कालचक्र का अधीश्वर महाकाल एवं उसका संकल्प

November 1990

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धरती का स्वर्गीकरण न तो इतना बड़ा काम जिसे करने की बड़े-बड़ों की हिम्मत न पड़े? व्यक्ति के प्रयासों की एक सीमा है। सामान्य दिशा में उसे निजी जीवन तक को शुभ और आनन्द से परिपूर्ण करना दूभर लगता है। प्रकृति की शक्तियाँ भी छोटे मोटे परिवर्तन गति लय उभार करने में ही थकान अनुभव करने लगती हैं। फिर यदि सवाल स्वयं प्रकृति को बदलने का हो। मनुष्य की अन्तः प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति को बदलने की आवश्यकता जब अनिवार्य समझी जाने लगे। जीवनक्रम एक नये ढाँचे में ढलने के लिए आतुर हो उठा हो तब इसे कौन करे?

नैराश्य के इस तमस में आशा की ज्वाल माल बन पुनः उसी को संकल्पित होना पड़ा है जिसने कभी “एकोऽहं बहुस्यामः” का संकल्प पूरा किया था। जो प्रकृति एवं उसकी शक्ति का नियन्ता है। काल के गतिमान चक्र का अधीश्वर महाकाल है। मानव समाज के प्रत्येक बृहत् कार्य, सृष्टि की व्यापक फेर बदल में यह स्वयं सूत्र संचालक का दायित्व संभालता आया है। इसे ही पश्चिमी टसाइटगाइस्ट और पूर्वी तत्त्ववेत्ता महाकाल ने नाम से सम्बोधन करते हैं। यह नाम है कि गम्भीर अर्थ से परिपूर्ण। सड़ी गली मान्यताओं रूढ़ियों समाज का खण्डहर हो गए भवन का मटियामेट कर उसके स्थान पर नूतन सृजन करने वाली महाशक्ति का उद्गम स्रोत यही है जो मनुष्यों संस्थाओं और आन्दोलनों को यन्त्र बनाकर अपने शाश्वत प्रयोजन के लिए इस्तेमाल करता है। महाकाल अन्तः स्थिति वह विश्वात्मा है जिसकी शक्ति सर्वत्र संचरित है और विश्व की प्रगति एवं मानव की नियति का निर्माण करती है। उसी का आवेग खुद को काल में चरितार्थ करता है और जब उससे गति एवं प्रेरणा मिल जाती है तो काल और शक्ति उसका भार ग्रहण करते हैं। उसे तैयार करने, पकाने और पूरी तरह सफल बनाने में जुट जाती है। काल के इस अधीश्वर के अपने हाथों में बागडोर थामते ही संसार की समस्त शक्तियाँ एकजुट होकर उसके संकल्प की पूर्ति हेतु संलग्न हो जाती है। चाहे मनुष्य की सहायता दे, अथवा प्रतिरोध करें, किन्तु उसका काम रुकता नहीं, जब तक संकल्प पूर्ति न हो जाए। हाँ होशो-हवास पूर्वक सहयोग करने वाले युग सृजेता का गौरव अनायास ही पा लेते हैं।

मानव इतिहास के इन क्षणों में पुनः एक बार संकल्प गूंजा है। ठीक वे ही स्वर जो कुरुक्षेत्र में सुनाई दिये थे मैं महाकाल हूँ। खण्डहर हो गये लोकों को उजाड़ कर नष्ट कर नवसृजन करता हूँ। देखो मैं पूरी शक्ति के साथ उठ खड़ा हुआ हूँ। वे योद्धा जो विरोधी सैन्य दलों में व्यूह बाँधे खड़े हुए हैं, तेरे बिना भी नहीं बचे रहेंगे। इसलिए तू उठ खड़ा हो और महान यश का लाभ कर। क्योंकि सब कुछ पहले ही किया जा चुका है, केवल निमित्त मात्र बन सव्यसाचिन्।

हवा की प्रत्येक श्वास से सृष्टि के प्रत्येक स्पन्दन से उठ रही यह पुकार महाश्मशान बनती जा रही इस धरती को नन्दन कानन बनाने के लिए है। महाकाल स्वयं को दो रूपों में प्रकट करता है। अपने पहले रूप में वह रुद्र होता है और दूसरे में शिव। रुद्र की विनाश लीला शिव के सृजन के लिए भूमि तैयार करती है। बीसवीं सदी की शुरुआत से आज तक हुई घटनाओं का सरसरी नजर से जायजा लें तो रुद्र का ताण्डव नर्तन समझा जा सकेगा। प्रारम्भ से लेकर लगभग आधी सदी तक मानव जाति दो महायुद्धों की तैयारियाँ करने और विनाश के ज्वालामुखी को भड़काने में जुटी रही। जर्मनी के तहखानों का खून अभी तक सूखा नहीं था कि कोरिया युद्ध की लपटों में घिर गया। एक के बाद एक कम्बोडिया, वियतनाम, ईरान, ईराक जैसे अनेकों ने विनाश लीला में अपनी भागीदारी निभाई। जी. विकलिन की पुस्तक “ह्यूमन रेस इन ट्वेन्टियथ सेंचुरी” के अनुसार इस सदी में लगभग दो सौ छोटे-बड़े युद्ध लड़े गये। धरती पर कोई ऐसी जगह नहीं बची जिसे महारुद्र के चरणों ने प्रकंपित न किया हो। इस प्रकम्पन से न जाने कितने राजमुकुट भूमिलुँठित हुए, इक्के, दुक्के जो बचे हैं वे भी अपने विनाश की तैयारी कर रहे हैं। जिनके राजस में सूर्य नहीं अस्त होता था वे ही अब कोने में सिमटते जा रहे हैं।

बात युद्धों की नहीं है, मान्यताएँ, नीतियाँ प्रणालियाँ बनी और ढहीं। नाजीवाद, फासीवाद धूमकेतु की तरह उल्टा होकर काल के प्रचण्ड झोंकों में बह गया। साम्यवाद के वितान फैले और सिमटने लगे। हीगेल, मार्क्स, एगेंल्स गुजरे जमाने की चीजें होती जा रही हैं। जिनकी पूजा होती थी। उन्हीं के बुत टूटने लगे। हिटलर, मुसोलिनी, माराबों, दाँतों, रोब्सपियर, कापूर, नैपोलियन के व्यक्तित्व व कर्तृत्व दोनों तिरस्कृत हो काल के किसी कोने में जा पड़े है।

ऐसे में प्रकृति भला क्यों पीछे रहती। उसने भूकम्प, सूखा, बाढ़ जैसे पुराने युग के हथियारों के स्थान पर ग्रीन हाउस प्रभाव, ओजोन की छतरी को फाड़ना, खनिज सम्पदाओं का रिक्तता, हवा पानी की विषाक्तता जैसे अनेकों कारनामे दिखाकर 400 करोड़ मानवों में सिहरन पैदा कर दी। 9वें दशक में प्रवेश करते-करते धरती के विश्वविश्रुत वैज्ञानिक, चिन्तक, समाज के कर्णधार चीत्कार कर उठे- अब हम धरती को नहीं बचा सकते महाप्रलय आने ही वाला है।

किन्तु कहाँ? बीत चली कालरात्रि के ब्रह्ममुहूर्त आते-आते रुद्र की क्रिया–कलापों में से शिवत्व झलकने लगा। भले अभी यह सबको स्पष्ट नहीं हुआ हो किन्तु ऐसा कुछ हो रहा है जो अनोखा है, अद्भुत है अलौकिक है। इसे स्पष्ट करते हुए श्री अरविन्द “द ह्यूमन सायकिक” में कहते हैं-दक्षिणेश्वर में जो काम शुरू हुआ था, वह पूरा होना बाकी है। सामान्य जन तो इसे समझ भी नहीं सके। विवेकानन्द ने जो कुछ प्राप्त किया, जिसे अभिवर्धित करने का प्रयत्न किया वह अभी तक मूर्त कहाँ हुआ? विजय गोस्वामी ने भविष्य के जिस सत्य को निगूढ़ रखा वह उनके शिष्य तक नहीं जान पाए और अब अधिक उन्मुक्त ईश्वरीय प्रकाश की तैयारी हो रही है, अधिक ठोस शक्ति प्रकट होने को है। यह कार्य मनुष्य की प्रकृति में फेर बदल कर नया इंसान गढ़ना और इसी धरती में स्वार्गिकता लाना था। जिसे ये महाकाल के दूत करने में जुटे थे। इस विशिष्टता को इन वरिष्ठों के सिवाय और कौन जानता? किसमें यह अनोखी सामर्थ्य है जो रुद्र के तीव्र ताण्डव में छुपे शिव सृजन को निहार सके।

किन्तु अब जैसे-तैसे ब्रह्ममुहूर्त की घड़ियाँ अरुणोदय की ओर बढ़ती जा रही हैं विनाश के आवरण में स्वयं को ढके सृजन स्पष्ट होने लगा है। आज के समय में इसका एक सुस्पष्ट चिन्ह है विश्व के हर कोने में अंगड़ाइयाँ ले रही जन चेतना। उसे सिर्फ व्यवस्था को बदल डालने मात्र से सन्तुष्टि नहीं है। वह स्वयं में समूचे समाज में एक मौलिक परिवर्तन करना चाहती है। महर्षि का संकेत भी इसी ओर है। यों मानव को अपनी उत्पत्ति से लेकर आज तक अनेकों सुखद दुःखद घटनाओं से गुजरना पड़ा है। स्वयं को उसने कई तरह के दबावों में आकर ढाला और गढ़ा है। उसकी निजी चेष्टाएँ भी कम नहीं है। किन्तु इस बार भावी समाज के चिर स्थाई सुख का आधार बनने वाला परिवर्तन अपने आप में अनूठा है।

अब तो हो चुकी परिवर्तनों के इतिहास की ओर झाँके उनके प्रभावी कारकों की ओर देखें तो पाते हैं कि सारी फेर बदल राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक, जैविक, जनसंख्यात्मक और साँस्कृतिक कारणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यद्यपि ऊपर से न दिखते हुए भी इनका किसी न किसी प्रकार सम्बन्ध मनोवैज्ञानिक कारक से रहा है। किन्तु सामान्यता राजनैतिक कारणों की प्रधानता समझी गई है। व्यवस्था से कष्ट हो रहा है, व्यवस्था बदल दो। राजतन्त्र नहीं तो अधिनायकवाद, साम्यवाद, प्रजातन्त्र समाजवाद। बदलाव के बाद भी उद्देश्य कोसों दूर रहा। प्रिंस क्रोपाटकिन का “क्रान्ति की भावना” में कहना है कि परिवर्तन करने वाले जब शासन व्यवस्था संभाल लेते हैं तो कुछ समय बाद सारी समस्याएँ फिर से ज्यों की त्यों खड़ी दिखाई देती हैं। फ्राँस की राज्य क्रान्ति इसी का एक उदाहरण है।

ऐसा सिर्फ इसलिए कि व्यवस्था उतनी दोषी नहीं जितना कि दोषी वह समाज रहा जिसने व्यक्ति को सही गढ़ा नहीं। समस्त विसंगतियों, दुरावस्थाओं का मूल कारण समाज की जीवनी शक्ति कहे जाने वाले उस वर्ग का समाप्त प्रायः हो जाना है जिस पर व्यक्ति को तराशने की जिम्मेदारी थी। इसके अतिरिक्त प्रथाएँ, परम्पराएँ, रीतियाँ, रिवाज, मान्यताएँ मूल ओर प्रतिमान यही मिलकर वह साँचा बनाते हैं, जिसमें व्यक्ति ढलता है और आज यह इतना जर्जर हो अपनी सामयिकता खो बैठा है कि इसमें उस इंसान को ढालने की ताकत नहीं रही जो नए समय के अनुरूप नए आदमी तैयार कर सके। ऐसी दशा में आवश्यक हो गया है कि यह सब भी परिवर्तित हो जिससे कि मनुष्य सँवर सके।

किन्तु इंसान का मोह इन्हें हर हाल में चिपकाए रहना चाहता है। लिहाजा सतयुगी परिस्थितियाँ लाने के लिए संकलित महाकाल ने आन्तरिक एवं बाह्य ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं, जिसके दबाव में आकर कोयले को हीरा बनना ही पड़े। विचार करें तो प्रकारान्तर से यह भी एक अनुग्रह हैं जिसके कारण हम सबको पुरानी सड़ चुकी केंचुल उतार कर नवीन सौंदर्य उद्भासित करने का अवसर मिल रहा है। सुविख्यात चिन्तक प्रीतम ए. सोरोकिन “रिकाँन्सट्रक्शन ऑफ ह्यूमेनिटी” में कहते हैं- इस बार के परिवर्तन पिछली फेर से कहीं अधिक चिरस्थाई और उपयोगी रहेंगे। उसके अनुसार इस हो रहे प्रत्यावर्तन में प्रधानता मनोवैज्ञानिक कारक की रहेगी और है भी।

आज मानव ने केवल सोचने के लिए बल्कि अपनी सोच बदलने के लिए विवश है। उसे साफ मालूम हो गया है कि व्यवस्था बदलने भर से पर्यावरण संकट, प्राकृतिक असन्तुलन सुधरने वाला नहीं है। उसके लिए तो हमें ही बदलना होगा। सच कहा जो तो असन्तुलित तो अपने नियन्ता के संकेतों के अनुसार उसे सुधारने के लिए सक्रिय भर हुई है।

महाकाल की इस अपरिवर्तनीय योजना का केन्द्र है व्यक्ति और परिधि है समाज। विवेकानन्द के शब्दों में इस सृजनात्मिका शक्ति की धुरी बनी हैं भारत भूमि। तीन चरणों वाली इस योजना का प्रथम चरण है व्यक्ति की सोच को उलटना। ओसवाल्ड स्पेंगलर के शब्दों में जहाँ अभी वह यह मान बैठा है कि आदमी श्रेष्ठ पशु है उसके पास औरों पर धौंसे जमाने का एक ही उपाय है बल। बदलते समय में यह मापदण्ड शरीरबल, धनबल बुद्धिबल तो हुआ पर काम नहीं बदला। वहीं बदली सोच के आधार पर उसे सोचना पड़ेगा कि क्षमताएँ, उत्पीड़न के लिए नहीं हैं। वरन् इसलिए हैं कि दूसरों की भी क्षमताएँ उभारी जाए और सारी मनुष्य जाति एक साथ लम्बे डग भार कर अपने को धरती का देवता सिद्ध कर सके।

दूसरे चरण में प्रथा, परम्पराओं, रीतियों मूल्यों में व्यापक स्तर की फेर-बदल होगी। जहाँ अभी इन्हें संयुक्त रूप में लोक भाषा में नाम दिया गया है धर्म इस जाल-जंजाल में उलझना नहीं हैं। वरन् यह वह तत्व है जिसके आधार पर क्रूरकर्मी अंगुलिमाल तक महाभिक्षु बन सका। आज की प्रथा परम्पराओं को कतर व्यौंत कर वे ही नीतियाँ रची जायेंगी जो मानव यात्रा को सुगम करने वाला पाथेय बन सके। स्वर्गीकरण के तीसरे और अन्तिम चरण में आएगा समाज। जिसने अभी बीहड़ जंगल का रूप ले लिया है। जहाँ उत्कृष्ट चिन्तन, उत्तम चरित्र मृदुल व्यवहार कभी किसी बिरले भाग्यशाली को दिखाई पड़ जाते हैं। वहीं समाज अपना स्वरूप बदल कर ऋषियों का आरण्यक बन सकेगा। स्वयं को ऐसी पाठशाला में विकसित कर सकेगा जो आदमी को सोचना, जीना और व्यवहार करना सिखाए। योजना के ये त्रिविध चरण मानव समाज रूपी नचिकेता को महाशिव के तीन वरदान है।

इन्हें ग्रहण करने, अपना सहचर बनाने के लिए उसने हम सबसे साहस भरा कदम उठाने का आवाहन किया है। परवाह नहीं यदि हम शक्तिहीन हैं, पुराने समाज ने हमें नगण्य माना है। जिन्हें भी अतिबल परिवर्तन का आदेश प्राप्त होता है। वे उसकी अनन्त शक्ति से पूरित होते हैं। यह वही सामर्थ्य है जो धरती से लाखों गुणा भारी भरकम नक्षत्रों को उनकी कक्षाओं में घुमाती है, ऐसी आसानी से जैसे कोई बालक गेंद घुमाता हो। उसके लिए असम्भव क्या? वह असम्भव हो साधित करने में ही सिद्धहस्त है। हम क्या हैं कैसे हैं? भूलकर जैसे भी हैं, संकल्प पूर्ति के इस महत्वपूर्ण चरण में अपनी भूमिका निभाने को तत्पर हों। आने वाले भगीरथ का गौरव हासिल हुए बिना न रहेगा।


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