संघशक्ति का महत्व समझें

November 1990

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मनुष्य समेत समस्त प्राणियों को प्रगति का अवसर साथी-सहायकों की संख्या बढ़ने पर ही संभव हो पाता है। संगठित रहने पर सुरक्षा का भी लाभ मिलता है और पारस्परिक सहकार के आधार पर मनोबल ऊँचा रहने से लेकर सुविधा सम्पन्न जीवन यापन का अपेक्षाकृत अधिक अवसर मिलता है। संघर्ष या उपेक्षा की नीति अपनाने पर तो सर्वनाश या पिछड़ापन ही हाथ लगता है। छोटी बुद्धि वाले प्राणी किस प्रकार पारस्परिक सहयोग का लाभ उठाते हैं, इन्हें सभी जानते हैं। मिलजुल कर रहने और सहयोग के आदान -प्रदान की आदत मानवी प्रगति का प्रमुख आधार है। तालमेल बिठा लेने और एक दूसरे की सहायता करने वाले कभी घाटे में नहीं रहते।

पीटर्सवर्ग के प्रख्यात प्राणिवेत्ता प्रोफेसर केसलर का कहना है कि डार्विन व हर्बर्ट स्पेन्सर जैसा विकासवादियों की यह मान्यता सही नहीं है कि प्रत्येक प्राणी का अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए अपने ही वर्ग के सदस्यों से संघर्षरत रहना पड़ता है। सृष्टि में इस तरह के कुछ अपवाद मिल सकते हैं, किन्तु व्यापक रूप से सहयोग सहकार का ही नियम दिखाई देता है। जीवन संग्राम की सफलता और प्रगतिशील विकास के लिए यह नियम कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। साथ साथ रहने वाले प्राणियों का अध्ययन करने पर इस तथ्य को अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि एक ही प्रजाति के जीवों में पारस्परिक समर्थन, सहयोग और सुसंगठित आत्मरक्षा के भाव कितने प्रगाढ़ रूप से विद्यमान रहते हैं। साथ-साथ मिलजुल कर रहना और एक दूसरे की सहायता करना प्रकृति का एक ऐसा उच्चस्तरीय अटल नियम है, जिसके समक्ष विकासवादियों के संघर्षपरक नियम को अपवादों की निम्न श्रेणी में ही रखना उचित होगा। हर्बर्ट स्पेन्सर के ‘योग्यतम कौन है? के उत्तर में निश्चयात्मक रूप से यही कहा जाएगा कि आपस में संघर्ष करने वालों की अपेक्षा वे अधिक श्रेष्ठ हैं जो परस्पर सहायता करते हैं। जिनका स्वभाव आपस सहकारिता अपनाने और साथियों के विकास में सहयोग देने का होता है वही समुदाय जीवित रहता और विजय भी ऐसों को ही मिल पाती है जिनका स्वभाव दूसरों की मदद करने, पिछड़ों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का बन गया है। उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचने और कम से कम शक्ति खर्च करके अधिक से अधिक जीवन का सुख प्राप्त करने में सहयोगी प्रवृत्ति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

चींटियों का सहयोग विख्यात है। वे मिलजुल कर अपना परिवार बसाती हैं। लोहे की जंजीर की तरह आपस में एक दूसरे से जुड़ कर गोलाकार छल्ले बनाकर बड़ी-बड़ी नदियों तक को पार कर लेती हैं। इसी तरह दीमक भी इसीलिए अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं कि उनका सारा काम सम्मिलित रूप से चलता है। मधुमक्खियाँ इसी नीति को अपनाकर छत्ता बनाती हैं। बर्फीले तूफानों से बचने तथा नदियों को पार करने के लिए हिरनों के झुंड के झुंड एकत्र होते और एक दूसरे का साहस उभारते हुए आसानी से उस संकट को पार कर जाते हैं। जंगली घोड़ों, भैंसों, नील गायों, हाथियों आदि का झुंड बनाकर रहना उनके लिए लाभदायक ही रहता है। हिंस्र पशुओं से अपनी सामूहिक रक्षा करने में इसी प्रवृत्ति के कारण ये सफल होते और अपनी-अपनी जाति का अस्तित्व बनाये रखते हैं। यह सहकारिता की भावना ही है जो समस्त जीवधारियों के उत्पत्ति रक्षण और भावी विकास का मूल आधार खड़ा करती है।

जर्मनी के प्रख्यात तत्त्ववेत्ता गेटे का कहना है कि मोटी दृष्टि में वंश-वृद्धि करने से लेकर जातीय सुरक्षा तक की भावना ही प्राणियों को एक दूसरे की सहायता करने को बाध्य करती दिखाई देती है, परन्तु गम्भीरतापूर्वक निरीक्षण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके पीछे पारस्परिक सहयोग की नैसर्गिक प्रवृत्ति ही क्रियाशील रहती है। उनकी रचनाओं में इस तरह के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं जो हिलमिल कर रहने पर मिल-बाँट कर खाने की सद्प्रेरणाएं उभारते हैं। एक घटना का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं कि सन् 1827 में उनके मित्र जीव विज्ञानी एकरमैन की पालतू चिड़िया के दो बच्चे एक दिन उड़कर कहीं चले गये। बहुत खोजबीन करने पर दूसरे दिन उन्हें एक अन्य जाति के परिन्दे के घोंसले में पाया गया। देखा गया कि वह पक्षी अपने बच्चों के साथ-साथ उन दोनों को भी खिला रहा था। इस घटना से उन्हें अपने इस विचार को समर्थन मिला कि “ईश्वर सर्वव्यापी है” उनने कहा “यदि प्रकृति के इस सार्वभौम नियम का हम सभी पालन करने लगें और दूसरे अपरिचित प्राणी को भी खिलापिला कर बड़ा करने लगें, उनके विकास में सहयोग करने लगें तो संसार की बहुत सारी जटिल सदस्याएँ हल हो जाय

जब तुच्छ समझे जाने वाले पशु-पक्षी एवं कीड़े-मकोड़े तक सहयोग तथा संगठन शक्ति का महत्व समझते और परस्पर मिलजुल कर रह लेते हैं। तो कोई कारण नहीं कि विकसित एवं बुद्धिमान कहा जाने वाला मनुष्य साथ-साथ न रह सके और एक दूसरे के सुख-दुख में भागीदार न बने। वस्तुतः स्वार्थपरता की वह संकीर्ण रेखा ही है जो हमें जाति, वंश, वर्ग, सम्प्रदाय या ऊँच-नीच में विभाजित करती और हमें एक दूसरे से अलग करती है। यही कारण है कि मानव समुदाय अभी तक प्रगति से वंचित बना रहा है। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध प्राणिशास्त्री साइवर्टसोफ उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि शिकरा नामक बाज़ पक्षी की एक प्रजाति शिकार करते समय तो आदर्श संगठन प्रस्तुत करती है किन्तु कुछ ही क्षणों में छीन-झपट मचाती और एक दूसरे को लहूलुहान करने लगती है। संसार में इनकी संख्या भी अब घटती जा रही है। किन्तु उन्हीं की कुछ किस्में ऐसी भी हैं जो आपस में एक दूसरे की मदद करतीं और फलती फूलती जा रही हैं। इसी तरह बतख पक्षी का उदाहरण देते हुए उनने उसे सामाजिक पक्षी कहा है। बतखों के संगठन और पारस्परिक सहयोग को देखते ही बनता है। अपने इसी गुण के कारण ये संसार भर में सर्वत्र बहुतायत में पाई जाती हैं।

मनुष्य की वास्तविक प्रगति का आधार उसकी सहकारी प्रवृत्ति है। इसी शक्ति का उपयोग कर छोटे से छोटे जीवधारी तक अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। बुद्धिहीन समझे जाने वाले इन जीवों में मिलजुल कर काम करने की अद्भुत क्षमता होती है। प्राणि विशेषज्ञ ग्लेडिश ने इस तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए अनेकों प्रयोग किये। एक प्रयोग में उनने दो लकड़ियों के मध्य एक मृत पक्षी तथा डंडे के सहारे एक मेढ़क को लटका दिया। देखा गया कि थोड़ी ही देर में छोटे-छोटे प्राणियों ने मिलजुल कर बड़ी कुशलतापूर्वक उन दोनों को गायब कर दिया। उनने निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिन जीवधारियों में अच्छा संगठन नहीं होता, उनमें भी अपनी जाति के प्रति सहानुभूति होती है। केकड़ा जैसे असंगठित प्राणी भी समुद्री किनारों पर एक साथ संतति-वृद्धि के लिए जाते हैं। उनका यह प्रवास एकता, सहयोग और पारस्परिक सहायता के बिना संभव नहीं हो सकता। आवश्यकता पड़ने पर केकड़ा अपने साथी की कितनी अधिक सहायता करते हैं, इस सम्बन्ध में एक घटना का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि एक तालाब के किनारे एक एक केकड़ा उलटा पड़ा था। प्रयत्न करने पर भी सीधे खड़े होना नहीं बन पड़ रहा था। एक लकड़ी उसने मार्ग को अवरुद्ध किये हुए थी। देखते देखते उसके कई साथी सहायता को आ पहुँचे। कुछ ने अवरोध बनी लकड़ी को हटाया तो कुछ ने उसे सहारा देकर सीधे खड़े होने में मदद की। सम्मिलित प्रयास से कठिन से कठिन कार्य भी सरल बन जाते हैं।

वैज्ञानिक मनीषी ब्रेहम का कहना है कि मानव का विकास अनेक सहयोगात्मक जीवन पर निर्भर है। इसके अभाव में व्यक्ति न तो अपने को संरक्षित अनुभव करता है और न जीव का सच्चा सुख ही उठा पाता है। सारस एवं तोते जैसे पक्षियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि किस प्रकार ये मानवेत्तर प्राणी अपने सजातियों एवं अन्य परिन्दों के साथ मिलजुल कर रहते हैं कि उनकी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता को देखते ही बनता है। वे जिसके भी संपर्क में आते हैं उसी को अपना बना लेते हैं। पकड़े जाने पर मनुष्य से भी उनकी अच्छी दोस्ती हो जाती है जिसे वह सदैव प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते हैं। सारस तो अपनी दूरदर्शिता के आगे किसी को भी अपने शत्रु नहीं बनने देता और दीर्घ जीवन का आनन्द उठाता है। यह सब उसकी सहकारी प्रवृत्ति की देन है। मनुष्य इनसे बहुत कुछ सीख सकता है।

हिलमिल कर रहने और एक दूसरे के सुख-दुख में साथी रहकर ही मानवी कुटुंब फलते-फूलते हैं। इसी रीति-नीति को अपनाकर सभी सुख पाते और निश्चिन्त रहते हैं। सामाजिक विकास में इस प्रवृत्ति की महत्ता सर्वोपरि है। अगले ही दिनों सहयोग सहकार की यह भावना पारिवारिक सीमाओं को लाँघकर वसुधैव कुटुम्बकम् स्तर तक विकसित-विस्तृत होगी। सभी को एक दूसरे की उन्नति में सहज भागीदारी निभाते हुए देखा जा सकेगा। उज्ज्वल भविष्य की संरचना भी तभी साकार होगी।


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