आदतों के गुलाम न बनें

November 1990

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जिन कार्यों या बातों को मनुष्य दुहराता रहता है, वे स्वभाव में सम्मिलित हो जाती हैं और आदतों के रूप में प्रकट होती हैं। कई मनुष्य आलसी प्रवृत्ति के होते हैं। यों जन्मजात दुर्गुण किसी में नहीं हैं। अपनी गतिविधियों में इस प्रवृत्ति को सम्मिलित कर लेने और उसे समय कुसमय बार बार दुहराते रहने से वैसा अभ्यास बन जाता है। यह समग्र क्रिया−कलाप ही अभ्यास बन कर इस प्रकार आदत बन जाते हैं मानो वह जन्मजात ही हो। या किसी देव दानव ने उस पर थोप दिया हो। पर वस्तुतः यह अपना ही कर्तृत्व होता है जो कुछ ही दिन में बार-बार प्रयोग से ऐसा मजबूत हो जाता है मानो वह अपने ही व्यक्तित्व का अंग हो और वह किसी अन्य द्वारा ऊपर से लाद दिया गया हो।

जिस प्रकार बुरी आदतें अभ्यास में आते रहने के कारण स्वभाव बन जाती है और फिर छुड़ायें नहीं छूटती, वैसी ही बात अच्छी आदतों के सम्बन्ध में है।

अच्छी आदतों के संबंध में भी यही बात है। हँसते मुस्कराते रहने की आदत ऐसी ही है। उसके लिए कोई महत्वपूर्ण कारण होना आवश्यक नहीं। आमतौर से सफलता या प्रसन्नता के कोई कारण उपलब्ध होने पर ही चेहरे पर मुसकान उभरती है। किन्तु कुछ दिनों बिना किसी विशेष कारण के भी मुसकराते रहने की स्वाभाविक पुनरावृत्ति करते रहने पर वैसी आदत बन जाती हैं फिर उनके लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं पड़ती है और लगता है कि व्यक्ति कोई विशेष सफलता प्राप्त कर चुका है। साधारण मुसकान से भी सफलता मिलकर रहती है।

क्रोधी स्वभाव के बारे में भी यही बात है। कोई व्यक्ति अनायास ही चिड़चिड़ाते रहते देखे गये हैं। अपमान, विद्वेष या आशंका जैसे कारण रहने पर तो खीजते रहने की बात समय में आती है, पर तब आश्चर्य होता है कि कोई प्रतिकूल परिस्थिति न होने पर भी लोग खीचते झल्लाते चिड़चिड़ाते देखे जाते हैं। यह और कुछ नहीं उसके कुछ दिन के अभ्यास का प्रतिफल है। आदतों को आरम्भ करने में तो कुछ भी नहीं करना पड़ता है। पर पीछे वे बिना किसी कारण के भी क्रियान्वित होती रहती हैं। इतना ही नहीं कई बार तो ऐसा भी होता है कि मनुष्य आदतों का गुलाम हो जाता है और कोई विशेष कारण न होने पर भी उपयुक्त अनुपयुक्त आचरण करने लगता है। बाद में स्थिति ऐसी बन जाती है कि उस आदत के बिना काम ही नहीं चलता।

आलसियों और गंदगी पसन्द लोगों के कुटेवों को लोग नापसन्द भी करते हैं और इनके लिए टीका टिप्पणी भी करते हैं। पर अभ्यस्त व्यक्ति को यह प्रतीत ही नहीं होता कि उसने कोई ऐसी आदत पाल रखी है जिन्हें लोग नापसन्द करते हैं और बुरा मानते है। अच्छी आदतों के संबंध में यह बात है। साफ सुथरे रहना, किफायत बरतना और किसी न किसी उपयोगी कामों में लगे रहना, न होने पर प्रयत्न पूर्वक सौंपा हुआ काम कर लेना, एक प्रकार की अच्छी आदत ही है जो अपने व्यक्तित्व का वजन बढ़ाती है। कुछ न कुछ उपयोगी प्रक्रिया बन पड़ने पर अनायास ही सहज श्रेय प्राप्त करते हैं।

तिनके-तिनके इकट्ठे करने पर मोटा या मजबूत रस्सा बन जाता है। अच्छी या बुरी आदतों के संबन्ध में भी ऐसी बात है। आरम्भ में वे अनायास ही आरम्भ हो जाती है और थोड़ा सा प्रयत्न करने कुछ बार दुहरा देने भर से मनःस्थिति अनुकूल बन जाती है। स्वभाव का अंग बन जाने पर समूचे व्यक्तित्व को ही उस ढाँचे में ढाल लेती है। अच्छी आदतों का अभ्यास किया जाय तो व्यक्तित्व सद्गुणी स्तर का बन जाता है। दूसरों के मन में अपने लिए सम्मान जनक स्थान बना लेता है। उसे सभ्य या शिष्ट माना जाता है। उसके संबंध में लोग और भी अच्छे सद्गुणों की मान्यता बना लेते है। उसके कार्यों में सहयोग करने लगते हैं या अवसर मिलते ही उन्हें अपना सहयोगी बना लेते हैं। सहयोग या असहयोग ही किसी की उन्नति या अवनति का प्रमुख कारण है। अच्छी आदतें फलतः अपना हित साधन करती हैं। इनका देर-सबेर में उपयोगी लाभ मिलता है। इसके विपरीत बुरी आदतों से प्रत्यक्षतः और परोक्षतः निकट भविष्य में हानि ही उठाने का अवसर आता रहता है।


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