आम पक चुका था, भला इसी में था कि किसी की तृप्ति बनता पर वृक्ष में लगे रहने का मोह छूटा नहीं। पेड़ का मालिक पके आमों की खो-बीन करने वृक्ष पर चढ़ा भी पर आम पत्तों की झुरमुट में ऐसा छिपा कि हाथ आया ही नहीं।
दूसरे दिन देखा कि उसके सब पड़ोसी जा चुके, उसका अकेले ही रहने का मोह नहीं टूटा था और अब मित्रों की विरह व्यथा और सताने लगी।
आम कभी तो सोचना नीचे कूद जाऊँ और अपने मित्रों में जा मिलूँ फिर मोह उसे अपनी और खींचता, आप उसी अधेड़-बुन में पड़ा रहा।
संशय का यही कीड़ा धीर-धीरे फल को खाने लगा। एक दिन उसका सारा रस चूस लिया। सूखी नर कंकाल के समान पेड़ में लगी रह गई।
आम की आत्मा यह देखकर बहुत पछताई कुछ संसार की सेवा भी न बन पड़ी और अन्त भी हुआ तो ऐसा दुःखद।
समझदार होकर भी जो साँसारिकता के मोह में फँसे-अब निकले, अब निकले” सोचते रहते हैं, उनका अंत दुःखद ही होता है।