“प्रभु! आज इस दीन का गृह श्रीचरणों से पवित्र हो।” वैशाली के दण्डनायक करबद्ध हो तथागत के सम्मुख उपस्थित थे। उन्होंने अपना रथ-उपवन के बाहर हो छोड़ दिया था। श्रद्धा से प्रातःकालीन प्रवचन समाप्त होने पर वे खड़े हो गए थे और भगवान बुद्ध ने उनकी ओर दृष्टि उठाई, उनका कण्ठ गदगद हो उठा। “भिक्षु संघ का स्वागत करने का सौभाग्य माँगने आया है यह जन आपके समीप।”
“भन्ते! बुद्ध कृपण की भिक्षा स्वीकार नहीं करते। पहले भी किसी बुद्ध ने ऐसा नहीं किया है।” पता नहीं क्या बात हुई, दण्डनायक के मुख पर दृष्टि पड़ते ही तथागत के नेत्रों में एक अद्भुत तेज आ गया। केवल चिरंजीवी आनन्द ने लक्षित किया कि प्रभु आज कुछ असाधारण कह रहे हैं। तथागत का स्वर गम्भीर था। “दान करना चाहते हो तो दान का मर्म समझो और श्रेष्ठतम दान करो।”
कृपण की भिक्षा बुद्ध स्वीकार नहीं करते। उपस्थित गणनायकों तथा सम्मान्य नागरिकों ने एक दूसरे की ओर देखा। भिक्षुवर्ग में भी सब गम्भीर नहीं थे। अनेक दृष्टियाँ उठी दण्डनायक की ओर। उनमें घृणा-तिरस्कार अवहेलना के भाव उठे यह कृपण है।
दण्डनायक दो क्षण हतप्रभ रह गए। उनकी मुखकान्ति लुप्त हो गई। शरीर काँपने लगा। सबको भय लगा वैशाली का परम पराक्रमी उग्रतर दण्डनायक क्रुद्ध होगा। कुछ बखेड़ा उठेगा! कुछ भी तो नहीं हुआ इस प्रकार। दो क्षण पश्चात् दण्डनायक का अत्यन्त हताश स्वर सुन पड़ा जैसी प्रभु की आज्ञा! उनका मस्तक किंचित् झुका वह शीघ्रता से मुड़कर उपवन के बाहर हो गये।
“प्रभु! वह रो पड़ा।” चिरंजीव आनन्द प्रभु के पृष्ठभाग में खड़े थे। उनकी दृष्टि के ठीक सम्मुख थे दण्डनायक। अतः उसके नेत्रों में जो अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक अवरोध करने पर भी बिन्दु झिलमिला उठे थे, आनन्द से वे छिपे नहीं थे। अब उन उदार का हृदय द्रवित हो उठा था और वे प्रभु से प्रार्थना कर रहे थे। आपकी अस्वीकृति ने उसे वेदना से झकझोर दिया है। प्रभु प्रातः उस पर कृपा कर सकते हैं।
एक दिन से अधिक का निमन्त्रण तथागत स्वीकार नहीं किया करते। भिक्षु कल और परसों का प्रबन्ध करने लगे इसे वे उनके त्यागपत्र से च्युत हो जाना मानते हैं। यह खूब जानते हुए आनन्द ने प्रार्थना की थी। वे इतना ही चाहते थे कि कोई ऐसा उत्तर मिले, जिससे उस संतप्त हृदय को आश्वासन प्राप्त हो जाय। यह तो निश्चित है कि दण्डनायक दान के मर्म को खोजेगा कृपणता के कलंक को धोने की चेष्टा करेगा पर कितनी? प्रश्न अतल में खोने लगा।
“उसका सौभाग्य उसे यहाँ ले आया।” भगवान अभिताभ के नेत्र अर्धोन्मीलित हो चुके थे। वे जैसे कहीं दूर से कुछ कह रहे हों। “उसके आगत को न जानकर तुम दुखी हो रहे हो।”
कुछ होने वाला है निश्चित ही कुछ अद्भुत दान का मर्म अब उद्घाटित होगा। आनन्द अब शान्त हो गए, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य का स्पष्टीकरण तथागत का स्वभाव नहीं है, वे संकेत भी यदा कदा ही देते हैं।
वैशाली का प्रचण्ड दण्डनायक -सम्मानित गणश्रेष्ठ भी उससे भय खाते हैं। वह नगर में जिस ओर से निकल जाये महान श्रेष्ठी भी अपने आसनों से उठकर उसे अभिवादन करते हैं। उस उग्रतेजा दण्डनायक का अपमान। गणनायकों, नागरिकों, श्रेष्ठियों, भिक्षुओं से भरी सभा में उसे कृपण का सम्बोधन! गौतम के शत्रु इससे सन्तुष्ट हुए। उन्होंने सैनिकों के प्रधान को भड़काने का अवसर पा लिया था।
“स्वामी!” साथ के सैनिक स्वतः उत्तेजित थे। दण्डनायक के लौटते ही उनका नायक सम्मुख आया। उसके नेत्र अंगार हो रहे थे मुख अरुण हो गया “भिक्षु गौतम अब अत्यधिक धृष्ट हो गया है।”
“भद्रसेन! तुम भगवान को अपशब्द कहने की धृष्टता कर रहे हो।” दण्डनायक ने दृष्टि कठोर कर ली। “केवल इस बार तुम्हें क्षमा किया जाता है।”
“आपका अपमान किया उस .............।”
“चुप रहो! झिड़क दिया दण्डनायक ने। शूर को कुछ समझदार भी होना चाहिए। मैं अपनी बात स्वयं समझ सकता हूँ।” वह सोचता हुआ रथ पर जा बैठा। सैनिक मुँह बाए खड़े थे। गौतम के शत्रुओं को कोई समय नहीं मिला।
घर पहुँचने पर चिन्तन की गति थमी नहीं अविराम बढ़ती गई। दान सत्कार्य में सत्प्रयोजन के लिए स्वयं की शक्तियों का नियोजन यही न। विचारों का घुमड़न क्रिया में बदले नहीं रहता। चिन्तन की तीव्रता का मतलब है गतिशील कर्म। ऐश्वर्य लुटने लगा पत्नी सहयोगिनी थी। दीन, दरिद्र, भिखारी, आर्त सभी कृतार्थ हो रहे थे। साधनों के बदले आशीष बरस रही थीं। चतुर्दिक् ख्याति फैल गई।
ख्याति के स्वर आनन्द के कानों तक पहुँचे। उनकी वाणी ने उसे बुद्ध तक पहुँचाया। वह सुनकर मुस्कराए-सम्पदा को लुटा फेंकने का नाम तो दान नहीं है। पात्र-कुपात्र का विचार किए बिना संचित साधनों को भावुकतावश फेंकने लगना, अर्जित पूँजी को अंधेरे कुएँ में डालना है जिसके सत्परिणाम कम दुष्परिणाम अधिक देखने में आते हैं। और समय आने पर सत्पात्र के आवाहन को अनसुना कर देना साँप की तरह कुण्डली बनाकर अर्जित साधनों पर बैठ रहना पास आने वाले को काटने दौड़ना उससे कहीं अधिक घातक हैं। आनन्द मौन हो उनकी वाणी सुनते रहे। दान का मर्मोद्घाटन अभी बाकी था।
अगले दिन प्रातःकालीन प्रवचन की समाप्ति पर सबने देखा कि कल की भाँति दण्डनायक आज भी कर बुद्ध सम्मुख खड़े हैं।
“भन्ते! बुद्ध कृपण की भिक्षा स्वीकार नहीं करते। पहले भी कभी किसी बुद्ध ने ऐसा नहीं किया है। आज दण्डनायक को प्रार्थना करने का भी अवकाश नहीं दिया।” “तुम दान करो प्रथम। प्रथम कोटि का दान दे सकने का साहस जुटाओ”
जैसी प्रभु की आज्ञा। बुद्ध की वाणी ने उपस्थित जन समुदाय को इतना आश्चर्यचकित नहीं किया, जितना चकित किया दण्डनायक की शान्त स्वीकृति ने। दण्डनायक ने अपने सर्वस्व दान की चर्चा तक नहीं की। उन्होंने तो कल की भाँति मस्तक झुकाया और शीघ्रतापूर्वक लौट पड़े अपने रथ की ओर।
चिरंजीव आनन्द आज भी प्रभु के पृष्ठप्रान्त में थे। आज भी उनके सम्मुख ही थे दण्डनायक। आज उनकी दृष्टि बड़ी सावधानी से उनके मुख पर स्थिर थी। आज नेत्रों में आँसुओं की जगह अपार गाम्भीर्य था। गणनायक सम्मान्य नागरिक श्रेष्ठिवर्ग, भिक्षुगण- आज कोई उपहास या अवहेलना पूर्वक उनकी ओर नहीं देख सका। आज सबके नेत्र प्रभु की ओर उठ गए। प्रभु इन्हें कृपण कहते हैं? क्या रहस्य है तथागत के इस अद्भुत व्यवहार का? वैशाली के दण्डनायक से और किस दान की उन्हें आशा है?
दूसरी ओर दण्डनायक के मन में मन्थन की गति अविराम थी। सत्कार्य में सत्प्रयोजन के लिए स्वयं की शक्तियों का नियोजन दान है। पर सत्कार्य और सत्प्रयोजन क्या है? इसका निर्धारण कौन करे? टिक-टिक करती चिन्तन की सुई यहाँ आकर अटक गई। यह निर्धारण तो युगावतार ही कर सकते हैं युगद्रष्टा से ही सम्भव है यह महान निर्णय। उन्हें स्वयं की भूल समझ में आ रही थी। सच अभी तक तो दान के नाम पर तो सिर्फ अहं का पोषण रहा। नाम को फैलाने यश को बटोरने की ओछी शुरुआत भर हुई। ओह! मन प्रायश्चित से भर उठा और स्वयं की शक्तियाँ क्या हैं? कहाँ है, इनका स्रोत? अन्तराल के किसी के उभरते इन सवालों के साथ जवाब भी डालें, शक्तियों के मूल हैं श्रम और समय। इनका स्रोत हैं स्वयं का व्यक्तित्व। तब तो श्रेष्ठतम दान है ............ कुछ और सोचते हैं इतने में सहधर्मिणी भागती हुई आयी। उल्लास और उत्साह के अतिरेक में वह हाँफ रही थी बड़ी मुश्किल से कह सकी, स्वयं प्रभु द्वार पर पधारे हैं।
कानों में जैसे संजीवनी का घोल पड़ा। वह धीरे से उठे पत्नी का हाथ पकड़ा द्वार पर आये। चरणों में प्रणति निवेदन करते हुए बोले, “प्रभु सम्पत्ति आपकी निवास आपका और हम दोनों आपके।”
महादान! का यह स्वरूप देख सभी आश्चर्यचकित थे। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सभी के आश्चर्य के आवरण को तोड़ते हुए स्वयं युगावतार की वाणी गूँजी सृष्टि के इतिहास में युगों बाद विरले क्षण आते हैं जब पराचेतना स्वयं मानव से दान की गुहार करती हैं। ऐसे में रंग-बिरंगे पत्थर धातुओं के टुकड़ों की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है स्वयं के श्रम और समय का दान। और इससे भी कहीं श्रेष्ठतम है स्वयं का स्वयं के व्यक्तित्व का दान। दान के ये तीन प्रकार श्रेष्ठ- श्रेष्ठतम हैं। उस दिन सांयकाल भिक्षु संघ में एक भिक्षु और एक भिक्षुणी बढ़ गई। जिसे संघ ने महानाम और क्षेमा के नाम से जाना। भगवान स्वयं उन्हें समझाते हुए कह रहे थे “धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए समर्पित परिव्राजकों लोक जीवन को अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा हे मानव! उठो दान के मर्म को समझ। जो कुछ है उसी से नहीं कुछ है तो स्वयं से ज्योति का सत्कार करो। नवयुग तुम्हारे द्वार तक जयघोष करता आ जायेगा।