समस्त उपलब्धियों का मूल ‘मन’

November 1990

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मन की समस्त सफलताओं-असफलताओं का मूल माना गया है। मनुष्य को आगे बढ़ाने, ऊँचे उठाने की प्रेरणा यहीं से मिलती है। शास्त्रकारों ने इसे ही बन्धन और मोक्ष का कारण बताया है-मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयोः” अर्थात् बन्धन और मुक्ति का कारण यह मन ही है। यही मनुष्य का मित्र और शत्रु भी है। वश में किया हुआ मन अमृत के समान और अनियंत्रित मन हलाहल विष जैसा विनाशकारी सिद्ध होता है। मनुष्य को नारकीय एवं घृणित पतित अवस्था तक पहुँचा देना अथवा उसे मानव -भूसुर बना देना मना का ही खेल है।

मन बड़ा चंचल और वासनामय है। इन्द्रियादिक सम्पूर्ण शरीर पर उसी का आधिपत्य है और आत्मा का मन पर। मन सदैव संकल्प-विकल्पों तर्क वितर्कों के जाल जंजाल में उधेड़बुन में उलझा रहता है। वह निश्चल कभी नहीं बैठता और न ही उसे मारा जा सकता है। वह बड़ा समर्थ और बलवान है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है “असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्।’ (गीता 6/35) अर्थात् हे अर्जुन। निस्सन्देह यह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। इसका धर्म सदा गतिशील, चंचल स्वभावयुक्त है ‘चंचलत्व’ मनो धर्मो वन्हिधर्मो यथोष्णता।” वह किसी एक वस्तु और ध्येय पर केन्द्रित नहीं होता। कोई एक सुन्दर कल्पना आती है तो उसके लिए ताने बाने बुनने लगता है। इसके बाद कोई और नई सूझ आती है तो वह पिछली बातों को भूलकर उसमें रम जाता है और उन्हें पूरा करने के लिए तानाबाना बुनने लगता है।

ऐसी बात नहीं है कि मन यह सब अकारण या निरुद्देश्य करता हो। उसकी इस चंचलता के पीछे सुख की आकांक्षा ही निहित हैं वह केवल महत्तर सुख की खोज में घूमता है। उसकी यह प्रवृत्ति अधिक से अधिक विकास के लिए तृप्ति-तुष्टि के लिए होती है। इसीलिए वह जिस बात में जिस दिशा में सुख प्राप्ति की कल्पना कर सकता है, जहाँ समझता है कि यहाँ सुख प्राप्त हो सकता है वहाँ अपनी कल्पना के अनुसार उसे एक सुन्दर और मनमोहक रूप प्रदान करता तथा रंग-बिरंगी योजनाएँ तैयार करता है। मस्तिष्क उसी ओर लपकता है और तदनुरूप शरीर भी उसी दिशा में काम करने लगता है। इस प्रकार वह न जाने किन-किन मृगतृष्णाओं में मनुष्य को भटकाता है और असफलताओं की अधूरे कार्यक्रमों की ढेरियाँ लगा कर जीवन को मरघट जैसा कर्कश बना देता है।

किन्तु अणुशक्ति से भी अधिक प्रचण्ड शक्ति वाले इस मन को जब साध लिया जाता है प्रशिक्षित, विकसित कर लिया जाता है, निर्मल और पवित्र बना लिया जाता है। उसे शुभ और कल्याणकारी विचारों से भर लिया जाता है तो वही निग्रहित मन शिव-संकल्प वाला बन जाता है ओर शाप वरदान से लेकर कहीं भी किसी भी क्षण किसी की भी सहायता कर सकता है-मार्गदर्शन दे सकता है। परिष्कृत पवित्र मन आत्मभाव में लीन होकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

मन का वश में होने का अर्थ उसका बुद्धि के विवेक के नियंत्रण में होना है। बुद्धि जिस बात में औचित्य अनुभव करे, कल्याण देखे, आत्मा का हित-लाभ स्वार्थ समझे, उसके अनुरूप कल्पना करने, योजना बनाने, प्रेरणा देने का काम करने को मन तैयार हो जाय तो समझना चाहिए कि मन वश में हो गया है। क्षण-क्षण में अनावश्यक दौड़ लगाना, निरर्थक स्मृतियों और कल्पनाओं में भ्रमण करना अनियंत्रित मनका काम है। ‘जब वह वश में हो जाता है तो जिस काम पर लगा दिया जाय उसमें लग जाता है।

मन की एकाग्रता एवं तन्मयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उस शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। निग्रहित मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जाएगा उसी ओर आश्चर्यजनक चमत्कार उपस्थित हो जायेंगे। सूर्य की किरणें जब चारों और बिखरी रहती हैं तो उनने गर्मी और रोशनी भर प्राप्त होती है और इसके अतिरिक्त उनका कोई विशेष उपयोग नहीं हो पाता। पर जब आतिशी शीशे द्वारा उन किरणों को एकत्रित कर दिया जाता है तो जरा के स्थान पर धूप से अग्नि जल उठती है और देखते-देखते वह दावानल का रूप धारण कर सकती है। जैसे एक दो इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप का केन्द्रीकरण भयंकर दावानल के रूप में प्रकट हो सकता है वैसे ही मन की बिखरी हुई कल्पना, आकांक्षा और प्रेरणा शक्ति भी जब एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होती है तो उससे फलितार्थों की कल्पना मात्र से आश्चर्य होता है।

जप, तप एवं योगसाधना के विविध विधि विशाल कर्मकाण्डों का सृजन इसी लिए हुआ है कि चित्तवृत्तियाँ एक बिन्दु पर केन्द्रित होने लगें तथा आत्मा के आदेशानुसार उसकी गतिविधियाँ हों। महर्षि पातंजलि ने योग की परिभाषा करते हुए कहा है कि “योगश्चितवृति निरोध” अर्थात् चित की वृत्तियों का निरोध करना, रोककर एकाग्र करना ही योग है। इस दिशा में सफलता मिलते ही अन्तरात्मा का परमात्मा से सायुज्य हो जाता है और वह उनमें सन्निहित समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। वशवर्ती मन के प्रयोग से संसार के किसी कार्य में प्रतिभा, यश, विद्या, स्वास्थ्य, भोग, अन्वेषण आदि जो भी वस्तु अभीष्ट होगी, वह निश्चित ही प्राप्त होकर रहेगी। उसकी प्राप्ति में संसार की कोई शक्ति बाधक नहीं हो सकती। पारमार्थिक आकांक्षाओं की पूर्ति से लेकर समाधि सुख तक एकाग्र मन से उपलब्ध होती है।

निग्रहित मन की इस शक्ति को भारतीय महर्षियों मुनियों ने बहुत पहले जान लिया था। उसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ओर आश्वलायन के संवाद में याज्ञवल्क्य ने कहा है-मन ही देवता है। मन अनन्त है अतः उस मन से मनुष्य अनन्तलोक भी जीत लेता है”। प्रज्ञोपनिषद (2/2) में भी मन को देवता कहा है। छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार ने नारद को उपदेश देते हुए कहा है -”मन ही आत्मा है, मन ही लोक है और मन ही ब्रह्मा है। तुम मन की उपासना करो। उसकी उपासना करने वाला, जहाँ तक उसकी गति है वहाँ तक वह स्वेच्छापूर्वक जा सकता है।” मुक्तिकोपनिषद् में वर्णन है -”सहस्रों अंकुर, त्वचा, पते, शाखा फल-फूल से युक्त इस संसार वृक्ष का यह मन ही मूल है। वह संकल्प रूप है। संकल्प को निवृत्त करके उस मनस्तत्व को सुखा डालो जिससे यह संसार वृक्ष भी सूख जाये। “ तैत्तिरीय उपनिषद् में मन को ब्रह्म बतलाया है और कहा है कि ‘सचमुच मन से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर मन से ही जीते हैं तथा इस लोक से प्रयाण करते हुए अन्त में उसमें ही सब प्रकार से प्रविष्ट हो जाते हैं। गीता 10/12 में भगवान कृष्ण ने कहा है-इन्द्रियों में मन मैं हूँ।” वेद में इसे ही “ज्योतीषां ज्योति” कहा गया है।

इस प्रकार सभी शास्त्रकारों और योगी सिद्ध महापुरुषों ने मन को समस्त शक्तियों का भण्डार निरूपित करते हुए इसको वश में करना आवश्यक बताया है, क्योंकि जीवसत्ता और ब्रह्मसत्ता की बीच यदि कोई चेतन सत्ता काम करती है, उन्हें मिलाती है या विलग करती है तो वह मानसिक चेतना ही है। ऋग्वेद में कहा है तो वह मानसिक चेतना ही है। ऋग्वेद में कहा है” हे मनुष्य! यदि तू मन को स्थिर करने में समर्थ हो जाये तो तू स्वयं ही समस्त बाधाओं और विपत्तियों पर विजय पा सकता है।”

मन की पवित्रता, निर्मलता, एकाग्रता स्थिरता और निग्रह के लिए भारतीय तत्त्वदर्शियों योगाचार्यों ने विशिष्ट साधना उपक्रमों का आविष्कार किया और बताया है कि सतत् अभ्यास और विवेक वैराग्य द्वारा मन को वशवर्ती बनाना जाता है। अर्जुन को सम्बोधित करते हुए गीता के छठे अध्याय के 35 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-” मनोदर्निग्रहंचलम अभ्यासेन त कौन्तेय वैराग्येण च गृहृयते।” आद्यशंकराचार्य ने इसकी विशद व्याख्या की है। यहाँ अभ्यास का अर्थ है कि वे योग साधनायें जो मन को रोकती हैं। वैराग्य का अर्थ व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना। प्रलोभन को जीतना ही वैराग्य है। आद्यशंकराचार्य के अनुसार मन का सीधा सम्बन्ध श्वास-प्रश्वास से है। इस प्रक्रिया को नियंत्रित नियमित करने से मनःसंस्थान को वशवर्ती बनाया जा सकता है। प्राणायाम एवं ध्यान द्वारा मन की चंचलता घुड़दौड़ विषय-लोलुपता और ऐषणाओं प्रकृति को रोककर ऋतम्भरा बुद्धि के अन्तरात्मा के अधीन किया जा सकता है।

निश्चय ही मन की शक्तियाँ विलक्षण हैं। मनुष्य का सुख-दुख बन्धन-मोक्ष सभी इसी के अधीन है। तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बहुत पहले ही कह दिया है “मनः मातस देवो चतुर्वर्ग प्रदायकम्” अर्थात् मन की शक्ति में धर्म अर्थ काम और मोक्ष दिलाने वाली सभी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। यदि मन शुद्ध पवित्र और संकल्पवान बन जाए तो जीवन की दिशाधारा ही बदल जाय। इसीलिए कहा गया है कि जिसने मन को जीत लिया उसने सारा संसार जीत लिया।


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