ईश्वर विश्वास क्यों अनिवार्य हैं?

November 1990

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ईश्वर सर्वव्यापी हो अथवा एक स्थान पर वास करने वाला। यह विश्व ब्रह्माण्ड उसकी कृति हो या किसी अन्य की। वह सर्वसमर्थ हो, चाहे निर्बल। ससीम हो या असीम। प्रश्न यह उठता है कि आस्तिकता की मानवी जीवन में क्या उपयोगिता है? वह मनुष्य के लिए क्यों आवश्यक है? क्या इसके बिना मनुष्य सुखी नहीं रह सकता? यदि ऐसी बात है, तो संसार में ढेरों ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे, जिनका ईश्वर पर विश्वास नहीं है, जो अनीश्वरवाद का समर्थन करते हैं, तो क्या उन्हें जीवन भर दुख ही दुख भोगना पड़ता है?

आये दिन विश्व के मूर्धन्य कहे जाने वाले मनीषियों द्वारा इस प्रकार के प्रश्न उठाये जाते रहे हैं और आस्तिकता की महत्ता पर प्रश्न -चिन्ह लगाया जाता है। देखा जाय तो इसमें इनका भी कैसे इनकार किया जाय? शरीर के की जाय? हाँ, इतना आवश्यक है कि प्रत्यक्षवाद को ही सब कुछ नहीं माना जाना चाहिए। गलती यही होती है। जो लोग अपने भौतिक जीवन को ही सब कुछ मान बैठे हैं उनके लिए इस प्रकार के मन में “ भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरामनम कृत “ की बात आयी होगी, पर जो परोक्षवाद पर विश्वास करते और भौतिक जीवन से परे भी है, उनके लिए इतने से ही काम नहीं चलता उन्हें कुछ और प्रश्नों के पर विचार करना पड़ता है कि “ मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ और मेरा लक्ष्य क्या है?”

इन प्रश्नों पर विचार करने से निश्चय ही आस्तिकता की महत्ता जीवन में समझ में आ जाती है, मगर कार्लाइल का विचार है कि मनुष्य के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक वह इन्हीं प्रश्नों की ऊहापोह में पड़ा हुआ है, फिर फिजूल के जाल-जंजाल में पड़ कर अपना बहुमूल्य समय गँवाना और स्वल्प जीवन को बरबाद कर उसके आनन्द लाभ से वंचित होना, किसी भी प्रकार बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। उनका विचार है कि "मैं कौन हूँ?” इस पर मनन करने के बजाय, “मुझे क्या करना चाहिए?” इस पर विचार करना चाहिए?” कुछ क्षण के लिए कार्लाइल का यहाँ सुझाव मान भी लिया जाय, तो क्या बिना आत्मबोध और स्वरूपबोध के कर्तव्यबोध कर पाना संभव है? कदाचित् नहीं। जब गन्तव्य ही न मालूम हो, तो कोई कदम किस ओर बढ़ायेगा?

स्वयं को सही - सही न जानने की स्थिति में मनुष्य कर्तव्य- अकर्तव्य के बीच विभेद नहीं कर पाता और जिसकी रुचि जिस प्रकार की होती है, स्वतंत्रतापूर्वक वह उसी प्रकार का कार्य करने लगता है। व्यभिचार करता और अपराधी अपराध वृत्ति में संलग्न होकर लोगों को सताता, प्रताड़ित करता है। फलतः समाज व्यवस्था भंग होती है, पर जब उसे अपने स्वरूप और स्रष्टा के में संलग्न रहने का साहस नहीं संजों पाता।

उदाहरणार्थ किसी कार्यरत लिपिक को मालूम होता है, कि उसके जिम्मे निर्धारित कार्य क्या है और वह उन्हें करने के लिए बाध्य है, चाहे इनमें उसका मन लगे या न लगें, उसकी अपनी मर्जी यहाँ नहीं चल सकती। चूँकि उसे ज्ञात होता है कि यदि वह अपनी मर्जी की करने की धृष्टता करेगा तो सजा का पात्र बनेगा उसे किसी न किसी प्रकार की सजा अवश्य मिलेगी या तो आर्थिक दण्ड भुगतना पड़ेगा अथवा नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, अतः वह उसी कार्य के नियमपूर्वक करता रहता है, जो अधिकारी की ओर से उसे मिलता है। ईश्वरीय सत्ता की ओर से मनुष्य के लिए भी इस संसार में ऐसी ही नियम व्यवस्था है। जब मनुष्य इस व्यवस्था को भंग करने की कोशिश करता है तो परमसत्ता की दृष्टि में अपराधी साबित होता है तो फलतः उसका दण्ड भी झेलना पड़ता है। इस दण्ड से वह तभी बच सकता है, जब स्वयं को समझें, अपना जन्म धारण करने का उद्देश्य जाने और उसके अनुरूप कार्य करे। ऐसा तभी संभव है, जब व्यक्ति आस्तिकता को जीवन में धारण और सृष्टि की नियामक सत्ता पर विश्वास कर सके। यह जान सके कि वह स्वयं भी अविनाशी आत्मा है, परमपिता परमात्मा का अंशधर है।

मरणधर्मी शरीर तो कलेवर मात्र है, जो समय-समय पर बदलता रहता है। वस्त्र के जीर्ण शीर्ण पड़ जाने पर उसे त्यागना और नया वस्त्र धारण करना पड़ता है, पर इस परिवर्तन की क्रिया से शरीर प्रभावित होता हो, ऐसा कहाँ देखने -सुनने में आता है। शरीर तो यथावत बना रहता है। इसी प्रकार का संबंध शरीर और आत्मा के बीच है। शरीर के बदलते रहने पर भी मूल सत ज्यों की त्यों बनी रहती है जिन्हें यह तथ्य विदित है, और जो कर्मफल सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं, वे अपना कार्य भी मानवी गरिमा के अनुरूप निर्धारित करते है, स्वयं शालीनतापूर्वक सच्चे इंसान की तरह जीते और दूसरों को भी इसी की प्रेरणा देते है। ऐसे ही लोगों की संख्या जब धरित्री पर बढ़ती है तो धरती स्वर्गोपम बनती और मनुष्य देवमानव होने का गौरव प्राप्त करता है, इससे जहाँ मानव अपने परम लक्ष्य को शीघ्रातिशीघ्र पा सकने में सफल होता है, वहीं दूसरी ओर संसार में हर प्रकार की सुख - शान्ति बनी रहती है। आस्तिकता का यही सबसे बड़ा लाभ है।

जो अनीश्वरवाद के समर्थक है, वह किसी अदृश्य सत्ता पर क्यों कर विश्वास करेंगे और क्यों कर वह उससे डरेंगे? स्पष्ट है, ऐसे लोगों के क्रिया−कलाप स्वतंत्र होंगे। जिनकी जो इच्छा होगी, निरंकुश शासक की तरह करते रहेंगे। न वर्जनाओं का ध्यान रहेगा न उच्छृंखलताओं का। न दण्ड व्यवस्था की चिन्ता होगी, न किसी के भय का खयाल होगा। परिणाम सर्वग्राही विभीषिका रूप में अपना आदि अन्त मानते है, वह निश्चय ही हर प्रकार की साधन सुविधा एकत्रित कर जीवन का भरपूर उपभोग करना चाहेंगे चाहे इस प्रक्रिया में उन्हें अनीति - अत्याचार का ही सहारा क्यों न लेना पड़े? पर वे ऐसा करेंगे अवश्य। यह अनीश्वरवादी भोगवादी नीति का दोष हैं।

चार्वाक और जे.एस. मिल दोनों ही इस प्रकार की भोगवादी मान्यता के समर्थक और अनीश्वरवाद के प्रशंसक रहें हैं, तो दूसरे का समूहवाद पर। जे. एस. मिल के समाज में अधिकतम मनुष्यों को अधिक से अधिक सुख दिलाना ही मात्र उद्देश्य होता है, पर सुखी समाज की यह कल्पना भी सर्वांगपूर्ण नहीं है, क्योंकि इस सुख की नींव कुकृत्यों रूपी आधारशिला पर भी रखी जा सकती है। यदि सुख दूसरों को कष्ट देकर ही मिलता है तो कोई क्यों कर परोपकार में निरत होगा क्योंकि उसका परिणाम तो तुरन्त मिलना भी नहीं है।

आस्तिकवाद ऐसे में आश्वासन देता है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। हर व्यक्ति को अपने किये उपकार का बदला निश्चित ही आत्म संतोष एवं लोक सम्मान -दैवी अनुग्रह के रूप में इसी जन्म में तथा अगले जन्म में भिन्न रूपों में मिलकर ही रहता है। भगवद् सत्ता में पुण्य कार्यों का पारितोषिक निश्चित ही प्रदान करती है जो लौकिक भी हो सकता है, आत्मिक प्रगति के रूप में परोक्ष भी! इस पर भोगवादी नास्तिक कह सकते हैं कि यह भी तो एक प्रकार के लाभ हैं, तो ईश्वर विश्वास से अर्जित तथा अनीश्वरवादी लाभ में क्या अन्तर रहा? इस प्रकार का प्रश्न करने वाले वस्तुतः यह भूल जाते है, जिसकी गति सिर्फ इसी संसार तक सीमित है, पर ईश्वरवादियों का आधारित है। ऐसे लोगों को भौतिक संसार में श्रेय, सम्मान, श्रद्धा का सुख तो प्राप्त होता ही है, वे स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति का आनन्द भी परलोक में उठाते है। यही मनुष्य का चरम लक्ष्य भी है।

इस प्रकार विचार किया जाय, तो नास्तिकता के कारण मनुष्य- जीवन अधूरा प्रतीत होता है। आस्था के अभाव में व्यक्ति न तो आनन्द की प्राप्ति कर सकता है, न चरम लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है।


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