णता को पाने के साधना है।

ब्राह्मण शब्द सम्भव है, अनेकों का भ्रम में डाल दे। सम्भव है बहुत से इसका नाम सुनकर गर्वित हो उठें। अनेकों के चेहरों पर हो सकता है-सुनते ही नमस्कार के भाव उभर आए। बहुतों की उपेक्षा इसे सहनी पड़े। किन्तु इन नानाविधि भावों का उद्दीपन गल अवधारणा का परिणाम है। यदि अवधारणा सही होती तो वैदिक वांग्मय के पारिभाषिक शब्दों का सम्यक् ज्ञान होने पर इन विवादों पर कोई फेन न पड़ता। प्राच्यविद् आई. ए. रोजेट ने भी अपनी रचना “वैदिक इण्डिया” में इस तथ्य का स्वीकरण किया है। उनके अनुसार यह शब्द जाति, कुल, गोत्र रूप, रंग का द्योतक न होकर एक मनोवैज्ञानिक अवस्था का द्योतक है। इसका ठीक-ठीक समानार्थी जब यहीं के प्राचीन अर्वाचीन चिन्तन में नहीं है, तब पश्चिम के रीते कोश में कुछ आशा करना व्यर्थ है।

वैसे भी पश्चिमी मनोविज्ञान ने ज्यादातर रोगियों की छान-बीन की है। बीमार मानसिकता इन विचारकों के कार्य की सीमा रेखा बन गई। स्वास्थ्य पर आधारित है और एक स्वस्थ व्यक्ति नितान्त अलग होता है- फ्रायड का कभी सामना नहीं पड़ा स्वस्थ व्यक्तित्व से। पड़ता भी क्यों? सही सलामत आदमी को क्या पड़ी है वैद्य डॉक्टरों के पास जाने की। इसी कारण उसने समूचे व्यक्तित्व को मुख, गुदा, लिंग प्रधान, काम प्रसुप्ति एवं जननाँरीय अवस्थाओं में समेट कर दिया। यही हाल उस जैसे अनेकों का है। इनका विवेचन करने से लगता है जैसे आदमी के जीवन में कामुकता के सिवाय और कुछ बचा ही नहीं। लेकिन इस सिद्धान्त रचना में उसकी गलती भी क्या? यदि मानसिक रूप से बीमार न हो तो उसे मनःचिकित्सक के पास जाने की क्यों सूझेगी? यही कारण है फ्रायड, एडलर, जैनेव, इन सभी ने अपने सिद्धान्तों की इमारत बीमार मन की जमीन पर खड़ी की।

समग्रता के परिप्रेक्ष्य में देखने पर समूचा व्यक्तित्व परक अध्ययन तीन वर्गों में बंटा दीखता है। एक रोगात्मक सारा पश्चिमी अध्ययन इसी खाँचे में समा जाता है। केवल अभी अभी इधर कुछ सम्पूर्ण धारणाएँ मजबूती पकड़ती जा रही हैं, जो कि स्वस्थ व्यक्ति के बारे में सोचती हैं। लेकिन वे एकदम आरम्भ पर ही हैं। पहले कदम भी नहीं उठाए गए। दूसरे प्रकार के अध्ययन वे जो स्वस्थ व्यक्ति के विषय में सोचते है। स्वस्थ मन पर आधारित है। ये हैं पूरब के मनोविज्ञान-बौद्ध पतंजलि, झेन सूफी इन्होंने इस पर गहरी ढूँढ़ खोज की है। इनकी मदद व्यक्तित्व विकास की पूर्णता पाने के लिए है।

फिर एक तीसरा प्रकार है जिसे गुरजिएफ “परम मनोविज्ञान” कहता है। इसकी दशा अविकसित है। इसमें विकास की पूर्णता पाए हुए व्यक्तित्व का अध्ययन करने की चेष्टा हैं। श्री अरविन्द की पुस्तक “सीक्रेट ऑफ द वेद” में वैदिक ऋषियों के इन प्रयासों पर संकेत है। उनका खुद का भी थोड़ा बहुत प्रयास है। ब्राह्मणत्व की साधना के चरम शिखर पर पहुँचने वाला कैसा होगा? यही पर उसकी एक झलक देखने को मिलती है।

स्वस्थ व्यक्तित्व की अगर बखूबी जाँच करें उसकी विकास यात्रा के आरम्भिक बिन्दु की ओर देखें तो वह अवस्था है जड़ता की। एक उनको घेरे रहता है। इस आवरण के कारण इनको न तो सोचने का मन करता है ओर न कुछ करने का। चिन्तन और कर्म दोनों से विरति एक मात्र लक्षण है इनका। कठोर श्रम। श्रम का कुठार ही इस तमस की ड़ड़ड़ड़ को तोड़ने में सक्षम है। इस ओर प्रयत्न करने का मतलब है ब्राह्मणत्व की ओर उन्मुख होना।

श्रम होगा तो अर्जन होगा। फिर शुरुआत भले शरीर करे-देर सबेर साथ तो मन की भी देना पड़ेगा। कर्म और चिन्तन इन दोनों पैरों में एक के बिना ब्राह्मणत्व की राह पर कैसे चला जा सकेगा। इस अर्जन की अवस्था में होता है रजस का जागरण। कामनाओं, इच्छाओं का उदय, भावनाओं का अनियंत्रित बहाव, अतृप्ति की जलन का अहसास इसी अवस्था की देन है। अर्जन का सदुपयोग अपने लिए नहीं औरों के लिए हो। पनपती विचारणा धीरे-धीरे व्यक्तित्व को उस धरातल पर ला खड़ा करती है जहाँ वह अनेकों को संरक्षण देने लगता है।

पर जहाँ पर संरक्षण के साथ मार्गदर्शन का सवाल है उसके लिए ऐसी अवस्था चाहिए जिसमें तम और रज पूरी तरह सन्तुलित हो। सही सन्तुलन सधने पर व्यक्ति को जानता है। तभी उसने आत्मनिरीक्षण को मनोवैज्ञानिक की अनिवार्य योग्यता बतलाया है। अपने का भली प्रकार जाने वाला, स्वयं के प्रकृति से, समाज से अपने सम्बन्ध को पहचानने वाला ही सही मार्गदर्शक हो सकता है। वैदिक भारत में ऐसे ही लोगों द्वारा मार्गदर्शन दिए जाने का प्रमाण मिलता है। इनके लिए एक शब्द आया है-श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ। अर्थात् शास्त्र और अनुभव लोक और वेद दोनों में पारंगत। जो अपनी समझदारी से समाज के लिए नयी राहें बना सके।

इन मार्गदर्शकों का जिस काल में बाहुल्य था उस समय को धरती का सतयुग माना गया। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध, बारहवें अध्याय के दसवें श्लोक में साफ उल्लेख है कि सतयुग में सिर्फ एक वर्ण था ब्राह्मण (हंस)। तभी सतयुग का एक ओर नाम प्रचलित हुआ ब्राह्मण युग। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्तित्व विकास की अन्य अवस्थाएँ नहीं थीं। बल्कि सभी लोग अपनी अपनी अवस्था से इस ओर निष्ठापूर्वक बढ़े सो ब्राह्मण। जिस तरह ब्रह्मचर्य का साधक ब्रह्मचारी कहलाती है, उसी तरह ब्राह्मणत्व का साधक भी ब्राह्मण की संज्ञा से विभूषित होता है। अपनी इसी निष्ठा के बदौलत क्षत्रिय विश्वामित्र, धीवर कन्या के पुत्र व्यास, वैश्या के पुत्र वशिष्ठ, दासीपुत्र सत्यकाम जाबालि ब्राह्मणत्व की चरमावस्था को पा सके। आज के जमाने में भी कायस्थ घराने में जन्म लेने वाले श्री अरविन्द, विवेकानन्द, वैश्य कुल में जन्म पाने वाले गाँधी जैसे अनेकों हैं, जिन्होंने अपनी व्यक्तित्व विकास की साधना द्वारा ब्राह्मणत्व उपलब्ध किया। विदेशों में यह नाम भले न प्रचलित हो पर इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ ब्राह्मण नहीं हुए। सुकरात, थोरो, इमर्सन, आइन्स्टीन सौ टंच ब्राह्मण थे।

व्यक्तित्व विकास की यह साधना पूरी हुई इसे कैसे पहचानें? इस पहेली को गीता ने अपने अठारहवें अध्याय के बयालीस श्लोक में सुलझाया है। इसके अनुसार अन्तःकरण का निग्रह, आवरण और व्यवहार की परिष्कृत स्थिति, सरल आस्तिक बुद्धि, अपरिग्रह आदि ऐसे लक्षण हैं जिनसे इन्हें पहचाना जा सकता है। अपरिग्रह तो जैसे इस साधना की कसौटी बन गई। पुराणों ने तो यहाँ तक कह दिया जिनके घर में तीन दिन से अधिक का अनाज हो वह ब्राह्मण नहीं। आज यह तथ्य भले अनोखा लगे पर तत्कालीन समय के समाज ओर ब्राह्मणों के पारस्परिक विश्वास को दर्शाने वाला तो है ही।

प्राचीन समय में ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया भी। स्मृतियों की विविधता इसका प्रमाण है। जिसे देखकर हर्ष के समय आए चीनी यात्री युआन च्वाँग ने इसे ब्राह्मणों का देश घोषित या। व्यक्तित्व विकसित करने के लिए स्वयं दो वर्गों में बाँट लिया-विचारक और प्रचारक। दूसरे शब्दों में कहें तो ब्राह्मण और साधु। असलियत में दोनों एक से हैं। विचारक इनकी वह स्थिति है जो नव विधान का निर्माण करती ओर सामयिक समस्याओं का समाधान खोजती है। प्रचारक वर्ग समाज को पुराने अनुपयोगी विधान को छोड़ने और नव विधान पर चलाने के लिए कटिबद्ध होता है। कमोबेश दोनों पर बराबर का दायित्व है।

इसी दायित्व के निर्वाह पर समाज की स्थिरता समृद्धि और सतयुग की सृष्टि टिकी है। इसी कारण इन्हें सावधान करते हुए भागवतकार ग्यारहवें स्कंध बारहवें अध्याय के बयालीस श्लोक में कहते हैं-ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्र कामाय नेष्यते” ब्राह्मण का जीवन क्षुद्र कामनाओं के लिए नहीं है। इस चेतावनी का परिणाम समाज ने जर्जरता, अलगाव अव्यवस्था के रूप में सहस्राधिक वर्षों तक भोगा और भोग रहा है। इसे देखकर ही स्वामी रामतीर्थ विकल हो उठे-” हाय! ब्राह्मणों का देश शूद्रों का देश बन गया।” तमोग्रस्तता शूद्रता’ नहीं तो और क्या है?

इसे दूर करने के समूचे समाज को एक बार फिर ब्राह्मण समाज के रूप में नवगठित करने के लिए महाकाल अपनी युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के रूप में संकल्पित हुआ है। ब्राह्मणत्व की साधना फिर से एक बार पूरे वेग से चल पड़ी है। इसमें शामिल होने के लिए आवाहन के स्वर मुखरित हुए हैं। जो शामिल हुआ, जिससे इस साधना के प्रति निष्ठा पनपी, वह ने केवल अपने व्यक्तित्व विकास की पूर्णता को पाएगा, बल्कि नवसृजन में जुटी दिव्य शक्तियाँ उसी के नवयुग का श्रृंगार करेंगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118