विज्ञान का सच्चा उच्चस्तरीय सोपान

November 1990

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दो हजार वर्ष पूर्व चीन के महान दार्शनिक लाओत्जू ताओ ते चिंग ने कहा कि ‘ जो जानता है वह बोलता नहीं और जो बोलता है उसे ज्ञान नहीं।’ यही तथ्य अध्यात्म और विज्ञान के संदर्भ में भी लागू होता है आज एक गूँगा बहरा बनकर रह गया है तो दूसरा पंगु। पहले ने चेतन पक्ष को ही सब कुछ मानकर उसकी खोज तक में अपने सीमाबद्ध कर लिया हो विज्ञान प्रकृति पदार्थों के अविज्ञात रहस्यों का अनुसंधान करने और प्रगति के साधन जुटाने में निमग्न हो गया। सत्य की खोज में निरत होने पर होने पर भी दोनों पृथक् एवं असम्बद्ध दिशाधारा अपनाये हुए हैं। चेतना को परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनाये बिना जड़ पदार्थों से लाभान्वित होना, करतल गत प्राकृतिक शक्तियों का सदप्रयोग बन पड़ना संदिग्ध ही बना रहेगा।

समूची मानव सभ्यता का समूह विकास विज्ञान और अध्यात्म के एकत्व पर निर्भर है। दोनों महाशक्तियों के समन्वय की ओर मनीषियों के प्रयास अब चल भी पड़े हैं। विज्ञान और अध्यात्म के मध्य चलने वाला असहयोग का संघर्ष का क्रम धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा जा रहा है। जहाँ वैज्ञानिक अनुसंधानों की दिशाधारा चेतना की ओर मानवी भाव-संवेदनाओं के उन्नयन की ओर अभिमुख हुई है। अध्यात्म से दिशा लेकर ध्वंसात्मक प्रयोजन से निरत हो कर सृजनात्मकता की ओर अपनी शक्तियों को नियोजित करने की ओर प्रवृत्त हैं वही अध्यात्म भी तर्क, तथ्य पूर्ण वैज्ञानिक विधि अपनाकर लोक मान्यताओं, अंधविश्वासों चित्र-विचित्र प्रथा-प्रचलनों का कुहासा मिटा कर अपनी यथार्थता, प्रखरता को खरा सिद्ध करने को समुद्यत है। इसी तथ्य का उद्घाटन करते हुए वैज्ञानिक सर आर्थर एडिंगटन ने अपनी कृति “फिलॉसफी ऑफ फिजिकल साइन्स” में कहा है कि विज्ञान अब दर्शन या अध्यात्म का विरोधी नहीं, वरन् उसका पूरक बनने जा रहा है। संयुक्त रूप से दोनों शक्तियों सत्य और असत्य के मध्य के भेद का विवेक सम्मत समाधान प्रस्तुत करेंगी। उनके अनुसार वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर अब यह सिद्ध हो गया है कि चेतना की बोधगम्यता ही वास्तविक सत्य है।

“माइन्ड एण्ड मैटर नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में भौतिक विज्ञानी ई. थ्रोडिन्गर ने कहा है कि विश्व ब्रह्माण्ड का प्रमुख तत्व चेतना है। पदार्थ जगत का निर्माण उसी के द्वारा सम्पन्न हुआ है। जिस प्रकार शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति भोजन के पाचन और उसके रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तन से होती है, उसी तरह बौद्धिक प्रक्रियाओं, परिकल्पनाओं (थिंकिंग प्रोसेस) के लिए आवश्यक ऊर्जा चेतनसत्ता से प्राप्त होती है। चेतना की शक्ति से ही संसार की समस्त हलचलें, प्रक्रियाएँ संचालित, परिवर्तित एवं परिवर्धित हो रही हैं। मानवी चेतना उसी समष्टिगत सत्ता का एक छोटा घटक है। वह चाहे दृढ़ आस्था एवं संकल्पबल के आधार पर परमचेतना से घनिष्ठता जोड़ कर अपने में देवत्व का विकास कर सकता है। प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक बुद्धि तो मनुष्य के मस्तिष्क में कौंधने वाली चेतना के छोटे से प्रयास का प्रतिफल है। यदि उस सीमा बंधन को लाँघा जा सके तो सुपरचेतन जैसी उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ हस्तगत हो सकती हैं। यह वह अवस्था है जहाँ प्रकृति का नियम नहीं चलता, चेतना का ही साम्राज्य रह जाता है। जन्म मृत्यु का, दिक्-काल का बंधन टूट जाता है।

भौतिक विज्ञान के उच्च शिखर पर पहुँचने के पश्चात् विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ‘लाइफ’ पत्रिका को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था कि वैज्ञानिक खोजों की लम्बी अवधि में मुझे जो सबसे सुन्दर और सुखद अनुभव हुआ है वह यह कि कोई अदृश्य चेतना इस विश्व-ब्रह्माण्ड की नियामक है। वही सम्पूर्ण सत्य, कला और विज्ञान का स्रोत है। अन्तराल की गहराई में प्रवेश कर कोई भी इसकी अनुभूति कर सकता है। उनके अनुसार विज्ञान का भी उद्देश्य सत्य की खोज करना है, पर मस्तिष्कीय चेतना के उथली परत से संचालित होने के कारण वह गहराई में प्रविष्ट नहीं कर पाता। हमने जो जानकारी प्राप्त की है वह एक स्कूली छात्र से अधिक नहीं है। उस ज्ञान के सहारे न तो वस्तुओं का सही स्वरूप जाना जा सकता है और न जीवन उद्देश्य की पूर्ति ही संभव है।

अपनी अनुपम कृति “आई क्लीव नाइन्टीन पर्सनल फिलासफीज” में आइन्स्टीन कहते हैं कि इस धरती पर हमारी स्थिति अनोखी है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति यहाँ बहुत थोड़े समय की शोर्ट विजिट पर आता है परन्तु यह नहीं जानता कि वह कहाँ से और क्यों आया है? बिरले ही होते हैं जिन्हें कभी-कभी यह आभास हो पाता है कि उन सबके पीछे कोई दिव्य उद्देश्य सन्निहित है। सामान्य तर्क बुद्धि के आधार पर विशाल ब्रह्माण्ड पर छाये रहस्यमय पर्दे को नहीं उठाया जा सकता और न ही मनुष्य स्वयं के बारे में अधिक कुछ जान सकता है। इसी तरह जैव विकास की जटिल प्रक्रियाओं को तक और कल्पनाओं के द्वारा नहीं समझा जा सकता। वस्तुतः मानवी विकास बायोलॉजिकल न होकर मनोवैज्ञानिक एवं चेतनात्मक है। उनका कहना है कि हम उतना ही प्राप्त कर सकते हैं, प्रगति कर सकते हैं, जितना हमारी बुद्धि जानती और प्रमाणित करती है किन्तु एक क्षण जीवन में ऐसा भी आता है जब वह छलाँग लगा कर एक उच्चस्तरीय धरातल पर जा पहुँचती है, जिसे अंतःप्रज्ञा या सुपर कान्शसनेस कहते हैं। प्रायः सभी महान आविष्कारों का उद्भव कान्शसनेस माइन्ड के सुपर कान्सियस माइन्ड की और क्वान्टम जम्प से हुआ है। यह अति चेतन अवस्था ही सत्य की, आत्मबोध की स्थिति है। हमें अपने शोध के दायरे को विस्तृत कर इस दिशा में कदम बढ़ाना होगा। आन्तरिक परिपूर्णता का यही सुगम मार्ग है।

अध्यात्म वेत्ताओं का कहना है कि अदृश्य चेतना ने ही भौतिक पदार्थों का सृजन किया है। वही इसमें आवश्यक परिवर्तन परिवर्धन करती रहती है। विज्ञानवेत्ता भी अब इस तथ्य को स्वीकारने लगे है कि संसार में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है चेतना का खेल है। प्लाँक, ब्रोगली, जेम्सजीन जैसे विख्यात वैज्ञानिक इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि चेतना प्रमुख तत्व है और पदार्थ उसी के व्युत्पन्न हुए हैं। यह मान्यता इतनी सुदृढ़ हो गयी थी कि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में उक्त सभी वैज्ञानिक दार्शनिक हो गय थे और आत्मिकी के संश्लेषण में निरत हो गये थे।

डॉ. ई. रेगर एवं जे.जी टेलर नामक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि जिस तरह मानवी चेतना का एक केन्द्र उसकी आत्मा है, उसी तरह प्रत्येक भौतिक प्रणाली का एक सचेतन सेन्टर है। चेतना एवं पदार्थ के मध्य अन्यान्य क्रिया के लिए वही उत्तरदायी है। उनके अनुसार चेतना और पदार्थ परस्पर पूर्वक हैं एवं निर्धनता से एक दूसरे से गुँथे हुए है। जिस प्रकार भौतिक जगत में पदार्थ और ऊर्जा परस्पर संबंधित हैं और आइन्स्टीन के समीकरण ई. एम.सी.2 के अनुसार एक दूसरे में परिवर्तित किये जा सकते हैं, उसी तरह आध्यात्मिक जगत में चेतन ऊर्जा और प्रकृति पदार्थों में आपसी सम्बन्ध है और दोनों एक दूसरे को आकार प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं जड़ और चेतन “ई. एम. वी. 2’ सूत्र के आधार पर अपना रूप भी परिवर्तित कर सकते हैं। यहाँ ई. से तात्पर्य साइकिक एनर्जी, एम से मास अर्थात् मात्रा और वी. से वेलोसिटा आँट थाट से है।

अतीन्द्रिय सामर्थ्य द्वारा नये पदार्थों के निर्माण अथवा वस्तुओं के रंग, रूप आकार में परिवर्तन से उक्त तथ्य की पुष्टि होती है कि चेतना सर्वोपरि है और पदार्थों पर उसका आधिपत्य है। इच्छानुरूप वह उनमें हेर फेर करने में समर्थ है। उदाहरण के लिए स्वामी विवेकानन्द द्वारा वर्णित उस घटना क्रम को लिया जा सकता है, जिसमें एक व्यक्ति ने उनके समक्ष अपनी मानसिक शक्ति से अंगूर, सन्तरों, आदि के ढेर पैदा कर दिये थे। एक दूसरे प्रयोग में ताजे सुगन्धि गुलाब के पुष्प खिला दिये थे। इसी तरह स्वामी विशुद्धानंद के बारे में विख्यात है कि स्पर्श मात्र से जड़ वस्तुओं में मन चाही खुशबू पैदा कर देते थे। बनारसी साड़ी के एक गट्ठर को उनने एक बार तिब्बती परिधान में बदल दिया था। इजराइल के गुह्यविज्ञानी यूरीगेलर ने पिछले दिनों इस तरह कि कितने ही प्रयोग जाने माने वैज्ञानिकों के समक्ष प्रस्तुत किये हैं। कठोर धातुओं में रबड़ जैसी लचकता प्रकट कर दिखाई। वैनेडियम कार्बाइड जैसे कठोर धातु को मनःशक्ति के आधार पर विनष्ट कर ऊर्जा में बदल दिया। सभी उदाहरण यह प्रमाणित करते हैं कि चेतना द्वारा वस्तुओं का रूपान्तरण संभव है। एक ओर जहाँ पदार्थ को साइकिक ऊर्जा में बदलना संभव है, वहीं अतिचेतन मन मानसिक ऊर्जा से पदार्थ का संश्लेषण भी कर सकता है।

प्रस्तुत समय की माँग है कि विज्ञान की खोज प्रकृति पदार्थों और उनमें सन्निहित शक्तियों के उद्घाटन तक सीमित न रहकर चेतना की गहराइयों में प्रवेश करे जिसमें भाव संवेदनाओं, मान्यताओं, आस्थाओं, प्रज्ञा, श्रद्धा आदि के उच्चस्तरीय तत्व छिपे हैं। इनकी उत्कृष्टता एवं परिपक्वता ही मनुष्य को देवोपम बना सकेगी मनुष्य एक साथ सच्चा वैज्ञानिक एवं सच्चा आध्यात्मिक तभी कहा जा सकेगा।


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