सबसे बड़ा गौरव, मनुष्यत्व की प्राप्ति

November 1990

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पिता का स्वप्न टूट गया। सगे-सम्बन्धी अवाक् थे। मित्र-परिचित हतप्रभ रह गये उनके निर्णय पर। अभी भी विश्वास नहीं हो पा रहा था ऐसा भी हो सकता है कोई ऐसा भी कर सकता है। वह भी आज के जमाने में - जबकि धन, पद, स्वार्थ लूटने के लिए अफरा-तफरी मची हो। ऐसी आर्थिक स्थिति में यह सोच। पर सोच तो सोच है - उसका बाह्य दशाओं से कुछ ज्यादा रिश्ता नहीं। यह तो मन के खेत में उपजने वाली फसल है, जिसका अच्छा या बुरा होना खेत, संस्कारों के बीज और विचारों को खाद-पानी पर निर्भर करता है।

साधारण शिक्षक पिता- जैसे-तैसे घर का गुजारा चला पाते थे। पिता अपनी बड़ी सन्तान से बहुत आशाएँ संजोता है। सोचता है, यह उसका भार बटायेगा। साँसारिक दायित्वों में सहयोगी बनेगा। और जा जब .............।

तुलेन्द्र! एक मित्र ने उनका कन्धा झकझोरा- होश में तो हो।

“मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ।” शब्दों के साथ एक गहरी मुसकान देखकर ऐसा लगा- जैसे ओस से भीगे गुलाब ने अपनी पंखुड़ियाँ बिखेर दी हों।

“जरा सोचा- काका ने कितनी मुसीबत सहकर तुम्हें पढ़ाया है? क्या उसका यही परिणाम होना था? कहने वाला सही कह रहा था। कथन के साथ ही उनके अहसास के तार झनझना उठे। अभाव का कष्ट कितना मर्मान्तक होता है, इसकी उन्हें निजी अनुभूति थी। विद्यार्थी मित्र ने कहा तुलेन्द्र! उच्च शिक्षा इतने कम पैसे में भी - सपना हो सकती है - सच्चाई नहीं। उनका उत्तर होता - परिश्रमशील कम पैसे में भी अपना काम चला लेते हैं। अभाव उनकी विकास यात्रा में बाधक नहीं बनता।

और सचमुच वह दिन आज भी याद आता है - जब उनने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक उत्तीर्ण किया। फिर तो जैसे सिलसिला चल निकला। 1941 में नागपुर विश्वविद्यालय से बी. एस. सी. प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण कर मेरिट में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। इसके बाद तो जैसे हद हो गई - एम. एस. सी. (गणित) और आई. ए. एस.) दोनों में एक साथ आश्चर्यजनक सफलता। एम. एस. सी. में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान आने के कारण स्वर्णपदक मिला। साथ ही आई. ए. एस. में प्रथम स्थान की प्राप्ति के कारण उच्चाधिकारी की कुर्सी उनकी बाट जोह रही थी।

ऐसे में उभरा उनका निश्चय - उच्च प्रशासनिक पद को ठुकराने और आत्म परिष्कार एवं लोक सेवा के व्रत में व्रती होने का। मन से यादों की पूरी भीड़ सी गुजर गई। सामने बैठे मित्रगण उनको मौन देखकर सोच रहे थे - शायद अभी निश्चय में उलट फेर हो जाय। पर कहाँ?

इसके पीछे तो उनकी दीर्घकालीन साधना थी, वह सतत् अभ्यास था - जिसके द्वारा मन को प्रशिक्षित किया था। साधना क्या है? संस्कारों, आदतों- चिन्तन का नए सिरे से गठन। बेतरतीब उछल-कूद करने वाले मन का प्रशिक्षण। इसे किये बिना उच्चतर जीवन के लिए कदम बढ़ाना कहाँ सम्भव है? विद्यार्थी जीवन में यही तो किया था - उनने। जब सब विद्यार्थी उपन्यास, कहानियों और फिल्मी जीवन का आनन्द ले रहे होते, उस समय वह उपनिषदों का चिन्तन करते अथवा नागपुर रामकृष्ण मठ के साधुओं का सत्संग।

सद्विचारों के इसी सतत् प्रवाह ने उनको निष्कल्मष बनाया था। जीवन यात्रा के कितने कटु, तिक्त, मृदु अनुभवों से गुजरना पड़ा है उनको।

क्या सोचने लगे? कुछ तो समझो जिन्दगी को। मित्र ने फिर कुरेदा। उसकी वाणी ने उन्हें अतीत के सागर से उबार कर वर्तमान की धरती पर ला पटका। वह कह रहा था - यह भी कोई उम्र है, धर्म - साधने की।

“फिर कौन सी उम्र होती है धर्म साधने की? कुछ तुम्हीं समझाओ।” उन्होंने हँसते हुए पूछा।

अरे भाई! कलक्टर तो तुम हो ही जाओगे, बढ़िया शादी करना। काका का वंश चलेगा। ऐशो-आराम ठाठ-बाठ में उनकी भी जिन्दगी मजे से कटेगी। बुढ़ापे में धर्म भी कर लेना। उसने कुछ इस अन्दाज में कहा- जैसे धर्म अध्यात्म निहायत गैर जरूरी काम हों।

अच्छा! उनने आश्चर्य के अन्दाज में आँखें पसारी- अरे! पहले क्यों नहीं बताया? पहले समझाते तो शायद स्वामी विवेकानन्द, की बातें न मानकर तुम लोगों की ही मान लेता।

उपेक्षा ओर हँसी के बीच कही गई इन बातों से समझाने वाले का उत्साह मन्द नहीं पड़ा। हाँ उनके भाई अवश्य बिना कुछ बोले गम्भीरता से सुन रहे थे। इनको अपने बड़े भाई पर अटूट श्रद्धा थी। उनकी चारित्रिक दृढ़ता, तपस्वी जीवन इनके, बनने होने की सोचते थे।

बात हँसने की नहीं रामेश्वर, फिर से विचार करो इतना बड़ा ओहदा बार बार नहीं मिलता वह समझाने पर तुला था। जैसे तैसे उन्हें घर ले जाने के लिए आया था।

ओहदा - पद- यही सब है या और कुछ एक विरक्तिपूर्ण मुसकान उभरी और वातावरण में लीन हो गई पटवारी कलक्टर, मिनिस्टर, नेता हिन्दू मुसलमान, क्रिश्चियन सभी कुछ है, नहीं है तो सिर्फ इंसान। पदों की भीड़ में मनुष्य खो गया। हर कोई भूल गया कि वह मनुष्य खो गया हर कोई भूल गया कि वह मनुष्य है और इस नाते भी उसका कुछ कर्तव्य बनता है।

सुन रहे व्यक्ति ने चकित नेत्रों से उसकी ओर ताका। अब उसकी समझाने की शक्ति मन्द पड़ती जा रही थी। अपनी अक्ल उसे बोझिल लगने लगी थी।

“मनुष्य की जिन्दगी क्या है?” आस पास मठ के कुछ और ब्रह्मचारी खिसक आए थे। उनमें से एक सवाल उनकी ओर उछाला।

जिन्दगी एक चुनौती है, एक संग्राम है एक जोखिम है, उसे इसी रूप में अंगीकार किए बिना कोई चारा नहीं। वाणी के घट से छलकते यह वाक्य सूचित कर रहें थे कि यह परिभाषा उनकी स्वयं की अनुभूति है।

पता नहीं कैसे -उनके अन्तिम शब्द पास से गुजर रहें एक संन्यासी के कानों में पड़ गये। वह एक क्षण ठिठक कर बोले-जीवन को जोखिम मत- समझो। यह तो पंचम स्वर में गाया जाने वाला गीत है वह स्वप्न है जिसमें अपने को खोकर आनन्द का रसास्वादन किया जा सकता है। वह अवसर है जिसे गँवाया तो सब कुछ गुम। जीवन आनन्द है, प्रेम है, सौंदर्य है। वह सब कुछ है जो नियंता की इस सुविस्तृत सृष्टि में सर्वोत्तम कहा जाने योग्य है।” कहते हुए वह हवा की तरह एक ओर चले गये। छूट गयी एक सुवास जिसने उपस्थित लोगों के चिन्तन को मधुर गन्ध से भर दिया।

सभी चुप थे। कोई कहे तो क्या? घर वापस न लौटने का उनका निश्चय अटल था। ‘आत्मनो मोक्षार्थ - जगदा हिताय च’ के महान उद्देश्य के लिए वह समर्पित थे। आई. ए. एस. के पद से मनुष्य का पद बड़ा था - उनके लिए।

“भैया हम लोगों के लिए कोई आदेश, घर-परिवार के लिए कोई सन्देश?” दोनों भाइयों ने लगभग साथ-साथ कहा।

आत्मविश्वास और भविष्य के प्रति अटूट आशा यह दो साधन ऐसे हैं जिनके सहारे मनुष्य संकट की चुनौतियों को उज्ज्वल भविष्य में बदल सकता है।

“भाई अब मेरा अपना कुछ भी नहीं है, या इस पृथ्वी पर सब कुछ मेरा ही है। मैं यह भूल गया हूँ कि और घरों के बीच कभी मेरा भी एक घर था। जिसका कोई घर बार नहीं, उसकी की सारी दुनिया घर है। जिसने जीवन के बन्धनों को काट डाला है, उसी के हिस्से में सच्चा जीवन आया है। जो अबोध है, उसकी को पूर्ण शान्ति है। मेरी केवल यही इच्छा है श्री श्री ठाकुर मुझे अपना यंत्र बनायें और मैं मृत्यु के क्षण तक लोकहित में समर्पित रहूँ। इसी में मुझे जिन्दगी की सार्थकता अनुभव हो रही है।

“और तुम लोग एक क्षण के लिए पास खड़े सहोदर अनुजों की ओर देखा और बोले - “तुम्हारे लिए भी यही पथ खुला है।”

लोकहित में समर्पण को जीव की सार्थकता मानने वाले साधक थे - स्वामी आत्मानन्द। जिन्होंने मध्य प्रदेश के आदिवासी ग्रामीण अंचल को अपना कार्यक्षेत्र बना कर, असंख्यों के अन्तःकरण श्री रामकृष्ण देव के विचारों के प्रकाश से प्रकाशित किये। मानवीय भावनाओं की इस ज्योति ने पिछले वर्ष भले शरीर - छोड़ दिया हो, पर उसकी अमर सम्वेदना यथावत है।


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