आत्म शक्ति का उपार्जन एवं सुनियोजन

November 1990

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बाहर की वस्तुओं के सम्बन्ध में मनुष्य को बहुत सी जानकारियाँ रहती हैं। उनके द्वारा होने वाली हानि तथा उठाये जा सकने वाले लाभों का भी सहज बुद्धि से अता-पता रहता है, किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि अपने आपके संबंध में नगण्य जानकारियाँ ही रहती हैं जो जाना जाता है उससे लाभ कैसे उठाया जाय और हानि से कैसे बचा जाय इस संबंध में भी इतना ही परिचय होता है, जिसे वस्तुस्थिति की तुलना में नगण्य ही कहा जा सके। शरीर के छोटे-बड़े अंग अवयवों को भली प्रकार देखा समझ भी नहीं जाता, इतने पर भी उनकी सशक्तता आश्चर्यजनक होती है। किसी बड़े मिल कारखाने को चलाने में जितनी बिजली खर्च होती है उसकी अपेक्षा शरीर संचालन में उनके कलपुर्जों को गतिशील रखने में ऊर्जा कहीं अधिक खप जाती है। फिर भी मोटी दृष्टि में इस उपयोग का कुछ पता नहीं चलता और लगता है कि शरीर अपने आप जीवित है। इसका ढर्रा अपने आप चल रहा है। खाने-सोने का क्रम अनायास ही चलता रहता है। एक महिला घरेलू काम काज करने में जितनी शरीर शक्ति खर्च कर लेती है वह इतनी होती है कि उसके बल पर समूचे-भूमण्डल की कई परिक्रमाएँ लगाई जा सकती हैं। हृदय, आमाशय, गुर्दे आदि अवयव निरन्तर कार्यरत रहकर जितनी सामर्थ्य खर्च करते हैं, उसके सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि मोटी जानकारी की तुलना में वह हजारों गुनी अधिक होती है। इस विद्युत उत्पादन और उपयोग का लेखा-जोखा लिया जा सके तो प्रतीत होगा कि बाहरी दुनिया के बारे में हम भले ही कुछ आधा अधूरा जानते हों, पर अपने सम्बन्ध में जितना समझा गया है उसे पर्वत की तुलना में अणु मात्र ही समझा जाना चाहिए।

मानसिक शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात है। सरकस में अनोखी करामातें दिखाने वाले, खेल के मैदानों में सामर्थ्य के कीर्तिमान स्थापित करने वाले जितने आश्चर्यजनक लगते हैं उससे कहीं अधिक मस्तिष्क की चेतनसत्ता है। वैज्ञानिक दार्शनिक, कलाकार, मनस्वी जो प्रस्तुतीकरण करते रहते हैं उससे प्रतीत होता है कि मानसिक सूझबूझ लगती तो नगण्य है पर उसकी कृतियों का चमत्कार किसी बड़े से बड़े कौतूहल से बढ़कर है। व्यसनी, प्रपंची, अपराधी जैसी सूझ-बूझ का परिचय देते हैं उसे देखते हुए बाजीगर की उपमा दी जा सकती है। शरीर से लेकर मानसिक क्षमता का समग्र आकलन कर सकना तथा कथित समर्थ व्यक्ति के लिए भी कठिन है जो उनका धारणकर्ता, निर्माता, प्रयोक्ता माना जाता है। चेतना ही है जो कुछ क्षण के लिए अवरुद्ध हो जाय तो समझना चाहिए कि समूचा खेल देखत-देखते बिखर गया। कुछ क्षण पहले का जीवित व्यक्ति इस स्थिति में पहुँचते भी देखा गया है जिसे मरते ही जल्दी से जल्दी दूर हटाने का प्रयत्न किया जाय। शरीर अद्भुत है उसकी का पुरुषार्थ और रसास्वादन है जो जड़ समझे जाने वाले पदार्थों को सचेतन से भी अधिक सरस अनुभव करता है। अशक्त को शक्तिशाली बना देता है। मनुष्य ही है जो परमाणु जैसी नगण्य इकाई को शक्ति सत्ता के रूप में प्रकट करता है। फिर सचेतन के सम्बन्ध में तो कहा ही क्या जाय? वह अद्भुत है। स्रष्टा की असीम क्षमता उसकी छोटी सी दिखने वाली इकाई में लगभग पूरी तरह समाई हुई है। जड़ पदार्थों को सशक्त, सक्षम और अनुभूतिगम्य बना देने में उसी का कौतूहल काम करता देखा जा सकता है।

इस सचेतन सत्ता को प्राण कहते हैं। प्राणियों की चित्र-विचित्र हरकतें-हलचलें मात्र इसीलिए दृष्टिगोचर होती हैं कि उनमें प्राण की सशक्तता काम करती हैं। यदि वह क्षीण हो जाये तो समझना चाहिए कि अशक्ति के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं बचा। दुर्बल, दीन, असहाय, असमर्थ मात्र उन्हें कहते हैं जिनकी चेतना लड़खड़ा जाती है। तब फिर शरीर के अंग अवयव भी जीवित रहने पर भी निर्जीववत् दीख पड़ते हैं। इसको शरीर से सम्बन्ध छूट जाना कहते हैं, जिसे जीवन का अन्त कहा जाता है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि यदि चेतना शरीर और मन पर अपना समुचित आधिपत्य बनाए हुए हो तो फिर काय कलेवर के दुर्बल रहने पर भी व्यक्ति असीम सामर्थ्य का धनी बना रहता है। गाँधी जी की ऊँचाई पाँच फुट दो इंच थी और वजन मात्र 96 पाउण्ड। इतने पर भी उनकी चेतना इतनी समर्थ थी कि करोड़ों जन साधारण में प्रचण्ड प्राण फूँका। व्यापक जन मानस का स्तर कुछ से कुछ बनाकर दिखाया। समर्थ शासकों को धूल चटाने में सफल रहे। विश्व के कोने-कोने में अपने ढंग की अनोखी चेतना का संचार किया। यह शरीर या बुद्धि का नहीं प्राण चेतना की समर्थता का ही चमत्कार था। ऐसे उदाहरणों की इस संसार में कमी नहीं जिनकी प्राण चेतना ने साधनों का एक प्रकार से अभाव रहते हुए भी असाधारण उपलब्धियों का पर्वत खड़ा कर दिखाया। तपस्वियों और सिद्ध पुरुषों द्वारा व्यक्तियों, परिस्थितियों एवं वातावरण को किस प्रकार समय-समय पर पलटा और सुधारा है यह विवरण भी इतिहास का सर्वविदित प्रसंग है।

मनुष्य को शक्ति का स्रोत कहा जा सकता है। वह प्राणियों को भी इच्छानुसार परिवर्तित करता और पदार्थों को भी कुछ से कुछ बना देता है। घटनाएँ दुख सुख की हानि-लाभ की निमित्त कारण प्रतीत होती हैं। पर वास्तविकता इससे भिन्न है। चेतना की अनुभूतियाँ ही चित्र विचित्र अनुभव करतीं और तरह-तरह के अनुभव कराती रहती हैं। घटनाएँ एवं वस्तुएँ तो उस प्रसंग में नाम मात्र की भूमिका निभा पाती हैं।

शास्त्रकारों का कथन है कि जिसने अपने को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया। जिसने अपनी सत्ता और महत्ता का परिचय प्राप्त करने से लेकर प्रयोग करने तक की विद्या को जान लिया उसे समग्र सत्ता सम्पन्न एवं अति महत्वपूर्ण ही समझना चाहिए।

सम्पदा किसके पास कितनी है? कहाँ है? उसे किस प्रकार प्राप्त किया जाय? पाने के उपरान्त उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या है? यह सब जान लेना ही सम्पदा का होना और लाभ उठाना कहलाता है। जिनके पास यह जानकारी -लाभ पाने का उपक्रम है, जिन्हें ऐसी कुछ जानकारी नहीं है, उसके पैरों तले खजाना दबा पड़ा हो तो भी उसका कोई उपयोग नहीं। रत्नराशि पास में होने पर भी यदि उसे काँच का टुकड़ा भर समझा जाय तो व्यक्ति धनाध्यक्ष होते हुए भी गरीबी के दिन गुजारेगा। मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पदा चेतना पास होने का कारण आत्मशक्ति ही है। शरीरबल, बुद्धिबल आदि सभी सामने तुच्छ हैं।

सही उपयोग विदित होने पर साधारण सी घास–पात भी संजीवनी बूटी सिद्ध हो सकती है। जानकारी के अभाव में सब कुछ निरर्थक सा है। सही उपयोग ही समुचित लाभ उठाने की स्थिति विनिर्मित करता है। बखेरते चलने पर तो सब कुछ बरबाद हो जाता है। छलनी में दूध दुहने पर तो दुधारू गाय का मालिक भी हाथ मलता और दुर्भाग्य को कोसता है।

आत्मबल भी अन्य बलों की तरह लोगों के पास होता है, पर उसे संभालना, सँजोना न बन पड़े तो कुछ लाभ उठा सकना संभव नहीं। आतिशी शीशे पर सूर्य किरणों को एकत्रित कर लेने पर आग जलने लगती है। बन्दूक की नली द्वारा सही निशाने पर छोड़ी गई बारूद भयंकर विस्फोट करती और अपनी शक्ति का परिचय देती है। आत्म शक्ति होने पर भी उसको एकाग्र किए बिना सामर्थ्य की वृद्धि नहीं होती। इसीलिए योग साधनाओं, तपश्चर्याओं द्वारा आत्मशक्ति को उभारना, एकत्रीकरण करना और वरिष्ठता का परिचय देना संभव होता है। एकाग्रता, एकान्त साधना, मौन साधना जैसे प्रयोग इसीलिए किए जाते हैं कि आत्म शक्ति का चमत्कारी उपयोग बन पड़े। इसी आधार पर सिद्ध पुरुष, अनेकों दिव्य विभूतियों के अधिष्ठाता बनते हैं और वह कर दिखाते हैं जो सामान्यजनों की कल्पना से भी बाहर होता है। नर पशु के समतुल्य विचरण करने वाले भी यदि ऋद्धि-सिद्धियों के अधिष्ठाता बन सकें तो समझना चाहिए कि उनने देव पुरुष की स्थिति प्राप्त कर ली।

योगी जन अपनी दिव्य शक्ति का एक कण भी बिखरने नहीं देते। उसे सँभाल-सँजो कर रखते हैं। जबकि साधारण जन अपना समय निरर्थक क्रिया–कलापों में बरबाद रहते हैं। सघन वनों में एकान्त सेवी, गुफा निवासी प्रयोगरत सिद्ध पुरुषों द्वारा असाधारण क्षमताएँ कैसे प्राप्त की जाती हैं? इसका लम्बा इतिहास है। ऋषि-महर्षि यही करते थे। विगत दिनों भी योगी अरविन्द, महर्षि रमण आदि ने इसी मार्ग पर चलते हुए सिद्धियाँ पाई। अपना, दूसरों का, विश्व की विविध समस्याओं का समाधान किया। अनुभवी बताते हैं कि जिसका प्राण वश में हैं, उसके लिए सब कुछ उसकी मुट्ठी में है। विभूतियों को उसके पास कुछ कमी नहीं रहती। पार्वती, भगीरथ, ध्रुव आदि के तपस्याओं के प्रतिफल सर्वविदित हैं।

वह राजमार्ग अभी भी सभी के लिए खुला हुआ है। तप साधना के सत्परिणामों की परम्परा अभी भी यथावत है। यह दूसरी बात है कि उन उपलब्धियों को कोई क्षुद्र प्रयोजनों में बाजीगरी जैसे कौतुक-कौतूहल दिखाये जायें अथवा उसके साथ जन समस्या के हितार्थ लोक कल्याण के महान प्रयोजन पूरा कर सकें। युग परिवर्तन की इस बेला में ऐसी ही संग्रहित, परिष्कृत और प्रखर आत्मशक्ति के प्रयोग की आवश्यकता समझी गई है।


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