गायत्री मंत्र को प्राथमिकता क्यों?

November 1990

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गायत्री और सावित्री में प्राथमिकता किसकी? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए उत्तर देना पड़ेगा। अन्न, जल और वायु जीवन का आधार माना जाता है। प्राथमिकता वायु की है। उसके बिना कुछ मिनट में ही दम घुट जाता है इसलिए साँस को एक मिनट में कई बार लेना पड़ता है। इसके बाद जल का नम्बर आता है। एक-एक दो-दो घण्टे बाद पानी पीना पड़ता है और दिन भर में एक सुराही पानी पी लिया जाता है। अन्न का नम्बर उसके बाद का है। उसे दो बार करने में ही तृप्ति हो जाती है।

वर्णमाला की पुस्तकें सबसे अधिक बिकती हैं। छात्र भी प्रथम कक्षा के ही अधिक होते हैं। एम. ए. में विद्यार्थी भी कम रह जाते हैं और उस पाठ्यक्रम की पुस्तकें भी कम बिकती हैं। स्नातकोत्तर कॉलेज भी कम-कम और दूर-दूर होते हैं। चूँकि अक्षर ज्ञान की सबसे प्रथम आवश्यकता होती है। इसके बाद ही गाड़ी आगे बढ़ती है। गायत्री को इसी प्रकार की प्राथमिकता दी गयी है और उसे हर किसी के लिए आवश्यक बताया गया है। उससे जी चुराने वाले की भर्त्सना भी की गयी है।

गायत्री सुमति की, सन्मति की प्रतीक है। उसकी आवश्यकता सर्वप्रथम है। छोटे से लेकर बड़े कामों तक में उसकी जरूरत पड़ती है। अभाव रहने पर हाथों में आयी चीज चली जाती है। कमाना तो दूर, जो पल्ले बंधा उसे भी नासमझ गँवा बैठते हैं। सम्पदा पूर्वजों की छोड़ी हुई भी हाथ लगे, तो भी वह नासमझी के कारण हजार रास्ते बनाकर निकल जाती है। कमाने में भी अधिक रखवाली की जरूरत पड़ती है। इन दोनों ही प्रयोजनों में समझदारी की आवश्यकता है। न उसके बिना कमाया जा सकता है न खाया।

रामायण का कथन है कि ‘जहाँ सुमति तहं सम्पत्ति नाना। जहाँ कुमति तहं विपत्ति नाना॥ और भी एक स्थान पर आया है-जाको पक्ष दारुण दुख तेहीं, ताकी मति पहले हरि लेंहि॥ संस्कृत में एक श्लोक आता है कि “देवता किसी की रक्षा के लिए उसके पीछे-पीछे लाठी लिए नहीं फिरते, वरन् ऐसी समझ देते हैं जिसके सहारे वह सुरक्षा और सफलता का लाभ ले सके। निश्चय ही सम्पत्ति की तुलना में समझदारी की आवश्यकता कहीं अधिक है। तभी तो बच्चों को अन्न, वस्त्र, की व्यवस्था के उपरान्त उन्हें पढ़ाने का ही प्रबंध किया जाता है।

ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि उत्पादन प्रसंग में उन्हें सर्वप्रथम आकाशवाणी द्वारा तप करके मेधा और प्रज्ञा प्राप्त करने में लगते देखा जा सकता है। उसके उपरान्त योजना बनती और साधन सामग्री की सावित्री की आवश्यकता पड़ती देखी जाती है। इस प्रकार प्राथमिकता गायत्री की ही रही।

गायत्री अर्थात् समझदारी। सावित्री अर्थात् क्षमता। समझदारी होने पर ही मनुष्य सम्पदा उपार्जित करने और उसका सदुपयोग कर सकने में सक्षम होता हैं। ना समझ के हाथों सम्पदा सौंप दी जाय तो वह रास्ते में ही गाँठ कटा बैठेगा। और रोकथाम करने पर जान गंवा बैठेगा। इसके विपरीत जेब में कुछ भी न हो, पर विद्या का भण्डार भरा हो तो वह कहीं भी पेट भर लेगा। जहाँ जायेगा वहीं सम्मानित होगा। सरकार ने भी प्राथमिक कक्षाओं की फीस माफ कर रखी। है, जबकि कॉलेज की पढ़ाई में विद्यार्थी को बहुत खर्च करना पड़ता है। प्राइमरी स्कूलों की संख्या भी सबसे अधिक है। गायत्री को मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता समझा गया है। इसलिए दिन में तीन बार उसकी संध्यावंदन करने के लिए कहा गया है। न्यूनतम एक बार थोड़ी बहुत उपासना करना तो अनिवार्य ही माना गया है चाहे वह बिना किसी विधि विधान के किसी भी स्थिति में मानसिक रूप से ही कर ली जाय।

निरक्षरों को उपहासास्पद माना जाता है और तिरस्कृत भी किया जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने वालों के लिए गायत्री उपासना साक्षरता की तरह आवश्यक मानी गयी है। न करने वालों की कड़ी भर्त्सना की गयी है। उन्हें धर्मानुष्ठान करने तक के अधिकार से वंचित करने की धमकी दी गयी है। उन्हें शूद्र-गँवार तक कहा गया है। गायत्री सर्वसाधारण की साधना है। उसकी जानकारी प्राचीन काल में विद्याध्ययन के साथ ही करा दी जाती थी। पाठशाला में प्रवेश करते समय पुरातन काल में गुरुमंत्र के रूप में गायत्री को रटाया जाता था और उसकी प्रतिमा सदा साथ रखने के लिए जनेऊ पहनाया जाता था। इसमें वर्णभेद की कोई बात नहीं थी। वंशभेद या लिंगभेद के कारण किसी को भी इससे वंचित नहीं किया जाता था। सद्बुद्धि की देवी को प्राथमिकता देने में कौन इनकार करेगा? इसी दृष्टि से लोगों को आकर्षित करने के लिए उसके बड़े बड़े महात्म्य भी बताये गये हैं।

वर्तमान परिस्थितियों में सद्बुद्धि की देवती अपनाने के लिए व्यापक प्रचार किया गया कि लोग दुर्बुद्धि के कारण जो अनेकानेक संकटों में फँसते और पग-पग पर ठोकरें खाते देखे जाते हैं, उनसे बचाव हो सके। लोग अपनी समझदारी की जाँच पड़ताल करते रहें। उसका महत्व समझें और जहाँ, जब, जितनी कमी दिखाई पड़े उसे संभालने की चेष्टा करें। नासमझी को ही समस्त संकटों का मूलभूत कारण समझें और समझदारी को पूरी तत्परता के साथ अपनाये। गायत्री को अपनाने के निर्धारण में यही रहस्य छिपा हुआ है।

सृष्टि के सभी प्राणी निरोग रहते और दुर्घटना के अतिरिक्त कभी अकाल मृत्यु नहीं मरते। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो जिह्वा और जननेन्द्रिय का असंयम बरत कर खोखला, दुर्बल और बीमार पड़ता रहता है और असमय बेमौत मरता है।

विचारों का सदुपयोग करने वाला सहल ही हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकता है। पर दुर्बुद्धिवश चिन्तन क्षेत्र में अनेकों विकृतियाँ भर लेता है और चिन्ता, निराशा, भय, उद्वेग आदि से संत्रस्त रहता है। मानसिक सन्तुलन गँवाकर उद्धत, उच्छृंखल आवेशग्रस्त रहता है। खुद कुढ़ता और सम्बन्धित लोगों को भी कुढ़ाता है।

अर्थव्यवस्था के बारे में भी यही बात है। आजीविका के अनुरूप बजट न बनाने वाले अपव्ययी सदा अर्थचिन्ता में डूबे रहते हैं। अपनी योग्यता बढ़ाते हैं, न कठोर श्रम में दिलचस्पी लेते हैं, न खर्च घटाते हैं। ऐसी दशा में दरिद्री ऋणी रहना स्वाभाविक है।

पारिवारिक तालमेल न बिठा पाने, परिजनों को कुसंस्कारी बनाते चलने, उन्हें आलसी और अस्त व्यस्त रखने, अनुशासन न सिखाने, ढेरों बच्चे पैदा करने वालों का कलह से सदा एक दूसरे के प्रति मुटाव बना रहता है। ऐसे बाहर से एक और भीतर से अनेक रहने वाले परिवार सहयोग अभाव में अस्त व्यस्तता ही उत्पन्न करते रहते हैं।

नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन, बालविवाह, दहेज, मृतकभोज, भिक्षा व्यवसाय, जातिगत, ऊँच-नीच पर्दाप्रथा जैसे महारोगों घातक कुप्रचलनों का शिकार समुदाय निरन्तर नीचे ही गिरेगा, उसे ऊँचा उठने का कभी अवसर न मिलेगा। अन्धविश्वास अपने आप में इतने खर्चीले और मतिभ्रम पैदा करने वाले होते हैं कि अकारण ही मनुष्य पतन पराभव के गर्त में गिरता और भूलों पर भूलें करता है।

भावना जितनी गहरी होगी उत्साह उतना ही उभरेगा और प्रयास उतना ही अधिक बन पड़ेगा।

ऐसे मनुष्य न स्वयं चैन से बैठते हैं, न दूसरों को बैठने देते हैं।

धार्मिक, आध्यात्मिक क्षेत्र की भ्रान्तियाँ और भी बढ़-चढ़कर हैं। ईश्वर तुल्य सद्गुणी बनने का सीधा-साधा उद्देश्य छोड़कर लोग देवी-देवताओं की पूजा-पत्री का चारा दाना डालकर फुसलाने और सहज ही मनोकामनाएँ पूर्ण कराने की फिराक में रहते हैं। इसके लिए पशुबलि नरबलि करने तक में नहीं चूकते।

इस प्रकार की भ्रान्तियाँ ही हैं जो मनुष्य जैसे सुविधा साधनों से सम्पन्न जीव को भी नारकीय यंत्रणाओं में घेरे रहती हैं। कुकर्मी बनते और दूसरों को बनाते हैं। यह अंधेरे में भटकने जैसी स्थिति बहुसंख्यक लोगों की बनी हुई है। इसी से बचने के लिए चिन्तन, चरित्र और व्यवहार पर नये सिरे से विचार करने और उन्हें दूरदर्शी मंत्र विवेकशीलता की कसौटी पर कसने की प्रेरणा गायत्री मंत्र देता है। इसलिए उसकी महिमा गाते गाते ऋषि मुनि और शास्त्रकार थकते नहीं हैं।


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