आगे बढ़ें और लक्ष्य तक पहुँचें

November 1990

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बिजली की शक्ति -सामर्थ्य से सभी परिचित हैं। छोटे-बड़े अनेकों यंत्र-उपकरण उसी की शक्ति से चलते और महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित करते हैं। मनुष्य शरीर में भी जीवनचर्या को सुसंचालित रखने में जैव विद्युत ही काम आती है। चेहरे पर चमक, स्फूर्ति और पुरुषार्थ कर दिखाना उसी के अनुदान हैं। मन मैं शौर्य-पराक्रम साहस-विश्वास आदि के रूप में जब उसका अनुपात संतोषजनक मात्रा में होता है, तो उसे प्रतिभा कहते हैं। वह अपनी प्रसुप्त क्षमताओं को जगाती है। कठिनाइयों से जूझ पड़ना और उन्हें परास्त कर सकना भी उसी का काम है। महत्वपूर्ण सृजन-प्रयोजनों को कल्पना से आगे बढ़ाकर योजना तक और योजना को कार्यान्वित करते हुए सफलता की स्थिति तक पहुँचाने की सुनिश्चित क्षमता भी उसी प्रतिभा में है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राणाग्नि एवं तेजस्वी मानसिकता कहते हैं। उपासना क्षेत्र में इसलिए प्राणायाम जैसे प्रयत्न सरलतापूर्वक किए जाते हैं। तपश्चर्या में तितीक्षा अपनाते हुए साधन-सुविधा की आवश्यकता इसी अन्तःशक्ति के सहारे संपन्न कर ली जाती थी। शाप-वरदान एवं असाधारण स्तर के चमत्कार दिखा सकना और कुछ नहीं मात्र प्राणाग्नि के ज्वलनशील होने से उत्पन्न हुई ऋद्धि-सिद्धि स्तर की क्षमता ही है।

शरीर बल, धनबल, बुद्धिबल तो कई लोगों में पाये जाते हैं, पर प्रतिभा के धनी कभी कहीं कठिनाई से ही खोज- पाये जा सकते हैं। दैत्य दुष्प्रयोजनों में और देव सत्प्रयोजनों में इसी उपलब्ध शक्ति का उपयोग करते हैं। समुद्र-मंथन जैसे महापराक्रम इसी सामर्थ्य की पृष्ठभूमि से बन पड़े हैं।

सत्संग से उत्थान और कुसंग से पतन की पृष्ठभूमि बनती है। यह और कुछ नहीं किसी समर्थ की प्रतिभा का भले बुरे स्तर का स्थानान्तरण ही है। मानवीय विद्युत के अनेकानेक चमत्कारों की विवेचना करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि यह प्रतिभा नाम से जानी जाने वाली प्राण-विद्युत ही अपने क्षेत्र में अपने ढंग से अपना काम कर रही है। जिसमें इसका अभाव होता है, उसे कायर, अकर्मण्य, डरपोक, आलसी एवं आत्महीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित माना जाता है। संकोची, परावलम्बी एवं मन ही मन घुटने रहने वाले प्रायः इसी विशिष्टता से रहित पाये जाते हैं।

पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, यह प्रतिपादन सही हो या गलत, पर इस मान्यता में सन्देह करने की गुँजाइश नहीं, कि प्रतिभा को आत्मसात् करने के उपरान्त सामान्य परिस्थितियों में जन्मा और पला मनुष्य भी परिस्थितिजन्य अवरोधों को नकारता हुआ प्रगति के पथ पर अग्रगामी और ऊर्ध्वगामी बनता चला जाता है। फूल खिलते हैं, तो उसके इर्द-गिर्द मधुमक्खियाँ और तितलियाँ कहीं से भी आकर उसकी शोभा बढ़ाने लगती हैं, भौंरे उसका यशगान करने में न चूकते हैं, न सकुचाते, देवता फूल बरसाते और ईश्वर उसकी सहायता करने में कोताही नहीं करते।

व्यक्तित्व का परिष्कार ही प्रतिभा परिष्कार है। धातुओं की खदानें जहाँ भी होती हैं, उस क्षेत्र के वही धातु कण मिट्टी में दबे होते हुए भी उसी दिशा में रेंगते और खदान के चुम्बकीय आकर्षणों से आकर्षित होकर पूर्व संचित खदान का भार, कलेवर और गौरव बढ़ाने लगते हैं। व्यक्तित्ववान अनेकों का स्नेह, सहयोग, परामर्श एवं उपयोगी सान्निध्य प्राप्त करते चले जाते हैं। यह निजी पुरुषार्थ है। अन्य सुविधा-साधन तो दूसरों की अनुकम्पा भी उपलब्ध करा सकती हैं, किन्तु प्रतिभा का परिष्कार करने में अपना संकल्प अपना समय और अपना पुरुषार्थ ही काम आता है। इस पौरुष में कोताही न करने के लिए गीताकार ने अनेक प्रसंगों पर विचारशीलों को प्रोत्साहित किया है। एक स्थान पर कहा गया है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है। इसलिए अपने को उठाओ, गिराओ मत।

पानी में बबूले अपने भीतर हवा भरने पर उभरते और उछलते हैं, पर जब उनका अन्तर खोखला ही हो जाता है, तो उनके विलीन होने में भी देर नहीं लगती। अन्दर जीवट का बाहुल्य हो तो बाहर का लिफाफा आकर्षक या अनाकर्षक कैसा भी हो सकता है किन्तु यदि ढकोसले को ही सब कुछ मान लिया जाये और भीतर ढोल में पोल भरी हो, तो ढम-ढम की गर्जन-तर्जन के सिवाय और कुछ प्रयोजन सधता नहीं। पृथ्वी मोटी दृष्टि से जहाँ की तहाँ स्थिर रहती प्रतीत होती है पर उसकी गतिशीलता और गुरुत्वाकर्षण शक्ति इस तेजी से दौड़ लगाती है कि एक वर्ष में सूर्य की लम्बी कक्षा में परिभ्रमण कर लेती है और साथ ही हर रोज अपनी धुरी पर भी लट्टू की तरह घूम जाती है। कितने ही व्यक्ति दिनचर्या की दृष्टि से एक ढर्रा ही पूरा करते हैं, किन्तु भीतर वाली चेतना इस तेजी से गति पकड़ती है कि वे सामान्य परिस्थितियों में गुजर करते हुए भी उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं। सामर्थ्य भीतर ही रहती, बढ़ती और चमत्कार दिखाती है। उसकी को निखारने, उजागर करने पर तत्परता बरती जाय, तो व्यक्तित्व की प्रखरता इतनी सटीक होती है कि जहाँ भी निशाना लगता है, वहीं से आर-पर निकल जाता है।

उन दिनों जर्मनी मित्र राष्ट्रों के साथ पूरी शक्ति झोंक कर लड़ रहा था। इंग्लैंड के साथ रूस और अमेरिका भी थे। वे बड़ी मार से अचकचाने लगे और हर्जाना देकर पीछा छुड़ाने की बात सोचने लगे। बात इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चर्चिल के सामने आयी, तो उनने त्यौरी बदलकर कहा आप लोग जैसा चाहें सोच या कर सकते हैं, पर इंग्लैंड कभी हारने वाला नहीं है। वह आप दोनों के बिना भी अपनी लड़ाई आप लड़ लेगा और जीतकर दिखा देगा। इस प्रचण्ड आत्मविश्वास को देखकर दोनों साथी भी ठिठक गये और लड़ाई छोड़ भागने से रुक गये। डार्विन के कथनानुसार बंदर की औलाद बताया गया मनुष्य, आज इसी कारण सृष्टि का मुकुटमणि बन चुका है और धरती या समुद्र पर ही नहीं अन्तरिक्ष पर भी अपना आधिपत्य जमा रहा है। कभी के समर्थ देवता चन्द्रमा को उसने अपने पैरों तले बैठने के लिए विवश कर दिया है।

लकड़ी का लट्ठा पानी में तभी तक डूबा रहता है जब तक कि उसकी पीठ पर भारी पत्थर बंधा हो। यदि उस वजन को उतार दिया जाय, तो छुटकारा पाते ही नदी की लहरों पर तैरने लगता है और भंवरों को पार करते हुए दनदनाता हुआ आगे बढ़ता है। राख की मोटी परत चढ़ जाने पर जलता हुआ अंगारा भी नगण्य मालूम पड़ता है, पर परत हटते ही वह अपनी जाज्वल्यमान ऊर्जा का परिचय देने लगता है। वस्तुतः मनुष्य अपने सृजेता की तरह ही सामर्थ्यवान है।

लकड़ियों को घिसकर आग पैदा कर लेने वाला मनुष्य अपने अन्दर विद्यमान सशक्त प्रतिभा को अपने बलबूते बिना किसी का अहसान लिए प्रकट न कर सके, ऐसी कोई बात नहीं। आवश्यकता केवल प्रबल इच्छा शक्ति एवं उत्कण्ठा की है। उसकी कमी नहीं पड़ने दी जाय, तो मनुष्य अपनी उस क्षमता को प्रकट कर सकता है, जो न तो देवताओं से कम है और न दानवों से। जब वह घिनौने कार्य पर उतरता है, तो प्रेत-पिशाचों से भी भयंकर

ईसा प्रचार पर जा रहे थे। रास्ते में उनके शिष्य मैथ्यू का गाँव पड़ा। तलाशा तो मिल गया। वह अपने मृत पिता की अंत्येष्टि करने वालों के साथ जा रहा था।

ईसा ने कहा मरो के साथ मरने वालों को जाने दे। तू मेरे साथ चल। उस पर जिसके पथिकों को अमरता का आनन्द मिलता है।

दीखता है। जब वह अपनी श्रेष्ठता को उभारने, कार्यान्वित करने में जुट जाता है, तो देवता भी उसे नमन करते हैं। मनुष्य ही है, जिसके कलेवर में बार-बार भगवान अवतार धारण करते हैं। मनुष्य ही है, जिसकी अभ्यर्थना पाने के लिए देवता लालायित रहते हैं और वैसा कुछ मिल जाने पर वरदानों से उसे निहाल करते हैं। स्वर्ग की देवियाँ ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में उसके आगे पीछे फिरती हैं और आज्ञानुवर्ती बनकर मिले हुए आदेशों का पालन करती हैं। यह भूलोक सौरमण्डल के समस्त ग्रह-गोलकों से अधिक जीवन्त, सुसम्पन्न और शोभायमान माना जाता है पर भुलाया यह भी नहीं जा सकता कि आदिकाल के इस अनगढ़, ऊबड़-खाबड़ धरातल को आज जैसी सुसज्जित स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय केवल मानवी पुरुषार्थ को ही है।

मनुष्य प्रभावशाली तो है, पर साथ ही वह सम्बद्ध वातावरण से प्रभाव भी ग्रहण करता है। दुर्गन्धित साँस लेने से सिर चकराने लगता है और सुगन्धि का प्रभाव शान्ति, प्रसन्नता और प्रफुल्लता प्रदान करता है। बुरे लोगों के बीच, बुराई से संचालित घटनाओं के मध्य समय गुजारने वाले, उनमें रुचि लेने वाला व्यक्ति क्रमशः पतन और पराभव के गर्त में ही गिरता जाता है साथ ही यह भी सही है कि मनीषियों, चरित्रवानों, सत्साहसी लोगों के संपर्क में रहने पर उनका प्रभाव-अनुदान सहज ही खिंचता चला आता है और व्यक्ति को उठाने - गिराने में असाधारण सहायता करता है।

आत्म-विश्वास बड़ी चीज है। वह रस्सी को साँप और साँप का रस्सी बना सकने में समर्थ है। दूसरे लोगों का साथ न मिले, यह हो सकता है, किन्तु अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को मनमर्जी के अनुरूप सुधारा -उभारा जा सकता है। संकल्प-शक्ति की विवेचना करने वाले कहते हैं कि वह चट्टान को भी चटका देती है, कठोर को भी नरम बना देती है और उन साधनों को खींच बुलाती है, जिनकी आशा अभिलाषा में जहाँ-तहाँ प्यासे कस्तूरी हिरण की तरह मारा-मारा फिरना पड़ता है।

मनुष्य यदि उतारू हो जाय, तो दुष्कर्म भी कर गुजरता है। आत्महत्या तक के लिए उपाय अपना लेता है, फिर कोई कारण नहीं कि उत्थान का अभिलाषी अभीष्ट अभ्युदय के लिए सरंजाम न जुटा सके? दूसरों पर विश्वास करके उन्हें मित्र-सहयोगी बनाया जा सकता है। श्रद्धा के सहारे पाषाण-प्रतिमा में देवता प्रकट होते देखे गये हैं, फिर कोई कारण नहीं कि अपनी श्रेष्ठता को समझा-उभारा और संजोया जा सके, तो व्यक्ति ऐसी समुन्नत स्थिति तक न पहुँच सके, जिस तक जा पहुँचने वाले हर स्तर की सफलता अर्जित करके दिखाते हैं।

आत्म निरीक्षण को सतर्कतापूर्वक संजोया जाता रहे, तो वे खोटे भी दृष्टिगोचर होती हैं, जो आमतौर से छिपी रहती हैं और सूझ नहीं पड़ती, किन्तु जिस प्रकार दूसरों का छिद्रान्वेषण करने में अभिरुचि रहती है, वैसी ही अपने दोष-दुर्गुणों को बारीकी से खोजा और उन्हें निरस्त करने के लिए समुचित साहस दिखाया जाय, तो कोई कारण नहीं कि उनसे छुटकारा पाने के उपरान्त अपने को समुचित और सुसंस्कृत न बनाया जा सके। इसी प्रकार औरों की अपेक्षा अपने में जो विशिष्टताएँ दीख पड़ती हैं, उन्हें सींचने-संभालने में उत्साहपूर्वक निरत रहा जाय, तो कोई कारण नहीं कि व्यक्तित्व अधिक प्रगतिशील, अधिक प्रतिभा सम्पन्न न बनने की दशा अपनायी जा सके।

इस संदर्भ में सबसे बड़ा सुयोग इन दिनों है, जबकि नव-सृजन के लिए प्रचण्ड वातावरण बन रहा है, उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में नियन्ता का सारा ध्यान और प्रयास नियोजित है। ऐसे में हम भी उसके सहभागी बनकर अन्य सत्परिणामों के साथ ही, पर प्रतिभा-परिष्कार का लाभ तो हाथों-हाथ नकद धर्म की तरह प्राप्त होता हुआ सुनिश्चित रूप से अनुभव करेंगे।

सृजन-शिल्पियों के समुदाय को अग्रगामी बनाने में लगी हुई केन्द्रीय शक्ति अपने और दूसरों के अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह विश्वास दिलाती हैं, कि यह पारस से सटने का समय है, कल्पवृक्ष की छाया में बैठ सकने का अवसर है। प्रभात पर्व में जागरूकता का परिचय देकर हममें से हर किसी को प्रसन्नता, प्रफुल्लता और सफलता भरी उपलब्धियों का भरपूर लाभ मिल सकता है, साथ ही परिष्कृत-प्रतिभायुक्त व्यक्तित्व संजोने का भी।


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