भाव सम्पदा का धनी

November 1990

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हजारों की भीड़ दम साधे सुन रही थी। इसमें सम्भ्रान्त - नागरिक थे और आदिवासी भी। सभी एकम-एक हो रहे थे। भेद आड़ी तिरछी लकीरें तो बुद्धि अपनी तिकड़मी स्याही से खींचा करती है, पर यहाँ तो भावनाओं की बारिश ने सारी तिकड़म धोकर रख दी थी। कटक के इस छोटे से गाँव में आश्चर्यजनक रीति से उनका आना हुआ। उन्हें हिन्दी में भाषण का अभ्यास था किन्तु इस आशंका से कि कहीं ये लोग हिन्दी न समझ पाए, उड़िया अनुवाद की व्यवस्था कर दी गयी।

भाषण कुछ ही देर चला था कि भीड़ ने आग्रह किया आप हिन्दी में ही बोलें। सीधी सच्ची बातें जो हृदय से निकलतीं और हृदय तक पहुँचती हैं, उनके लिए बनावट और शब्द विन्यास की क्या जरूरत? आपकी सरल भाषा में जो माधुर्य छलक रहा है, उसी से काम चल जाता है, दोहरा समय लगाने की आवश्यकता नहीं। सचमुच उनके शब्द रह-रह कर दिलों में ज्वार ला देते।

उनकी सत्योन्मुख आत्मा पुलकित हो उठी। उन्होंने अनुभव किया सत्य और निश्छल अन्तःकरण के मार्गदर्शन भाषा-प्रान्त के भेदभाव से कितना परे होते हैं? आत्मा बुद्धि से नहीं हृदय से पहचानी जाती है। समाज सेवक जितना सच्चा और सहृदय होता है, लोग उसे उतना ही चाहते हैं फिर चाहे उसकी योग्यता नगण्य सी क्यों न हो? आत्मिक तेजस्विता ही लोक सेवा की सच्ची योग्यता है यह मान कर वे हिन्दी में भाषण करने लगे। अनेकों को सन्देह था कि उनकी वाणी उतना प्रभावित नहीं कर सकेगी पर उनकी भाव विह्वलता के साथ सब भाव विह्वल होते गये। सामाजिक विषमता, राष्ट्रोद्धार और दलित वर्ग के उत्थान के लिए उनका एक-एक आग्रह सुनने वालों के दिलों में बैठता चला गया।

भाषण की समाप्ति पर वह बोले - “आप लोगों से हरिजन फण्ड के लिए कुछ धन मिलना चाहिए। हमारी सीधी-सादी सामाजिक आवश्यकताएँ आप सब के पुण्य सहयोग से पूरी होनी हैं।” शब्दों की समाप्ति के साथ रुपयों-पैसों की बौछार होने लगी। जिसके पास जो कुछ था देता चला गया।

एक आदिवासी लड़का भी उस सभा में उपस्थित था। बुद्धि भले उसकी अधकचरी रही हो, पर भावनाएँ पूर्ण परिपक्व थीं। जेब में हाथ डाला तो हाथ सीधा पर कर गया। जेब ही फटी निकली पैसा तो क्या होता? एक क्षण के लिए अकुलाहट की रेखाएँ चेहरे पर चमकी। भावनाओं का आवेग सम्भाले नहीं सँभल रहा था। कुछ न कुछ तो करना ही है। जब सभी लोग लोक मंगल क लिए अपने श्रद्धा सुमन भेंट कर रहे हों, ऐसे में वह चुप रहे भी तो कैसे?

भीड़ को पार कर घर की ओर भागता दिखा। देखा तो अनेकों ने पर संवेदनाओं की इबादत न समझ सके। थोड़ी ही देर बाद कपड़ों में छुपायें कोई वस्तु लेकर दौड़ता हुआ लौटा। ठीक उन्हीं के सामने उसके कदम रुके। उनने धीरे से कपड़ा हटाया यह गोल-मटोल बड़ा से काशीफल था। इसे देखकर अनेकों की आँखों में अनेक तरह के भाव उभर उठे।

इसे स्वीकार करते हुए उन्होंने बालक की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा कहाँ से लाए हो यह काशीफल।

“मेरे छप्पर में लगा था बापू!” लड़के ने सरल भाव से कहा। उसका साँवला चेहरा एक अनोखी आभा विकरित कर रहा था। हमने अपने दरवाजे पर इसकी बेल लगाई है, उसी का फल है, कहते हुए उसने दोनों जेबें खाली करके दिखा दीं।

आँखें छलक आयीं भावनाओं के साधक की। उनने पूछा बेटे आज फिर सब्जी किसकी खाओगे।

“आज नमक से खा लेंगे बापू! पर आप इसे लौटाना नहीं, नहीं तो ..........। गला रुंध जाने के कारण आगे के शब्द फँस कर रह गये।

दोनों ने एक क्षण के लिए एक दूसरे की ओर देखा। भावों की अनेकों तरंगें दोनों के अन्तर में उभरीं और एक दूसरे में समा गईं। काशीफल भण्डार में रखते हुए बोले तुम्हारा यह काशीफल मेरी आज की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। जब तक त्याग और लोक सेवा की भाव सम्पदा के धनी तुम जैसे लोग देश में रहेंगे तब तक देश-धर्म -संस्कृति को कोई भी शक्ति दबा कर नहीं रख सकेगी।


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