नर से नारायण बनने की दिशा पकड़े

November 1990

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मनुष्य देखने में एक इकाई प्रतीत होता है, पर उसके व्यक्तित्व का तनिक बारीकी से पर्यवेक्षण किया जाय तो सहज ही पता चलेगा कि उसके तीन विभाग हैं। तीनों का समन्वय और अभिवर्धन ही समग्र प्रगति का आधारभूत कारण बनता है। पेड़ में जड़ें, तना और पत्र पल्लव यही तीन भाग प्रमुख हैं जो मिल जुल कर उसकी प्रगति का सर्वतोमुखी सरंजाम जुटाते हैं। इसी प्रकार मानवी सत्ता भी (1) पदार्थ परक (2) चिन्तन परक (3) व्यवहारपरक इन तीन भागों में बँटी है। इन तीनों की समन्वयात्मक प्रगति को देख कर यह समझा जा सकता है कि व्यक्तित्व आगे बढ़ा, ऊँचा उठा और प्रगति पथ पर आगे चल पड़ा। पैर, धड़ और सिर के तीनों ही भाग मिलकर एक समूचे शरीर को समग्र बना पाते हैं।

पदार्थपरक जीवन का तात्पर्य यह है कि निर्वाह की आवश्यक सुविधा सामग्री उपलब्ध हो। परिश्रम और कौशल ऐसा हो, जिसके सहारे अपना और आश्रितों का गुजारा भली प्रकार चलता रहे। इस प्रयास में शरीर और मन को इतना प्रयास करना पड़ता है कि दोनों की क्षमता तीक्ष्ण होती चले। यह प्रयास ईमानदारी भरा और न्यायोचित होना चाहिए। अन्यथा अनावश्यक आवश्यकताएँ बढ़ा लेना, ‘प्रदर्शन अधिक-परिश्रम कम’ वाली नीति अपनाते ही मनुष्य को अनीति पर उतारू होना पड़ता है। ऐसा पैसा कमाने वाले के लिए खर्चने वाले के लिए - और संपर्क क्षेत्र के लिए दुष्प्रभाव छोड़ता है और इस आधार पर जो कमाया या खाया दिखाया गया था उसकी तुलना में अन्तः क्षेत्र का कोसना और परिचितों की घृणा इतनी भारी पड़ती है, जिसे गरीबी से भी महँगा कहा जा सके।

इसलिए स्थूल जीवन का प्रत्यक्ष सादा जीवन उच्च विचार की नीति पर निर्धारित रहना चाहिए। शरीर का उचित सम्मान करें और पुष्ट बनायें। बात यहीं तक सीमित रहनी चाहिए। अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए परिवार को सुसंस्कारी और स्वावलम्बी बनाना चाहिए। जो परिवार के प्रति, शरीर के प्रति अत्यधिक आकर्षित रहते हैं, उन्हें वासना, तृष्णा और अहंता के तीनों ही कुकर्म बुरी तरह घेरते हैं और सामान्य जीवन को ऐसा बना देते हैं, जिससे आरोग्य, संतुलन निर्वाह, सम्मान और प्रतिभा विकास में निरन्तर अवरोध पड़ता है। इन विपन्न परिस्थितियों में मनुष्य न सुखी रह सकता है, न संतुष्ट। उसे दुर्बलता, रुग्णता और भर्त्सना का शिकार होना पड़ता है। ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि भौतिक जीवन को सुव्यवस्थित रखें। उसे नशेबाजी जैसे दुर्व्यसनों से आलस्य और प्रमाद से, अनीति उपार्जन से निरन्तर बचा कर रखें। ऐसा जीवन सहज ही ऊँचा उठेगा और आगे बढ़ेगा। चमड़ी काली, कुरूप होने पर भी वह अपने चरित्र के कारण सुन्दर, सम्माननीय और अनुकरणीय बनकर रहेगा।

जीवन का दूसरा पक्ष है चिन्तन, बौद्धिक विचारशील। इसके लिए स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन और मनन चारों ही आवश्यक हैं। स्कूली शिक्षा जहाँ तक संभव हो, वहाँ तक प्राप्त करनी चाहिए पर नौकरी लक्ष्य न रखा जाय, तो ही अच्छा है क्योंकि भविष्य में हर शिक्षित को नौकरियाँ नहीं मिलने वाली हैं। उपार्जन के लिए पैतृक धन्धे को ही विकसित करने की योजना सरल पड़ती, पर यदि वैसा संभव न हो, तो दूसरे उद्योग की बात सोची जा सकती है। शिक्षा का उद्देश्य जीवनोपयोगी-समाजोपयोगी ज्ञान का संवर्धन है। इसके सहारे मनुष्य बुद्धिमान बनता है। इसलिए स्कूली शिक्षा के सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं है। पर साथ ही यह भी सोचते रहना चाहिए कि आर्थिक, वैयक्तिक, सामाजिक क्षेत्रों का उपयुक्त निर्वाह करने के लिए स्कूली पढ़ाई के अतिरिक्त भी और भी बहुत कुछ सीखना चाहिए। इसके लिए समस्याओं का समाधान करने वाली पुस्तकों का स्वाध्याय प्रामाणिक और दूरदर्शी व्यक्तियों के सान्निध्य-परामर्श का अवसर भी ढूँढ़ते रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत समस्याओं तथा प्रचलनों के औचित्य -अनौचित्य के सम्बन्ध में पूर्वाग्रह रहित विचार मंथन स्वयं भी करना चाहिए और लोगों का अन्धानुकरण करने की अपेक्षा जो दूरदर्शी विवेकशीलता की कसौटी पर खरा उतरता हो उसी को स्वीकार करना चाहिए। सही निष्कर्ष तक पहुँचना ही पर्याप्त नहीं, उसे कार्यान्वित करने के उपयुक्त साहस एवं पराक्रम भी संचित करना चाहिए।

बहुमत जिस ढर्रे पर अपनी गाड़ी चलाता है, वह न तो बुद्धि संगत है और न अनुकरणीय। हमें स्वतंत्र चिन्तन का अवलम्बन करना चाहिए और विवेकशीलता को साहसपूर्वक अपनाना चाहिए। आदर्शों के सम्बन्ध में कौन क्या कहता है, इसे सुन तो लेना चाहिए, पर किसी के भी कथन परामर्श को अपनी स्वतंत्र विचारशीलता छोड़ कर अपनाना नहीं चाहिए।

अपने आपे के सम्बन्ध में कुछ तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें समझना ही पर्याप्त न होगा, वरन् उसके आधार पर दिशा धारा भी निर्धारित करनी चाहिए।

मनुष्य जन्म, स्रष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है। जो सुविधाएँ मनुष्य को मिली हैं वे अन्य किसी प्राणी को नहीं मिलीं। यह उपलब्धियाँ धरोहर की तरह हैं, ताकि आत्मशोधन करके पूर्णता का लक्ष्य उपलब्ध किया जाय। साथ ही स्रष्टा के इस विश्व उद्यान को अधिक सुन्दर समुन्नत बनाकर कर्ता के श्रम को सार्थक किया जाय। इसी इच्छा से उसने हमें मनुष्य जन्म दिया है। आमतौर से लोग आत्मा और शरीर के अन्तर को भूल जाते हैं और समस्त क्षमताओं को मात्र शरीर की, उससे सम्बन्धित भोगों को मात्र शरीर की, उससे सम्बन्धित भोगों की उचित अनुचित आकांक्षाएँ पूरा करने में खपा देते हैं। ऐसी दशा में वह अवसर ही नहीं मिलता जिसमें आत्मकल्याण और लोक मंगल के जीवन लक्ष्य पर विचार कर सकें। यदि यह विचार बन पड़े, तो मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव को मानवी गरिमा के अनुरूप बनाये, चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश करे और क्रिया–कलापों में सज्जनता शालीनता का बढ़-चढ़ कर समावेश करें। हमारा चिन्तन जितना स्वार्थ के निमित्त लगता है उतना ही परमार्थ प्रयोजन में भी लगना चाहिए। विशेषतया अपनी विचार क्षमता का उच्चस्तरीय उपयोग करें। समझें कि मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा करता है। जैसा करता है, वैसी ही परिस्थितियाँ बन जाती हैं और तदनुरूप भला-बुरा भोगना पड़ता है। इसलिए विचार संयम को समुचित महत्व दिया जाय। कुविचारों को काटने के लिए सद्विचारों की, श्रेष्ठ उदाहरणों की एक समर्थ सेना पहले से ही जुटा रखी जाय, जो कुविचारों का आक्रमण होते ही उन्हें निरस्त करने के लिए जुट पड़ें। जिस पर फूलों से लदा उद्यान विनिर्मित करने के लिए चतुर माली जैसा पराक्रम करना पड़ता है। भय स सतर्क रहना पड़ता है। वैसे ही अपने सद्विचारों की फुलवारी उगाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। भय, निराशा, क्रोध, अहंकार, आलस्य, पाप, अपराध जैसे चिन्तनीय चिन्तन से जूझने के लिए हर समय कटिबद्ध रहा जाय। एक जागरूक प्रहरी का उत्तरदायित्व भली प्रकार निबाहा जाय।

उच्चस्तरीय विचारों के चिन्तन मनन से उन्हें अपनाने और कार्यान्वित करने के प्रयास में जब भी अवसर हो समय लगाना चाहिए और उसे आत्मशोधन की साधना मानकर चलना चाहिए जो ईश्वर उपासना के ही समतुल्य है।

जीवन की तीसरी परत है समाज परक। हम व्यक्तिगत रूप से गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से कितने पवित्र परिष्कृत हो सकें, इसकी परीक्षा दूसरों के प्रति अपने द्वारा किये गये व्यवहार को देखकर ही परखी जा सकती है। स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। कितनों के ही सहयोग से हमें निर्वाह एवं प्रगति के अवसर मिलते हैं। यदि वे उपलब्ध न हुए होते, तो दुर्बलकाय मनुष्य का अपने बलबूते जीवित रह सकना भी संभव नहीं। अब तक जितनी भी प्रगति मनुष्य ने या समाज ने की है, उसमें एक - दूसरे का स्नेह सहयोग भी प्रधान कारण रहा है। मछली पानी में जीवित रहती है और मनुष्य समाज के बीच रह कर अपना निर्वाह करता है। इसलिए उसका परम पवित्र कर्तव्य हो जाता है कि समस्त क्षमताएँ स्वार्थ के लिए ही न गँवा दें। कम में अपना गुजारा करते हुए अपना समय, श्रम, ज्ञान, वैभव, प्रभाव आदि का उपयोग लोक मंगल के लिए करें। इसके बिना किसी की प्रामाणिकता, पवित्रता और प्रखरता की परीक्षा नहीं होती। पानी में प्रवेश करके ही यह सिद्ध किया जा सकता है कि किस तैरना आता है किसे नहीं। इसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व कितना पवित्र एवं उदात्त है कि इसकी परख एक ही आधार पर होती है कि उसका व्यवहार अन्यान्यों के प्रति कितना उदार एवं उदात्त है। मधुर भाषण, शिष्टाचार, ईमानदारी, वचन का पालन, समय का परिपालन लेन देन में सफाई रखने जैसे सिद्धान्तों को अपना कर दूसरों के साथ सद्व्यवहार किया जाय। सत्प्रवृत्तियों को ऊँचा उठाने में कुछ कमी न रहने दी जाय।

इस उदात्त व्यवहार का एक पक्ष यह भी है कि अनीति के कुरीतियों के अवांछनीयताओं के प्रति संघर्ष किया जाय, उन्हें सहन न किया जाय। अनीति सहना प्रकारान्तर से दुष्ट दुराचारियों को प्रोत्साहन देना है। इसलिए अवांछनीयताओं के विरुद्ध यथा संभव संघर्ष जारी रखना चाहिए। असहयोग, विरोध, और संघर्ष के लिए यदि भले लोग तत्पर रहें, तो मुट्ठी भर बुरे आदमियों का इतना दुस्साहस न बढ़े जितना कि इन दिनों निरन्तर बढ़ता चला जाता है।

आत्मोन्नति का मार्ग सरल है। इसके लिए किसी असाधारण पराक्रम की आवश्यकता नहीं है और न गुह्य कर्मकाण्डों का आश्रय लेना अनिवार्य है। शक्ति के महान भाण्डागार परमेश्वर के साथ अपने संबंध सुदृढ़ बना लेने से काम चल सकता है। उसका उपाय एक ही है कि हम अपनी पात्रता इतनी विकसित करें। कि उनकी निरन्तर हर किसी पर बरसने वाली अनुकम्पा को धारण किया जा सके। रात भर वर्षा होते रहने पर भी हम उतना ही पानी प्राप्त कर सकते हैं जितना कि अपना बर्तन होता है।

मनुष्य नर से नारायण बन सकता है इसी जन्म में, महामानव ऋषि, देवता इसी स्तर के होते हैं। उनमें से प्रत्येक को अपना ध्यान आत्मसत्ता की उत्कृष्टता पर केन्द्रित करना पड़ा है। इतना जो भी कर सकेगा उसके अन्तराल में इतनी स्फुरणा निश्चित रूप से जागेगी कि अपनी तृष्णा अहंता में कटौती करके बचे हुए साधनों को स्रष्टा के विश्व उद्यान को स्वच्छ, सुन्दर और समुन्नत बनाने के लिए नियोजित करें। प्राचीन काल में आध्यात्मिक उत्कृष्टता की संचित सम्पदा बढ़ाने वाले साधु-ब्राह्मण समुदाय की जीवनचर्या इसी प्रकार की होती थी, कि जिसकी शोभा-सुषमा पर जन सहयोग लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह अनवरत रूप से बरसता रहे। वे निजी महत्त्वाकाँक्षाओं को पैरों तले कुचलते थे। आत्म संयम में कुछ उठा न रखते थे। इतना किये बिना किसी के पास ईश्वर अभ्यर्थना के लिए कुछ बचेगा ही नहीं।

ईश्वर के दरबार में चापलूसी, खुशामदखोरी, पूजा अर्चन, छुटपुट व्यवहार या काय-कष्ट काम नहीं देते। इन विडम्बनाओं के बल पर उसे बहकाया-फुसलाया नहीं जा सकता। जिस प्रकार आग में ईंधन अपने को समर्पित करके तदनुरूप बन जाता है। उसी प्रकार दैवी गुण, कर्म, स्वभाव को चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में नियोजित करने के उपरान्त हम ईश्वर अनुग्रह के सहज ही अधिकारी बन जाते हैं और जीवन लक्ष्य की पूर्ति में अकारण प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। उचित यही है कि हम अपना स्तर ऊँचा उठाने और नर से नारायण बनने की सफलता प्राप्त करें।


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