गायत्री तीर्थ में अभिनव महाकुम्भ सम्पन्न

November 1990

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अद्भुत, अभूतपूर्व, ऐतिहासिक बस यही शब्द अभिव्यक्ति के रूप में उन सबके मुख से निकल रहे थे, जो विगत 1 से 4 अक्टूबर के मध्य आयोजित विराट संकल्प-श्रद्धांजलि समारोह में उपस्थित थे। जैसा शानदार जीवन इस मिशन के संस्थापक, संचालक ने जिया, उतने ही शानदार ढंग से उनके कर्तव्य व्यक्तित्व को एक विराट समुदाय द्वारा श्रद्धांजलि व्यक्ति की गयी। यह श्रद्धांजलि महत्वपूर्ण इसलिए थी कि इसके साथ वे पुनीत संकल्प जुड़े थे जिनके माध्यम से शिष्य समुदाय ने परोक्ष में सूक्ष्मीकृत अपनी गुरुसत्ता को विद्या-विस्तार के पुण्य प्रयोजन के कार्यों को आगे बढ़ाते रहने का सुनिश्चित आश्वासन दिया।

भीड़ तो रैलियों में भी होती है, चुनावी सभाओं में थी, किन्तु ऐसी अनुशासित संकल्पनिष्ठ सृजन सैनिकों की छावनी व उनके क्रिया−कलाप पहली बार हिमालय के द्वार पर स्थित हरिद्वार नगर में प्रबुद्ध गणमान्य नागरिक, अधिकारीगण एवं जन सामान्य द्वारा पैनी दृष्टि से देखे गये। बिना किसी सरकारी सहायता के सिर्फ अपने बलबूते समग्र तैयारी अपनी गुरुसत्ता को समर्पित समुदाय किस प्रकार कर सकता हैं, इसका एक अनूठा उदाहरण पूरे उत्तर भारत की जनता को पिछले दिनों देखने को मिला। शिक्षकों से लेकर कृषक तथा चिकित्सकों-इंजीनियरों से लेकर न्यायाधीश, आई. एस. एस. अधिकारी तक इस मिशन से जुड़े हैं। इनमें से बीस हजार से अधिक स्वयं सेवक के रूप में 15 सितम्बर से ही आ गए थे एवं निष्ठापूर्वक सारे कार्यक्रम की तैयारी में लगे थे। बिना किसी पद या शिक्षा, जाति-वर्ण के पूर्वाग्रह के सभी एकजुट होकर संघशक्ति की महत्ता प्रतिपादित करने के निमित्त लगे थे।

इ.पी.टेण्ट, शामियाने, जल, बिजली आदि की व्यवस्था, ऊबड़-खाबड़ स्थानों की सफाई, विशाल भोजन-भट्ठियों का निर्माण आदि सभी काम स्वयंसेवी स्तर पर किये गए। पारस्परिक तालमेल बिठाकर सारे काम इस तरह पूरे होते चले गए कि उन अधिकारियों को भी हतप्रभ रह जाना पड़ा जो विशाल भूखंड की सफाई को न्यूनतम छह माह का काम मानते थे। प्रकृति ने भी जमकर परीक्षा जी। सामान्यतया मानसून की वर्षा 10-12 सितम्बर के बाद इस और नहीं होती। वैसे भी इस औसत से अधिक वर्षा पहले ही हो चुकी थी उम्मीद थी कि वर्षा व्यवधान उत्पन्न नहीं करेगी किन्तु परोक्ष शक्तियाँ संकल्प सिक्त को कसौटी पर कसने को जो बैठी थी। 21 सितम्बर तक रुक-रुक कर पानी बरसता रहा किन्तु एक भी व्यक्ति अपने संकल्प से डिगा नहीं। सप्तर्षि आश्रम के समक्ष स्थित विश्वामित्र नगर में रहने वाले स्वयं सेवक गायत्री मंत्र का जाप करते हुए पानी की निकासी की व्यवस्था करते रहे व सभी का मनोबल बढ़ाते रहे। पानी को तो मार्ग चाहिए था एवं वह उसमें सुगम मार्ग से ढूँढ़ा तो उसी नगर से वह तीव्र प्रवाह से बहा ताकि शीघ्र ही गंगाजी तक पहुँच सके। इस अंतिम परीक्षा के बाद रुका पानी फिर यज्ञ समापन के बाद अभिसिंचन हेतु बहुत दिन बाद तेजी से बरसा व सारे आयोजन स्थल की सफाई कर गया।

एक और परीक्षा सभी परिजनों की मार्ग में ली जा रही थी। सभी कार्यक्रम में पहुँचने को आतुर थे किन्तु आंदोलनों के कारण अधिकाँश रेले चल नहीं रही थीं, विशेष रेलें स्थगित कर दी गयी थी तथा बस सेवा भी पूरी तरह प्रभावित थी। इसके बावजूद सारी प्रतिकूलताओं से गुजरते हुए आने का ताँता लगा ही रहा एवं तीस सितम्बर की रात्रि को हरिद्वार नगर में मात्र इस कार्यक्रम के लिए आए पाँच लाख परिजन पंजीकृत किये जा चुके थे स्थानीय लोगों के लिए इतनी विशाल अनुशासित भीड़ का जुटना एक सुखद आश्चर्य था क्योंकि सभी कुछ सामान्य चल रहा था। कहीं स्थानीय यातायात में बाधा नहीं, कहीं कोई कानून व्यवस्था की गड़बड़ी नहीं। एक लाख परिजनों की रोलिंग भीड़ नित्य आती व जाती रही। सारा हरिद्वार पीले वस्त्र पहने, पीत दुपट्टाधारी स्त्री-पुरुषों से पटा हुआ था। एक प्रकार का बिना ड़ड़ड़ड़ का महाकुम्भ स्वतः आयोजित हो चुका था। ऐसा अनुमान है कि जितने व्यक्ति कार्यक्रम में आए उनसे दुगुने वे थे जिनने रास्ते की कठिनाइयों व नित्य के समाचार सुनकर अपना रिजर्वेशन या आना स्थगित करने का निर्णय मन मसोस कर लिया। अगणित पत्र कार्यक्रम के दौरान व बाद उनके आए हैं जो इन्हीं कारणवश आने का साहस जुटा न पाए पर मन से पूरी तरह कार्यक्रम में साथ रहे।

सुव्यवस्थित ढंग से ठहराने का प्रबन्ध किया गया था। पूरे हरिद्वार नगर की पंद्रह मील की लम्बाई व आठ मील की चौड़ाई में कनखल से मोतीचूर तक पंद्रह हजार से अधिक छोलदारियाँ, इ.पी. टेण्ट, शामियाने लगाकर चौबीस नगर बसाए गए थे। अतिरिक्त व्यवस्था हेतु अनुरोध किया गया तो सभी आश्रमों ने युगपुरुष को श्रद्धांजलि देने हेतु अपने द्वार खोल दिये एवं अस्सी हजार से अधिक व्यक्ति हरिद्वार भर के आश्रमों में ठहरे। जो कभी अपने बैडरूम में फोम के गद्दों में सोते थे, वे स्वेच्छा से पुआल पर टेण्टों में सोए तथा भूमि के संस्कारों से अनुप्राणित हुए। यह श्रद्धा की ही चमत्कारी परिणति है कि सब बिना किसी कठिनाई के निर्धारित स्थान में समा गए व नियमित कार्यक्रमों में भाग लेते रहे।

कार्यक्रम का शुभारंभ प्रातः ब्रह्मबेला में पूज्य गुरुदेव के जीवन वृत्त पर बनी एक विशाल प्रदर्शनी के वंदनीया माताजी द्वारा उद्घाटन के माध्यम से हुआ। दीप प्रज्वलित कर व उसका अवलोकन कर 1100 फीट की तीन कतारों में विनिर्मित इस प्रदर्शनी को वंदनीया माताजी ने जन समुदाय के लिए खुला घोषित किया। इसके पश्चात् वे ब्रह्मर्षिनगर के विशाल मंच पर पहुँची। झण्डारोहण किया गया तथा एक विशाल मशाल प्रज्वलित की गयी। कलशपूजन के पश्चात् 1008 कलशधारी शक्ति स्वरूपा देवियों की अगुआई में एक विशाल शोभायात्रा शाँतिकुँज के समीप स्थित इस विशाल नगर (प्रवचन सभागार) से निकली। प्रबंधन मंच के समीप ही पूज्य गुरुदेव का एक साठ फीट ऊँचा विशाल चित्र लगाया गया था।

इस शोभायात्रा में सर्व धर्म समन्वय, ऋषिपरंपरा, पूज्यवर की जीवनवृत्त, कुरीति उन्मूलन, सत्प्रवृत्ति संवर्धन, यज्ञ व पर्यावरण तथा मिशन के दस सूत्री कार्यक्रम संबंधी झाँकियाँ स्थान-स्थान पर थीं व जन आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थीं। यह अनुशासित सुव्यवस्थित जुलूस हरिद्वार नगर से होते हुए निकला। हर की पौड़ी पर इसने विराम लिया। ब्रह्मकुण्ड से पीत वस्त्रधारी बहनों ने कलश में जल भरा व पुनः अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गई। चौदह किलोमीटर लम्बा यह जुलूस प्रातः 7 बजे रवाना हुआ था व मध्याह्न साढ़े बारह बजे याज्ञवल्क्यनगर पहुँचा जो सप्तर्षि आश्रम के समीप महर्षि याज्ञवल्क्य की तपःस्थली में विनिर्मित किया गया था। यहीं 1008 कुण्डों की भव्य यज्ञशाला बनायी गयी थी। कलशों को यही विधिविधान से स्थापित कर प्रातःकाल के कार्यक्रम को विराम दिया गया। चौदह मील पैदल चलने के बावजूद भी लाखों लोगों का समुदाय भोजनोपरान्त प्रदर्शनी देखने, साहित्य स्टॉल में युग साहित्य लेने व पारस्परिक परिचय, जानकारियों के आदान-प्रदान में लगा रहा।

संध्याकाल में युग गायन के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हरिद्वार-ऋषिकेश मार्ग पर अवस्थित प्रबंधन सभागार में हुई। शाँतिकुँज के प्रतिनिधियों के प्रारम्भिक उद्बोधन के बाद वंदनीय माताजी का प्रेरक ओजस्वी प्रवचन हुआ। उपस्थित समुदाय ने ब्राह्मणत्व की व्याख्या सुनी व ब्रह्मनिष्ठ लोकसेवी आत्माओं के उत्पादन का ऋषिसत्ता का संकल्प जाना। सभी के मन में यह ललक थी कि इस दिशा में हम क्या कुछ कर सकते हैं, अपनी लौकिक महत्त्वाकाँक्षाओं पर कड़ा नियंत्रण रखते हुए समाज हितार्थ अपनी विभूतियों, उपार्जन व समय का अधिक से अधिक अंश मिशन के सदुद्देश्यों के निमित्त लगा सकते हैं, यह प्रत्यक्ष मार्गदर्शन दिया जाय। अगले दिन के लिए यह निर्धारण छोड़ रात्रि 100 पर वीडियो फिल्म पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व व कृतित्व पर बनायी गयी थी। पहले दिन “युगपुरुष” नामक एक घण्टे की फिल्म 300 इंच के चार बड़े पर्दों, चार वीडियो रथों तथा 100 टेलीविजन सैटों के माध्यम से सारे समुदाय ने देखी। अनेकों को पूज्यवर के जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंग पहली बार देखने को मिले।

पूरी नगरी में बसाए गए विभिन्न नगरों में जिस प्रकार प्रकाश की व्यवस्था थी, उससे रात्रि में भी शहर से छः मील दूर कभी नीरद रहने वाले क्षेत्र में भी जंगल में मंगल जैसी स्थिति नजर आ रही थी। संकल्पित साधकों ने अगले दिन प्रातः 3.30 से दिनचर्या आरंभ की। प्रातः ध्यान साधना के बाद 1008 कुण्डीय गायत्री महायज्ञ आरंभ हुआ जो 11.30 तक अनवरत चलता रहा। इसमें प्रायः अढ़ाई लाख परिजनों ने पर्यावरण संशोधन एवं सूक्ष्मजगत के परिशोधन हेतु वनौषधियों की गायत्री मंत्र के साथ आहुतियाँ दीं। साथ-साथ शाँतिकुँज के साथ नई खरीदी गई भूमि, जहाँ देवात्मा हिमालय एवं स्मृति उपवन विनिर्मित होना है, में अखण्ड गायत्री जप एवं संस्कारों का क्रम नियमित चलता रहा। पुंसवन, जन्मदिवस, अन्नप्राशन, विद्यारम्भ, नामकरण, मुण्डन, यज्ञोपवीत, विवाहदिवस तथा श्राद्ध-तर्पण संस्कार नित्य संपन्न होते रहे एवं इस निःशुल्क व्यवस्था से पचास हजार से अधिक परिजन लाभान्वित हुए। उस भूमि को जो पूर्व संस्कारित है, प्रचण्ड प्राण ऊर्जा से अनुप्राणित करने हेतु साधना संस्कारों के बीजारोपण के निमित्त अखण्ड गायत्री जप की व्यवस्था की गयी थी। चारों दिन यह सतत् चलती रही। इसी के साथ प्रबंधन सभागार में वंदनीया माताजी द्वारा दीक्षा दी गयी। इस कार्यक्रम में प्रतिदिन पचास हजार से अधिक परिजन उपस्थित थे। सभी ने वंदनीया माता जी के साथ गायत्री मंत्र का उच्चारण कर ऋषि परम्परा से अपना सम्बन्ध जोड़ा।

मध्याह्न में कार्यकर्ता गोष्ठियाँ जगह-जगह विभिन्न नगरों में आयोजित की गयीं। इनका उद्देश्य था-पूज्य गुरुदेव का उज्ज्वल भविष्य के लिए एक महाकाल की साझेदारी का आमंत्रण जन-जन तक पहुँचाया जाय। युगसन्धि साधना में भागीदारी, चिन्तन-मनन स्वाध्याय का क्रम अपनाना तथा छोटे-छोटे दीपयज्ञों द्वारा जन-जन को युगपरिवर्तन की विचारधारा से अनुप्राणित करना, यही त्रिविध उद्देश्य इन कार्यकर्ता गोष्ठियों का था जो तीनों दिन टुकड़ों-टुकड़ों में पूरा होता चला गया। संध्याकाल में वंदनीया माताजी के उद्बोधन के पूर्व गायत्री तपोभूमि के व्यवस्थापक पण्डित लीलापत जी शर्मा का प्रेरक उद्बोधन हुआ। अपनी ओजस्वी शैली में पं. लीलापत शर्मा ने पूज्य गुरुदेव के विद्या-विस्तार कार्यक्रम के विस्तार हेतु उनके लिखे साहित्य को उन सभी क्षेत्रों तक पहुँचाने की प्रेरणा दी, जहाँ अभी मिशन का आलोक नहीं पहुँच पाया हैं। वंदनीया माता जी के उपासना, साधना, आराधना परक त्रिविध अध्यात्म प्रधान प्रसंगों, पर उद्बोधन इसके पश्चात् हुआ। “ऋषिचिन्तन” नाम फिल्म के साथ ही कार्यक्रम समाप्त हुआ।

तीसरा दिन अतिविशिष्ट था। इस दिन सामूहिक गायत्री महायज्ञ के साथ-साथ 301 जोड़ों के आदर्श विवाह भी थे। यों 1008 जोड़ों के दहेज रहित विवाह संस्कारों की घोषणा की गई थी किन्तु अपरिहार्य कारणवश कई परिजन कार्यक्रम में आने की व्यवस्था नहीं बना पाए। सभी जाति, वर्णों, वर्गों के युवा जोड़े इस विराट यज्ञ में सम्मिलित हुए। एक साधनहीन कृषक से लेकर एक पूँजीपति का लड़का आज आदर्श विवाह पद्धति द्वारा दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर रहा था। दहेज विरोधी आन्दोलन इस मिशन का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम रहा है। नगर व प्राँत के पत्रकारगण, दूरदर्शन व आकाशवाणी के प्रतिनिधि इस कार्यक्रम को देखने आए थे। मध्याह्न 12.30 पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम श्री सत्यनारायण रेड्डी ने पधार कर अपने आशीर्वचन उपस्थित समुदाय के सम्मुख कहे व इसके साथ ही प्रातःकालीन सभा समाप्त हुई। इसी सभा में प्रातः वंदनीया माताजी द्वारा गुरुपरम्परा में दीक्षित होने तथा चैतन्य नगर में संस्कार सम्पन्न होने का क्रम चलता रहा।

भोजन व दोपहर की गोष्ठियों के बाद शाम की सभा आरंभ हुई। वंदनीया माता जी के प्रारंभिक उद्बोधन के बाद महामहिम राज्यपाल महोदय श्री रेड्डी ने उपस्थित समुदाय को दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन व सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त लगे रहने हेतु भूरि भूरि बधाई दी एवं गुरुदेव के समाज निर्माण के कार्यक्रम को एक युगान्तरकारी अभियान बताया। उनके उद्बोधन के पश्चात् भी जनसमुदाय के आने का क्रम चालू था व शाम 6.30 बजे दीपयज्ञ आरंभ होने तक पूरा विशाल सभागार खचाखच भर चुका था। सवालक्ष दीपों का ब्रह्मयज्ञ आरंभ हुआ एवं “यन्मण्डलं दीपितकर। विशाल” की धुन के बीच सभागार के चारों और सजाए गए दीपक जला दिए गए। मंच के चारों ओर विशाल स्टैण्ड्स पर ड़ड़ड़ड़ के थाल सजा दिए गये थे। दृश्य देखते ही बनता था। शरद पूर्णिमा का दिन था परन्तु पूर्णिमा का चाँद भी छोटे-छोटे दीपों की समन्वित आभा ऊर्जा के समक्ष मद्धिम लग रहा था। चारों और प्रदीप्त दीपक व कहीं भी किसी प्रकार का कोई शोर नहीं, अव्यवस्था नहीं दुर्घटना नहीं, पर परोक्षसत्ता का ही संरक्षण था। पीछे ही शिवालिक पर्वतमाला थी। उस नीरद जंगल में सजी दीपमालिका में उपस्थित जनसमुदाय ने एक स्वर से उस संकल्प को दुहराया जिसके माध्यम वे गुरुसत्ता को उनके द्वारा प्रदत्त जिम्मेदारियों को उठाते हुए कार्य को आगे बढ़ाने का आश्वासन दे रहे थे। गायत्री माता की आरती जब अहमदाबाद शाखा के एक परिजन ने अपने मस्तक पर 151 दीप सजाकर नर्तन करते हुए गायी तो सबकी तालियाँ पूरी आरती तक एक साथ बजती रहीं। दृश्य नयनाभिराम था, अलौकिक था व ऐसा लगता था मानो स्वर्ग से देवता स्वयं दृश्य देखने धरती पर उतर आए हों। सवालक्ष वेदी ब्रह्मयज्ञ के बाद वीडियो फिल्माँकन हुआ व कार्यक्रम का समापन हो गया।

अंतिम दिन विदाई का था। सभी को लग रहा था कि देखते-देखते ये चार दिन कैसे बीत गए? नित्य अगणित व्यक्ति तीन विशाल भोजनालयों में भोजन करते रहे, कोई भूखा नहीं रहा, कोई बीमार नहीं पड़ा एवं कहीं किसी प्रकार की कोई अव्यवस्था नहीं देखी गयी। जाने की वेदना सभी को थी। वंदनीया माताजी द्वारा 1008 कुण्डीय यज्ञशाला में स्वयं आकर उपस्थित याज्ञिकों को ब्रह्मदीक्षा देने के उपरान्त विदाई गीत हुआ एवं वंदनीया माताजी द्वारा भावभरे शब्दों में कार्यक्रम का समापन घोषित कर दिया गया। वंदनीया माताजी ने स्वयं एक गीत गाकर परिजनों को अंतिम विदाई दी। चारों और आँसू ही आँसू थे। सभी सोच रहे थे कि ममत्व की साकार प्रतिमा, करुणा की मूर्ति माताजी से विछोह अब कैसे सहन होगा। पर सभी ने स्वयं को सँभाला व लौटने की तैयारी करना आरंभ कर दिया। सबसे मनमोहक दृश्य था वह जब वंदनीया माताजी खुली जीप में प्रवचन सभागार से वापस शाँतिकुँज लौटी एवं उनके पीछे विशाल जनसमूह उन्हें नमन करता हुआ पूरे रास्ते चलता रहा। यही श्रद्धा तो मूलभूत पूँजी है स मिशन की जिसने लाखों मणिमुक्तकों को गूँथकर एक हार के रूप में पिरो दिया है।

सभी मुक्तकण्ठ से कार्यकर्ताओं के व्यवहार तथा व्यवस्था बुद्धि की, आतिथ्य की, स्वयंसेवकों के संकल्पित परिश्रम की सराहना करते हुए गए। कार्यक्रम हर दृष्टि से सफल रहा व संघशक्ति की महत्ता प्रतिपादित कर गया। युगपुरुष को यह आश्वासन देना ही तो इस विराट समूह का मुख्य लक्ष्य था कि जिन कार्यों के लिए उनने अपना जीवन तिल-तिल कर जलाया उन्हीं के निमित्त वे भी समर्पित जीवन जीकर दिखायेंगे। यही सही अर्थों में उनके प्रति श्रद्धांजलि भी है।


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