विनाश उलटेगा, सृजन पनपेगा

November 1990

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सृष्टा का सर्वोपरि उपहार मनुष्य जीवन है। उसमें ऐसी विभूतियों के अगणित भाण्डागार भरे पड़े हैं जिन्हें सर्व साधारण द्वारा ऋद्धि-सिद्धि के नाम से जाना जाता है। जीवन शक्तिशाली है। उसकी विभूतियों की कोई नाप-तौल नहीं। प्रश्न भाव सदुपयोग दुरुपयोग का है। जिनने जिस परिणाम में उनका सद्प्रयोग कर लिया उनके लिए समृद्धियों की, सम्पदाओं की कोई कमी नहीं, साथ ही यह तथ्य भी इसी संदर्भ में जुड़ा हुआ है कि दुरुपयोग करने पर यही जीवन दो ऐसे दुष्परिणाम भी उत्पन्न कर सकता है, जिन्हें असुरता, पैशाचिकता आदि नामों से जाना जाता है, जिनके कारण समूचा वातावरण विषाक्तता एवं नारकीय यंत्रणाओं से भर जाता है।

मनुष्य गलतियाँ करने में पूरा उत्साही है। आवेश में उसे कुमार्ग पर चलने और कुकर्म करने में भी देर नहीं लगती। इतने पर भी उस समझदारी का सर्वत्र अन्त नहीं हो जाता जो दुष्परिणामों को देखकर पैर पीछे हटाने और गलती सुधारने में भी तत्परता बरतती है। पिछली दो शताब्दियों में उसके हाथों ज्ञान विज्ञान की असाधारण उपलब्धियाँ हस्तगत हुई हैं। असाधारण सफलताएँ अनेक बार उन्माद जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं। ऐसा ही कुछ पिछले दिनों भी हुआ। रस्सी के धोखे में कई बार बच्चे सर्प जैसे कालपाश को भी पकड़ लेते हैं। आकर्षक चमक को देखकर जलती आग में भी हाथ डाल देते हैं। जिन विकल्पों का सदुपयोग करके सुख-शान्ति के असीम भाण्डागार हस्तगत किये जा सकते हैं, उन्हीं का दुरुपयोग कर लेने पर ऐसे परिणाम भी सामने आते हैं जिनके लिए पश्चाताप करने, भर्त्सना का भाजन बनने और त्रास सहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता है। इन दिनों ऐसा ही हुआ है। बढ़ी हुई बुद्धिमत्ता और उसके सहारे संग्रह हुई सम्पदा का दुर्भाग्यवश दुरुपयोग ही होते बन पड़ा है और उसकी अवांछनीय प्रतिक्रियाओं के रूप में सामने आई हैं, जिसे कि हम चारों और बिखरी हुई देखते हैं। त्रास सहते और त्रास देते हुए देखते हैं।

जीवन के बदले कुछ भी खरीदा जा सकता है। उसका थोड़ा अंश भी जिस प्रयोजन के लिए लग जाता है उसी अनुपात में उसके परिणाम भी सामने आते हैं। भवितव्यता अब महाकाल के माध्यम से समझदारों को यह सिखाने आ रही है कि जीवन का समय का जितना अधिक बन पड़े उसका सदुपयोग ही करना चाहिए। इसी में अपने लिए और दूसरों के लिए लाभ है।

महाकाल ने इस परिवर्तित संभावना से हर बुद्धिमान को समझाया है कि जब शरीर-निर्वाह के लिए आसानी से कुछ घण्टे के श्रम से काम चल सकता है तो शेष बची विभूतियों को सत्प्रयोजनों में क्यों न लगाया जाय? समझदारों ने इस सत्परामर्श को स्वीकार भी कर लिया है। इसलिए नवयुग के आगमन के प्रथम चरण में जन साधारण की यह मान्यता बनने लगी है कि बचे हुए बहुमूल्य समय का एक बड़ा भाग सत्प्रयोजनों में क्यों न लगाया जाय? यह मान्यता क्रिया रूप में चल भी पड़ी है। परिवर्तन का तारतम्य बिठाने वाले महाकाल ने ऐसा प्रचलन आरंभ किया है जिससे मानवी शक्ति को विश्वकर्मा के क्रिया कौशल की तरह सृजन प्रयोजनों के लिए उपयोग क्यों न होने लगे? इस प्रश्न का उत्तर भी रचनात्मक ही मिल भी रहा हैं। युग सृजेताओं की एक ऐसी बड़ी मण्डली कार्यक्षेत्र में उतर रही है जैसी कि पिछले लम्बे समय से पुरुषार्थ कभी देखी नहीं गई।

महाकाल की इस योजना में प्राथमिकता यही दी गई है कि सृजन शिल्पियों की एक बड़ी टोली जिसमें न्यूनतम एक करोड़ सदस्य हों। कार्यक्षेत्र में उतरे और फैली हुई अवांछनीयता को झाड़ बुहार कर दूर करने के साथ-साथ वह सब भी उतने ही उत्साह के साथ करें जिसके आधार पर उज्ज्वल भविष्य का सर्वतोमुखी सृजन होने जा रहा है।

पिछले 80 वर्षों के प्रयत्न से पच्चीस लाख के करीब ऐसे व्यक्तियों का सृजन हुआ है जिन्हें बिना किसी असमंजस के देवमानव की संज्ञा दी जा सके। यह फल अब पक चुके है। और इस स्थिति में पहुँच चुके हैं कि अपने परिपक्व बीजों द्वारा नई पौध का सृजन कर सकें और यह अभिनव उत्पादन एक करोड़ से कम न रहे। इतना बड़ा उत्पादन ऐसे अभिनव उद्यान के रूप में दृष्टि गोचर होगा जिसे धरती पर नन्दनवन की, चंदनवन की कल्पवृक्ष परिकर की उपमा दी जा सके।

युगसन्धि के अगले दस वर्षों में एक करोड़ सृजन शिल्पी कार्यक्षेत्र में उतरने जा रहे हैं। भले ही वे समय की माँग को पूरा करने में समूचा समय न लगा रहे हों पर शरीर माँग के लिए 20 घण्टे लगाते रहने के उपरान्त चार घण्टे तो नव सृजन के लिए लगाते ही रह सकेंगे। औसत दो घण्टे की भी लगाई जाय तो 2 करोड़ घण्टे इतने में भी बन जाते हैं और करीब 5 लाख पूरे समय काम करने बालों जितने बनते हैं। इतने शिल्पी जिस निर्माण में अनवरतता रूप से संलग्न हो उसका स्तर और परिणाम इतना हो सकता है जिसके सहारे सत्प्रवृत्तियों के समुदाय को समूचे संसार में विस्तृत होते देखा जा सकें।

इन दिनों समूचे संसार में प्रायः 600 करोड़ मनुष्य हैं। इनमें से बाल, वृद्ध, रोगी, अपंग, अविकसितों की आधी संख्या छोड़ दी जाय तो समर्थ व्यक्ति 300 करोड़ ही रह जाते हैं। उनको सँभालने-सँवारने के लिए यदि पचास लाख व्यक्तियों का पूरा समय नियोजित हो सकें तो उसे कम नहीं आँका जाना चाहिए। अस्पतालों में रोगियों की तुलना में डॉक्टर कम ही होते हैं। हर विषय के जितने विद्यार्थी पढ़ते हैं उनकी तुलना में अध्यापक कम ही होते हैं। दो बैलों के कृषि श्रम से कितने ही परिवारों का उदर पोषण होता रहता है। प्रतिभा सम्पन्नों की नई पीढ़ी जो इन दिनों सक्रिय दिखाई दे रही है उसे न्यून नहीं माना जाना चाहिए। प्रतिभायें विकास के क्षेत्र में जब संलग्न होती हैं उसमें आशाजनक सफलता प्रस्तुत कर दिखायी हैं।

रेल, वायुयान, जलयान, कारखाने आदि विशालकाय संयंत्रों को चलाने वाले कुछ ही ड्राइवरों से काम चल जाता है। पिछले दिनों दुनिया में बिगाड़ उपस्थित करने वाली जनसंख्या थोड़ी ही रही है। उनकी सीमित बुद्धि, सीमित कौशल और सीमित साधनों के सहारे ही इतना अनर्थ खड़ा हो गया है जिसके कारण सर्वत्र शोक संताप ही बिखर पड़े हैं फिर कोई कारण नहीं कि सुजन प्रयोजन में जुटने वाले समर्थ साधकों की शक्ति का सुनियोजन उत्साहवर्धक सत्परिणाम उत्पन्न न कर सके। एक गड़रिया भेड़ों के झुण्ड को किसी भी दिशा में हाँक ले जाता है। जिनमें नेतृत्व की क्षमता है वे अनौचित्य पर उतारू होने पर भयंकर अहित खड़े कर सकते हैं तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि प्रतिभावानों की नई पीढ़ी अपने नये उत्साह और नये पराक्रम के सहारे नव सृजन का प्रयोजन बढ़-चढ़ कर पूरा न कर सकें।

मनुष्य समुदाय के, प्राणी जगत के बहुद्देशीय प्रयोजन इतने अधिक हैं जिनकी साधारणतया गणना नहीं हो सकती और जिन्हें संभव बनने में बुद्धि चकराती है। फिर भी उस महाशक्ति के लिए असंभव क्या हो सकता है जिसने इतना विशालकाय ब्रह्माण्ड विनिर्मित कर दिखाया और उसके नियंत्रण में उस सब का सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन का क्रम निरन्तर चलता रहता है। सूर्य, चाँद बनाने वाला क्या नहीं बना सकता है। समुद्र की गहराई और पर्वतों की ऊँचाई जिनकी गरिमा की नाप-तौल करने में सर्वथा असमर्थ है।

समझा जाना चाहिए कि युग परिवर्तन जैसी विशालकाय योजना किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। इसके पीछे महाकाल की वैसी समर्थ योजना काम करती है जिसे विश्वकर्मा की सृजन कुशलता से कही अधिक बढ़-चढ़ कर माना जा सकता है। उस अरुणोदय की प्रथम झाँक प्रस्तुत संकल्प के रूप में अपनी प्रथम झलक झाँकी का दर्शन करा रही है। जिसका प्रभाव पूर्व के अरुणोदय से मिलता जुलता समझा जा सकता है।

मनुष्य की प्रमुख समस्याओं में से प्रत्येक का कलेवर असाधारण विस्तृत है। विश्व राजनीति पर दृष्टिपात किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह मकड़ी का जाल कितना विस्तृत है। जिसमें अपने को लगभग सारे अन्तरिक्षीय ताने-बाने के अंतर्गत जकड़ सा लिया है। फिर सामाजिक समस्याओं की बारी आती है। छोटे-छोटे समुदायों में भाषा, सम्प्रदाय, संस्कृति, प्रथा-प्रचलन आदि के नाम पर इतना बड़ा विभाजन है जिसे एक मनुष्य जाति को असंख्यों प्रकार में बँटा कहा जा सकता है। मानसिक विचारणाएँ इतनी अधिक और इतनी चित्र-विचित्र हैं कि हर मनुष्य अपने आप में एक स्वतंत्र संसार समझा जा सकता है। बाहर से देखने में मानवी शरीर संरचना प्रायः एक जैसी मिलती जुलती मालूम पड़ती है। पर उसके भीतर विद्यमान अणु-परमाणु जीवाणु-विषाणु इतने अधिक आकार-प्रकार के हैं कि उन्हें एक दूसरे से भिन्न प्रकार की संरचना कह सकते हैं। मान्यताएँ, भावनाएँ, आकांक्षा, अभिरुचियाँ, क्रिया-प्रतिक्रिया भी ऐसी विचित्र हैं कि एक दीखने वाला मनुष्य अपने आप में एक स्वतंत्र विश्व ब्रह्माण्ड समेटे हुए है।

पदार्थ जगत और भी अधिक विचित्र है। वनस्पतियों, रसायनों, धरातलों, समुद्रों, अन्तरिक्ष की विभिन्नताओं को यदि गिना-समझा जाय तो मनुष्य को हतप्रभ होकर रहना पड़ता हैं। इस समूचे विस्तार का प्रत्येक कण अपनी असंख्य विशेषताओं से भरा-पूरा है। उनमें से प्रत्येक के साथ जुड़ी हुई अगणित भिन्नताओं और समस्याओं का कोई ठिकाना नहीं। इसमें से औचित्य और अनौचित्य का, उपयोगिता, अनुपयोगिता का इतना बड़ा ताना-बाना बुना हुआ हैं कि उस सबकी कल्पना तक कर सकना असंभव हो जाता है। इस सब को लगभग पूरी तरह उल्टे से सीधा करना कल्पनातीत कार्य हैं। इसके लिए एक करोड़ मनुष्य और एक लाख संगठनों की जो योजना बनी है उसे नगण्य स्तर का ही कहा जा सकता हैं। फिर भी एक झलक झाँकी तो मिलती ही है कि नियन्ता नई सृष्टि की कितनी नई विशेषताओं और विभूतियों को सँजोये हुए कितने बड़े परिवर्तनों का सरंजाम जुटा रहा है। वस्तुस्थिति को देखते हुए एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता है कि मनुष्यों के एक छोटे वर्ग ने महापरिवर्तन के क्षेत्र में अपने हिस्से का जो प्रयास कंधे पर लिया है वह नगण्य है। लगभग वैसा ही जैसा कि किसी हाथी जैसे विशालकाय प्राणी का परिचय दूनी आकृति का मिट्टी का खिलौना दिखाकर बच्चे को सामान्य ज्ञान से अवगत कराया जा रहा हो। क्योंकि व्यक्ति विशेष या संगठन विशेष का, प्रयत्न विशेष का, नगण्य सा आभास पाकर हम मात्र इतना ही अनुमान लगा सकते हैं कि द्रष्टा को समय की समस्याओं को सुलझाने के लिए ऐसी चित्र-विचित्र सूझे सूझ रही हैं।

देश, काल, पात्र के अनुरूप कार्यों के विभाजन किये जाते और दायित्व सौंपे जाते हैं। ऐसा ही कुछ इन दिनों भी हो रहा है। सर्वप्रथम प्रतिभायें उभारी जा रही हैं। उनके अन्तराल में समय के अनुरूप उमंगों के ज्वार भाटे उठाये जा रहे हैं। कुछ महत्वपूर्ण कर सकने जैसी क्षमताओं के अनुदान दिये जा रहे हैं और कुछ उनके द्वारा विलक्षण किया जा रहा है उसके नक्शे बनाये और मॉडल ढाले जा रहे हैं। इन्हीं दिनों इसी स्तर का ऐसा ही कुछ हो रहा है। हम सब इसी कौतुक कौतूहल को आश्चर्य भरी नजर से देख रहे हैं। अपनी नन्हीं सी समझ के अनुरूप कुछ को संभव, कुछ को असंभव, कुछ को विश्वस्त और कुछ को अविश्वस्त मान रहे हैं। यह अपनी-अपनी मर्जी है किन्तु जो नियति का निर्धारण है वह एक प्रकार से सुनिश्चित है कि अन्धकार का समापन हो चला उषाकाल का अरुणोदय अपने अस्तित्व का परिचय दे रहा है। परिवर्तन को सुनिश्चित दिखा रहा है।

ध्वंस की अपनी शक्ति है। उसकी विनाशलीला से सभी परिचित हैं। चिनगारी किस प्रकार दावानल बनती हैं और विशाल वन क्षेत्र को किस प्रकार भस्मसात् कर देती हैं इसे सभी जानते हैं। किन्तु साथ ही जानना यह भी चाहिए कि क्षमता सृजन की भी कम नहीं है। वर्षा में उगने वाली हरीतिमा का विस्तार सर्वत्र सहज देखा जा सकता है। बादलों की घटाएँ जब बरसती हैं तो जल-थल एक करके रख देती हैं। यह दृश्य भी अविज्ञात नहीं है। वासन्ती बहार से कौन परिचित नहीं है। उद्भिजों की सृष्टि में किस प्रकार अनगिनत विस्तार होते हैं यह तथ्य भी अविज्ञात नहीं है।

ध्वंस के उपरान्त बना हुआ सृजन ही हम अपनी आँखों के सामने विद्यमान देखते हैं उसकी बहुलता भी कम नहीं है। अब तक हम ध्वंस के विनाशकारी परिणामों का ही परिचय प्राप्त करते रहे हैं। अब समय आ गया है कि सृजन की पारी को देखें। मरघट की वीभत्सता सर्वविदित है। अब नर्सरी में उगते हुए कौतूहल भी देखना चाहिए। प्रसूति गृह में नित्य कितने बच्चे जन्मते हैं इस पर भी दृष्टि डाली विदित होगा कि मृत्यु की तुलना में जीवन समर्थ है। ध्वंस की तुलना में सृजन की समर्थता अनेक गुनी बढ़ी-चढ़ी हैं। यदि ऐसा न होता तो सृष्टि में जो विस्तार, गौरव और सौंदर्य का माहौल बना हुआ है उसका पता भी न चलता।

सृजन की अपनी परम्परा है। वह जब कभी प्रकट होती है, सब कुछ हरा-भरा बनाकर रख देती है। बढ़ोत्तरी की क्षमता किसी प्रकार कमजोर नहीं रहने पाती। समर्थता ही प्रबल है। उसी ने ध्वंस को अनेक बार बरदाश्त किया है और उसी की समय-समय पर विजय दुदुंभी बजती रही है। अगले दिन ऐसा ही शुभ संदेश लेकर आ रहे हैं। इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य की घाटे की पूर्ति की घोषणा कर रही है। असुरता की विजय पताका जिन दिनों दसों दिशाओं में फहरा रही थी, उन दिनों देवताओं में पलायन के अतिरिक्त और कुछ बन नहीं पड़ रहा था। लगता था कि सृष्टि का क्रम ही उलट जाएगा। पर वैसा हुआ नहीं। महाकाली अपने विशाल रूप में प्रकट हुई थी और जो हो रहा था, होने जा रहा था उस सब को अपने प्रबल पराक्रम से उलट कर रख दिया। इस बार भी विनाश के उलट जाने का ही उपक्रम बन रहा है। बन चुका है।


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