सच्चा ब्राह्मणत्व

November 1990

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प्रातःकाल का समय।

दक्षिणेश्वर के उद्यान में एक फूस की कुटिया के सामने वट वृक्ष की घनी छाया में एक तरुण ब्राह्मण बैठा था।

उस स्थान के सम्मुख ही रानी रासमणि द्वारा बनवाएँ गये मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह उत्साहपूर्वक मनाया जा रहा था। रूढ़ संस्कार ग्रस्त ब्राह्मणों ने केवट जाति की महिला द्वारा बनवाएँ गये मन्दिर में प्रतिष्ठा करने से इंकार कर दिया था इसलिए रानी ने मन्दिर की सम्पत्ति कुलगुरु को दान कर दी। इससे ब्राह्मण वर्ग भी सन्तुष्ट हो गया।

प्रतिष्ठा पर्व पर रानी रासमणि ने ब्रह्म भोज दिया। हजारों नर-नारी आ-जा रहे थे। ब्रह्म भोज चल रहा था। भाँति-भाँति के ढेरों पकवान आते, ब्राह्मण भोजन करते और दक्षिणा स्वरूप एक सोने का सिक्का लेकर चलते बनते। परन्तु मन्दिर के सामने एक बारह वर्षीय बालक इस समारोह में बड़ी दौड़-धूप कर रहा था। वह मन्दिर की पृष्ठ दिशा में बनी कुटिया में इन दिनों रह रहा था। बारम्बार आता और चला जाता। साधारण वेश-भूषा पर, आकृति और व्यवहार में इतना लुभावनापन कि हर कोई आकृष्ट हो उठता। किन्तु इससे क्या? वह अविचल भाव से यह सब देख रहा था, न भोज में जाने की इच्छा और स सामने ही हो रहे कोलाहल का प्रभाव। शान्त ध्यान मग्न मन्दिर की और टकटकी बाँधे-देखे जा रहा था।

दोपहर ढल गयी। अतिथियों की भीड़ कम होने लगी। उसी बालक का ध्यान उस निर्विकार चित ब्राह्मण की ओर गया और पहुँचा उसके समीप। पूछा-आप कौन हैं?” “अभ्यागत” संक्षिप्त सा उतर मिला। “क्या आप ब्राह्मण कुल में जन्मे हैं? “हाँ” “भोज हुआ” “नहीं” ब्राह्मण ने कहा।

सब ब्राह्मण लोग तो भोजन करके चले गये फिर आप यहाँ क्यों बैठे हैं? जाइए भोजन कीजिए न! रानी एक मुहर दक्षिणा में दे रही हैं।

“मैं भिखारी नहीं हूँ” ब्राह्मण बोला “भोजन करने और दक्षिणा लेने यहाँ नहीं आया हूँ।”

तो किस लिए आये हैं फिर बालक ने पूछा। “दर्शन के लिए। जिसके पुण्य प्रताप का यह परिणाम दीख रहा है। मैं उन्हीं पुण्यात्मा रानी माँ के दर्शन करना चाहता हूँ।

उनके दर्शन तो अभी नहीं हो सकेंगे। रानी माँ! जब तक सब ब्राह्मण भोजन नहीं कर लेंगे, तब तक वे अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगी। मन्दिर में रहेंगी।

तो जब दर्शन हो सकेंगे तब करूँगा ब्राह्मण ने कहा और बालक चला गया। सूर्यास्त के समय सब ब्राह्मणों के भोजन कर चुकने के बाद रानी रासमणि मन्दिर से बाहर निकलीं, साथ में बालक भी था। ब्राह्मण साधु के सन्मुख दोनों हाथ रुक गए। रानी न दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण को प्रणाम किया इसके पूर्व ही ब्राह्मण ने धरती पर लेटकर दण्डवत प्रणाम किया। रानी चौंक कर पीछे हटी। आश्चर्य भरी वाणी में कहा “यह आपने क्या किया देवता! मैं अस्पृश्यता शुद्रा। आपने मुझे प्रणाम कर पाप चढ़ाया। तुम दिव्य रूपा हो माँ सर्वश्रेष्ठ मानवी। मैं प्रातः अरुणोदय वेला से ही आपके दर्शन की अभिलाषा लेकर बैठा हूँ”

“ आपने भोजन नहीं किया। आइए भोजन कीजिए।” “आप अपने हाथ से पकाकर खिलाए तो ही भोजन कर सकता हूँ। “ यह कैसे सम्भव है? मैं जाति की केवट जो हूँ।”

हाड़-माँस का कलेवर कहाँ उपजा। कहाँ पला? इससे क्या? बात अन्तःकरण के परिष्कार की है। इसकी परिष्कृति आप सही और कहाँ है?

रानी ने बहुतेरा समझाया। क्षमा माँगी। पर ब्राह्मण कब मानने वाला था। जाति पाँति और ऊँच-नीच परक मान्यताओं की व्यर्थता कहकर उसने पूर्व वृत्तांतों पर उल्लेख किया और कहा “जो इतना विरोध सह सकता है वह नीच या अछूत नहीं, ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ है। आप एक ही गलती कर रही हैं कि अपने आत्म सम्मान को विस्मृत कर चुकी हैं। अन्यथा जिस दिन नैष्ठिक ब्राह्मण नंदकुमार को फाँसी चढ़ाई थी, उस समय ये ब्राह्मण कहाँ थे? इन्होंने शाप से अंग्रेजों से भस्म क्यों नहीं कर दिया और आप जाति से शूद्र हैं तो आपके द्वारा प्रतिष्ठित देवता का पूजन नमन भी नहीं कर सकेंगे।

“परन्तु आप मेरे हाथ से भोजन करेंगे तो ब्राह्मण लोग आपको जाति बहिष्कृत कर देंगे शंका और आश्चर्य से रानी की निर्मल पारदर्शी आँखें थोड़ा फैल गई।

“वे क्या मुझे जातिच्युत करेंगे “-ब्राह्मण ने ठहाका लगाते हुए कहा-मैं तो पहले ही इन सब भोजन भट्टों को जाति बहिष्कृत चुका हूँ।”

उसके हठ के आगे रानी की एक नहीं चली। रानी ने अपने साथ वाले बालक से सब सामग्री जुटा देने के लिए कहाँ अब यह खबर गाँव में पहुँची कि एक ब्राह्मण रानी के हाथ का भोजन करने वाला है तो सभी लोग आ पहुँचे। विवाद होने लगा। राम और शिव के, शबरी और गोप बालों के, धर्म ओर शास्त्र और महाभारत के अनेकों उदाहरण दिए गए। अन्त में यही निष्कर्ष निकला ब्रह्मपरायण ब्राह्मण वह है जिसे सर्वत्र व्याप्त अद्वय सत्ता अनेकों रूपों में व्यवहार करती अनुभव हो। उसका कर्तव्य है कि शूद्र चाण्डाल को भी ब्राह्मणत्व के स्तर तक पहुँचाए। जो दलितों-अनगढ़ों का उन्नायक न बन सके वह ब्राह्मण कैसा? कहने वाले की तेजस्विता ने सभी को मौन कर दिया।

पास खड़ा बालक सारे वार्तालाप को गहराई से सुर रहा था। आखिर वह भी ब्राह्मण ही तो था। उसे भी कर्तव्य का निर्वाह करना था, और किया भी। समूचे विश्व ने इस बालक को रामकृष्ण परमहंस के रूप में जाना। बाद के दिनों में वह इस घटना को अपने शिष्यों का बड़ी रोचक शैली में सुनाकर कहते आखिर ऐसे मैं सच्चा ब्राह्मण बना।


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