दोष का परिमार्जन कैसे (Kahani)

November 1990

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संत तुकाराम की धर्मपत्नी बड़े कर्कश स्वभाव की थीं। पति के साथ समय-समय पर दुर्व्यवहार भी कर बैठती थीं। पर वे सदा हँसते ही रहते। प्रतिशोध या क्रोध को पास में फटकने भी न देते।

एक दिन किसी किसान ने सन्त को गन्नों का एक गट्ठा दिया। सिर पर रखकर वे घर आ रहे थे कि रास्ते में मिलने वाले उनसे अनुरोध करके अपने लिए एक-एक गन्ना माँगते रहे। उदार सन्त से इनकार करते न बन पड़ा। हर एक माँगने वाले को एक-एक गन्ना देते हुए चले आये।

अन्त में एक गन्ना शेष रह गया वह लाकर उन्होंने पत्नी को दे दिया। पत्नी को गन्ने का गट्ठा मिलने और रास्ते में गन्नों को बाँटने की सूचना पहले ही मिल चुकी थी। वह क्रोध से भरी बैठी थी। एक गन्ना हाथ में देख वह उबल पड़ी और उसे सन्त की पीठ में पूरे जोर से मारा।

गन्ने के दो टुकड़े हो गये। सन्त शान्त भाव था। घर में हम-तुम दो के कारण गन्ने को तोड़ा ही जाना था। तुमने जल्दी ही उस कार्य को पूरा कर दिया यह अच्छा हुआ। लो बढ़िया वाला टुकड़ा तुम ले लो। घटिया को मैं लिए लेता हूँ।

सन्त की उदार क्षमाभावना चर्चा जिसने भी सुनी आश्चर्य किया और साथ ही यह भी समझा कि क पक्ष अगर अनुपयुक्त हो तो दूसरा पक्ष अपनी शिष्टता से उस दोष का परिमार्जन कैसे कर सकता है?


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