अँधेरे में प्रकाश कहाँ से उभरे?

November 1990

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छोटे आदमी और थोड़े साधनों को देखते हुए मोटा अनुमान यही लगता है कि इनके बलबूते कोई हलके अस्थाई काम ही सम्पन्न हो सकते हैं। बड़े कार्यों के लिए, बड़ी योजनाओं के लिए भारी भरकम व्यक्तित्व एवं प्रचुर साधनों की व्यवस्था होने पर ही बात बनती है। इन दिनों प्रतिभाओं को, साधनों की आवश्यकता पूरी करने के लिये सरकारी अनुदान या संरक्षण के लिए ताकना पड़ता है। ऐसा भी होता है कि धनाध्यक्षों का आश्रम पाकर कोई बड़ी योजनाएँ बनें और वे प्रगति या सफलता की स्थिति तक पहुँचे, आम आदमी की मान्यता यही है। उत्साहवर्धक उद्यमी इन्हीं की छत्रछाया में पलते या बढ़ते देखे गये हैं इसलिए यह मान्यता और भी अधिक मजबूत होती है कि जिन योजनाओं के पीछे खड़े प्रतिभाशालियों का नेतृत्व संरक्षण नहीं है अथवा बड़ी पूँजी की व्यवस्था नहीं है उनके संबन्ध में यही अनुमान लगाया जाता है कि कोई शेख चिल्ली जैसा ताना बाना बुन रहा है। बड़े क्षेत्र के बड़े स्तर पर कोई बड़े काम कर सकना कदाचित उनके द्वारा न बन पड़े जिन्हें थोड़ा या छोटा समझा जाता है। यह अनुमान इसलिये भी सही प्रतीत होता है कि बड़ी योजनाओं को छोटे लोग थोड़े से सीमित साधनों के बलबूते पूरा कर सके हों, ऐसे उदाहरण दीख नहीं पड़ते। थोड़ी पूँजी वाला योजना पूरी कर सकेगा इस पर सहज विश्वास नहीं होता। इसी प्रकार जिनके पास सीमित साधन हैं उनने बड़े क्षेत्र में बड़े रचनात्मक काम करके दिखाये हों, ऐसा कम ही दृष्टिगोचर होता है। उनकी शक्ति, प्रतिभा, दूरदर्शिता पर भी सर्वसाधारण का विश्वास नहीं जमता। इसी प्रकार छोटों की प्रामाणिकता एवं संगठनात्मक सृजनात्मक सूझ-बूझ पर भी सन्देह किया जाता है और सोचा जाता है कि आपसी लड़-झगड़ में बेईमानी, चालाकी या नेतागिरी की ललक में यह लोग अपनी सीमित शक्ति को बरबाद कर देंगे और असफलता एवं उपहास के भोजन ही बनेंगे। इन दिनों की लोक मान्यता यही है। इस कारण यों तो हलके लोग कोई बड़े साहस करते ही नहीं करते हैं तो सहयोग के अभाव में उनकी गाड़ी बीच में ही चरमरा जाती है। इन मान्यताओं के रहते बड़े नेतृत्व एवं बड़े साधनों के उपलब्ध न होने पर प्रारम्भिक मान्यता यही बन जाती है कि अत्युत्साह का परिणाम निराशाजनक ही निकलेगा। जिस कार्य की सफलता पर विश्वास न हो, कौन कोई प्रोत्साहन दे और किस आधार पर कहीं से कोई बड़ी सहकारिता उपलब्ध हो? असंख्य उपयोगी योजनाओं को इसी कारण असफल ओर उपहासास्पद होता देखा गया है। इस निराशा के वातावरण में साधारण लोगों द्वारा कोई महत्वपूर्ण योजनाएँ न तो बनती हैं और न ही कहने योग्य सफलता अर्जित कर पाती हैं। जहाँ निराशा की ही बहुलता हो वहाँ कोई किस आधार पर बड़े कदम उठाये। बड़ी योजनाएँ हाथ में ले।

उपरोक्त वर्णन कुछ बहुत हद तक सही है, इतने पर भी वह पत्थर की लकीर नहीं है वर्चस्व और वैभव का कितना ही महत्व क्यों न हो पर यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग ही रहेगा कि मानवीय क्षमता, प्रतिभा, हिम्मत और लगन के उपयोग किन्हीं प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा किया जाय तो जिसे असंभव समझा जाता है वह संभव भी हो सकता है। महामानवों के आश्चर्यजनक कर्तृत्व इसी आधार पर ऐतिहासिक बने हैं। संसार में अगणित ऐसी घटनायें घटित हुई हैं जिनके पीछे न तथाकथित बड़े लोगों का हाथ रहा है और न कहीं से छप्पर फाड़ कर साधन ही टपके हैं। मनुष्य की वरिष्ठता यदि प्राथमिकता की कसौटी पर खरी उतरे, योजना में आदर्शवादिता का उच्चस्तरीय सम्मिश्रण हो तो सूझ बूझ में व्यावहारिकता का पुट हो तो वे व्यवधान भी हल हो जाते हैं जिनके कारण सामान्य स्तर पर उठाये गये कदमों के संबन्ध में असफलता की आशंका ही बनी रहती है। सत्य और तथ्य इस परिणति के साथ जी जुड़े हुए हैं कि मानवीय महत्ता का कोई मोल नहीं है। यदि कसौटी पर खरी उतर सके तो आशंकाओं को असफलताओं की कुकल्पना को अवास्तविक भी सिद्ध कर सकती है। जहाँ तथाकथित बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करते रहे है, वहाँ यह भी असंख्य अवसरों पर सही सिद्ध हुआ है कि प्रखर व्यक्तित्व और उच्चस्तरीय निर्धारणों में सहस्र हाथियों के बराबर बल होता है। वे असंभव को संभव में बदलने में असंख्य बार सफल हुए है।

पौराणिक गाथाओं में अगस्त्य के समुद्र सोख लेने, शेष जी द्वारा सिर पर पृथ्वी का भार वहन करने, नारद द्वारा विश्व में भावनात्मक कर देने, परशुराम द्वारा अनेकों बार विश्व कर देने परशुराम द्वारा अनेकों बार विश्व का “ब्रेन वाँश” करने भगीरथ द्वारा गंगा के सुविस्तृत क्षेत्र तक पहुँचाने जैसी अनेकों घटनाओं के उल्लेख हैं। जिनमें पूरी तरह मनुष्य द्वारा असंभव को संभव बना दिये जाने का आभास मिलता है। ऋषि युग में भारतीय लोक सेवकों द्वारा समस्त विश्व को अजस्र अभ्युदय से लाभान्वित किये जाने की घटनाओं से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं। सप्त ऋषियों ने सातों महाद्वीपों की सुव्यवस्था और प्रगतिशीलता के अभिवर्धन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाई थी। ध्रुव प्रह्लाद, दधीचि, व्यास, वशिष्ठ, जैसा के महान कर्तव्य अविस्मरणीय हैं। देवताओं पर संकट आने पर मनुष्य ही दशरथ, अर्जुन आदि सामर्थ्य वाले ही मानवी सहायता पहुँचाने के लिए पहुँचाने के लिए पहुँचे थे।

धर्म सम्प्रदायों, संस्थापकों और संचालकों ने सुविस्तृत क्षेत्रों के अगणित मनुष्यों को अपने प्रभाव से प्रभावित किया और विविध प्रचलनों का अनुयायी बनाया था। योद्धाओं के पराक्रम, महाभारत, रामायण आदि ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक पढ़े जा सकते हैं। बुद्ध का विशाल साहित्य सृजन, संगठन एवं विश्वभर में विचारक्रान्ति का जो सफल अभियान चलाया था उसकी जानकारी हर किसी को है। जैन धर्म के साधु और साध्वी जन मानस को परिष्कृत करने के लिए कितना तप और कितना प्रयास करते रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। सिख धर्म प्रचारकों के पुरुषार्थ किसी से छिपे नहीं हैं। सन्त काल में जन साधारण का मनोबल बढ़ाये रहने के लिए लिए जो प्रयत्न हुए हैं उनमें दुर्दान्त दस्युओं को तलाशने, कुंठित करने में जो प्रयास किया, उसने देश की देव संस्कृति को जीवन्त बनाए रहने में कुछ कम सफलता नहीं पाई। दार्शनिक क्रान्ति के पुरोधा शंकराचार्य की दिग्विजय को भुलाया नहीं जा सकता। नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालय के संस्थापक ज्ञान और विज्ञान का भण्डार जिस प्रकार भरते रहे हैं उसका अपना अनोखा इतिहास है।

चाणक्य, समर्थ रामदास आदि ने जो नर सहर उत्पन्न किए उनकी गाथा कैसे भुलाई जाय? प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, चन्द्रगुप्त जैसों ने आक्रान्ताओं के दाँत किस प्रकार खट्टे किये, वह शौर्य पराक्रम की अपनी अनुपम कथा गाथा है।

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों गाँधी, तिलक जैसी विभूतियों ने किस प्रकार लम्बे समय से चली आ रही पराधीनता को उखाड़ फेंकने के लिए कैसा प्रचण्ड जन मानस तैयार किया, यह अभी कल परसों की ही बात है। समाज सुधार के क्षेत्र में विवेकानन्द, दयानन्द ईश्वरचंद्र विद्यासागर राममोहन राय, विनोबा, जैसों के कर्तव्य भुलाए नहीं जा सकते। यह मानवी साहस और पुरुषार्थ ही है जिसने अपने-अपने समय की परिस्थितियों का कायाकल्प जैसा कर दिया। न केवल पुरुष वरन्, इस देश की महिलाएँ भी विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे कीर्तिमान खड़े करती रही हैं जिन्हें देख कर यही कहना पड़ता है कि अबला समझी जाने वाली नारियाँ किस प्रकार सिंहनियों से बढ़ कर अपनी गरिमा का परिचय देती रही है।

भारत से बाहर भी मानवी पुरुषार्थ के अनेकों प्रतीक संसार के कोने-कोने में खड़े हैं। मिश्र के पिरामिड, चीन की दीवार, पनामा और स्वेज नहरें बताती हैं कि मनुष्य के लिए दुर्लभ कुछ भी नहीं है। नैपोलियन कोलम्बस, अशोक, हर्षवर्धन आदि की अपनी अपनी गौरव गाथाएँ हैं। जो बताती है कि हाड़-माँस का पुतला समझा जाने वाला मनुष्य जब अपने ओजस्, तेजस् और वर्चस का परिचय देता है तो वह कितना प्रबल, प्रखर और प्रचण्ड सिद्ध होता है?

प्रश्न इन दिनों की विपन्नताओं, समस्याओं और विभीषिकाओं का है। जिसके कारण ज्ञान-विज्ञान और वैभव का धनी कहाने वाला मनुष्य कितने अधिक संकटों में फँस गया है। प्रगति और अवनति में से किसी को भी किसी प्रकार चुना जा सकता है। इसका प्रणाम परिचय विगत दो शताब्दियों में देखने को मिला है। चौंकाने वाले युद्ध कौशल में प्रवीणता का परिचय देने वाली दुर्बुद्धि ने इसी शताब्दी में दो विश्व युद्ध और सैकड़ों क्षेत्रीय युद्ध स्तर के खड़े किए जिनमें धन जन की अपार हानि सहनी पड़ी। औद्योगीकरण के नाम पर खड़े किए गए कारखाने और दैत्याकार वाहन समूचे वायुमण्डल को किस प्रकार प्रदूषण से भर चुके हैं यह आज सबसे बड़ी चिन्ता का विषय है। पानी विषाक्तता से भरता जा रहा है। रासायनिक खाद और कीट मारक औषधियों का छिड़काव पृथ्वी की उर्वरता की भयानक बनाता जा रहा है। बढ़ते तापमान से ध्रुव पिघल जाने जैसे संकट खड़े हो रहे हैं। अणु उपकरणों का विकिरण जीवधारियों के लिए महाविनाश का संकेत दे रहा है।

बढ़ती हुई जनसंख्या का भार वहन करने में पृथ्वी असमर्थ हो रही है। गरीबी और अमीरी दोनों ही अपने अपने कीर्तिमान स्थापित कर रही है। अपराधों और अनाचारों की ऐसी बाढ़ आई हुई है कि हर कोई अपनी छाया से ही डरने लगा है। आशंकित और आतंकित जन मानस अनिश्चितता और अराजकता जैसे अनिश्चितता से शत्रु का घात करना आज का प्रचलन बन गया है। कुरीतियों और अवांछनीयताओं के बीच प्रगति का दावा करने वाला मनुष्य अवगति के घोर गर्त में गिरता हुआ बुरी तरह कराह रहा है।

गिरना सरल है। उठना कठिन। छत पर से फेंका हुआ ढेला सेकेण्डों में जमीन पर आ गिरता है। पानी ढलान की ओर बिना किसी प्रयास के अनायास ही बढ़ने लगता है। किसी को भी हलका सा धक्का मार कर गिराया जा सकता है। पर गिरों को उठाने के लिए सशक्त साधन जुटाने पड़ते हैं। पिछले दिनों मनुष्य ने गिरने और गिराने की नीति अपनाई है। अणु विज्ञान और वैभव असीम उपार्जन भी मात्र पतन और पराभव का कारण बनकर रह गया है। पूर्वजों की तुलना में सुविधा साधनों के सम्पादन में निश्चय ही प्रगति हुई है? पर साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि दुर्गति की प्रतिक्रिया भयावह दुर्गति के रूप में सामने आई है। भ्रष्ट चिन्तन ने दुष्ट आचरण को जन्म दिया है। तदनुसार परिस्थितियाँ भी ऐसी बन गई हैं जिन्हें विकट और विपन्न ही कह सकते हैं।

प्रश्न यह है कि सारे गिरे को उबारे कौन? ऐसा चिन्तन चरित्र और व्यवहार बन नहीं पड़ रहा है जिससे हर क्षेत्र में फैली हुई विकृतियों का निराकरण और समाधान बन पड़े।

इन दिनों आवश्यकता इसी बात की अनुभव हो रहीं है कि पटरी से उतरे इंजन को यथा स्थान उठाकर रख देने वाली क्रेन कहाँ से मिले? दल-दल में फँसे हुए हाथी को उसके सहचरों का जत्था कहाँ से आए जो फँसे को खींच कर किनारे तक पहुँचाए।

मान्यता बन गई है कि हर दिशा पराभव को प्रश्रय मिल रहा है। ऐसी प्रतिभाएँ दीख नहीं पड़ रहीं जो नरक से उबारने और स्वर्ग तक पहुँचाने का दावा कर सकें, साहस दिखा सकें। मान्यता यह बन गई कि यत्न ही स्वाभाविक है। उसे गतिशील बनाने वालों की बहुलता ही भरी पड़ी है। ऐसी दशा में वह अनहोनी कैसे घटे कि असमर्थ, दुर्बल, देय और साधनहीन साधारणजनों के द्वारा ऐसे प्रयत्न कैसे बन पड़े जिसके द्वारा अभ्युदय के प्रयत्न बन पड़ने की आशा की जा सकें। सघन अंधकार के वातावरण में आज कहाँ से प्रकाश किरण उगे इसकी हर किसी के द्वारा प्रतीक्षा की जा रही है।


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