मनुष्य आहार पर जीवित रहता है। पर वह आहार तीन से मिलकर बना है। अन्न, जल और वायु। इसमें से एक का अभाव हो तो आहर न बनेगा। एक ही हो तो भी काम चलने वाला नहीं है। उसी प्रकार अध्यात्म जीवन के लिए भी जिस आहार की आवश्यकता है वह ज्ञान कर्म और भक्ति के समन्वय से बनता है। इनमें से एक कम पड़े तो भी काम न चलेगा, अथवा मात्र एक ही अपनाया जाए तो भी बात अधूरी रह जायेगी।
ज्ञान का अर्थ है - जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं दिशा धारा का सही निर्धारण। यह जानकारी अधूरी या गलत हो तो मनुष्य भटकता रहेगा। कहीं देखेगा, कहीं चलेगा। भ्रान्त को अर्धविक्षिप्त माना जाता है। हर काम समुचित एवं समग्र जानकारी माँगता है। इसलिए शिक्षा को आवश्यक माना गया है। उसके बिना सही योजना बनाना संभव नहीं होता।
ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा है-कर्म। काम किये बिना कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। परिणाम तक पहुँचने के लिए क्रियाशील बनना पड़ता है। निष्क्रियों के लिए कुछ प्राप्त कर सकना तो दूर अंग-अवयवों को संचालन तक नहीं बन पड़ता। स्वास्थ्य को सही रख सकना तक संभव नहीं होता। इस संसार में कुछ भी प्राप्त करना हो तो कर्म के मूल्य पर ही मिलता है।
आध्यात्मिक आधार का तीसरा पक्ष है - भक्ति। भक्ति अर्थात् अनुरक्ति। लगाव, दिलचस्पी, प्रेम के बिना सब कुछ शून्य बना रहता है। दिलचस्पी के बिना प्रयोजन में मन ही नहीं लगता। मन न लगे तो ज्ञान का संकलन कैसे हो? परिश्रम कैसे किया जाए? उदासी छायी रहे तो लकीर भर पिटती है। बेगार भुगतने की तरह जो कुछ भी किया जाता है ठीक तरह बन ही नहीं पड़ता। सोचा और सीखा सब कुछ भूल जाता है।
इन दिनों भक्ति को ही सब कुछ मान लिया गया है। भक्ति माने ईश्वर उपासना पर लंगड़ी उपासना न तो ठीक तरह बन पड़ती है, न उसका कोई स्वरूप ही स्पष्ट होता है न मन लगता है न रस आता है न आनंद। जिस ईश्वर की भक्ति करने का रिवाज है, वह मनोकामना पूरी करने की मशीन है। लाटरी खरीदने की तरह लोग हजार मनोकामनाएं लेकर उल्टी-पुल्टी माला घुमाते है। पुष्य अक्षत चढ़ाते है पर जो चाहा गया है वह इतना सस्ता कहाँ है? यदि इतनी सरलतापूर्वक ईश्वर तथाकथित भक्तजनों की इच्छाएं पूरी कर दिया करे तो फिर किसी को योग्यता प्राप्त करने की, पुरुषार्थ की, साधन जुटाने की तनिक भी आवश्यकता न पड़ा करें। इतना सस्ता सौदा खरीदने से कौन चूकेगा? साँसारिक अनेकानेक कामनाओं की पूर्ति और साथ में मुक्ति आदि का लाभ। यही है आज के पूजा पाठ की पृष्ठभूमि। देखा जाता है कि जो चाहा गया है वह पल्ले नहीं पड़ा तो निराश होकर उस झंझट से हाथ खींच लिया जाता है अथवा आदत अभ्यास की तरह किसी तरह लकीर पिटती रहती है।
भक्ति की परिभाषा तो लोगों के मस्तिष्क में सर्वथा अधूरी हैं। ज्ञान की समग्रता के बिना भ्राँति के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आता। ज्ञान और भक्ति के बीच की एक बड़ी इकाई है-कर्म। कर्तव्य, फर्ज, जिम्मेदारी, ड्यूटी। यह सारा सरंजाम जब पूरी तरह जुटता है तब अध्यात्मक का आहर पकता है।
ज्ञान का अर्थ है - आत्मज्ञान। वैसा आत्मबोध जैसा भगवान बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे प्राप्त हुआ था। जीवन का उद्देश्य, स्वरूप और उपयोग समझ में आने पर मनुष्य ईश्वर के इस बहुमूल्य उपहार का श्रेष्ठतम उपयोग करने का प्रयत्न करता है। मणि को काँच समझकर उसे इधर से उधर ठुकराते फिरने वाले जीवन को लिप्सा, तृष्णा, अहंता की पूर्ति में खर्च करते हुए अपने को बुद्धिमान मानते है। वासना और सम्पदा के निमित्त ही वह जीवन समाप्त हो जाता है जो चौरासी लाख योनियों में भटकते के उपरान्त एक बार मिलता है। जीवन पारस पत्थर है, इसका सदुपयोग करने पर कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। ऋषि और देवात्मा बना जा सकता है। अपना तथा असंख्यों का उद्धार किया जा सकता है पर ऐसा कुछ बन नहीं पड़ता, क्योंकि जीवन का स्वरूप ह विदित नहीं हो पाता। आत्मबोध होने पर भेड़ों के झुंड में पले हुए सिंह की तरह हेय स्थिति में नहीं पड़ा रहना पड़ता।
ज्ञानयोग व्यक्तिगत नीति, नियमों का पालन करने संयमी तपस्वी बनने से संबंधित जितने भी व्यक्तिगत अनुशासन है उन्हें समझने और पालन करने के दायरे में घूमता है। जीवन का श्रेष्ठतम स्वरूप क्या हो सकता है। एक आदर्शवादी का चिंतन किन मर्यादाओं के पालन पर निर्भर रहता है? यह सभी बातें विस्तारपूर्वक समझने और उनके पालन में जो उतार चढ़ाव आते है उनका समाधान ज्ञानयोग के अंतर्गत आता है।
मनुष्य में देवत्व की झाँकी किन विशिष्टताओं के समावेश से हो सकती है? उनके पालन का कार्यक्रम और साहस किस प्रकार उगता और निभता है, यही ज्ञानयोग है। संक्षेप में वैयक्तिक नीति मर्यादाओं का पालन करते हुए आत्मा का प्रत्यक्ष जीवन में किस प्रकार निर्वाह होता है। इसे ज्ञानयोग समझा जाना चाहिए।
कर्मयोग का तात्पर्य है-समाज के प्रति निष्ठावान और सेवा-भावी होना। ईश्वर के विश्व उद्यान को सींचना, उसे सुरम्य और सुविकसित बनाना-ईश्वर ने मनुष्य का यह कर्तव्य निर्धारित किया है। इससे व्यक्तियों को सुसंस्कृत और परिस्थितियों को सुविकसित बनाने वाले सभी कार्य सम्मिलित हैं। शरीर पोषण के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपनी क्षमताओं को लोकमंगल के लिए खपा देना कर्मयोग है। कर्तव्य करते हुए जीवन की सफलता मानना और प्रसन्न रहना यही कर्मयोग है।
ज्ञानयोग और कर्मयोग में अपने प्रति कठोरता और समाज के प्रति सेवा भावना को चरितार्थ करना आता है।तीसरा क्षेत्र भावनाओं का रह जाता है। भाव संवेदनाएं ही सरसता का आनंद देती है। प्रेम को परमेश्वर कहा गया है। यह प्रेम आदर्शों के प्रति, लोकमंगल के प्रति तो होना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त संपर्क क्षेत्र के प्रत्येक मनुष्य से प्राणी से आत्मीयता को घनिष्ठ करना यह प्रेमयोग का भक्तियोग है। ईश्वर सर्वव्यापी चेतना है। उसके सा प्यार के संबंध बाँधना ईश्वर भक्ति है। इसका अभ्यास करने के लिए उसकी साकार प्रतिमा कल्पित की जाती है और उसके साथ एकाग्रता जोड़ने का अभ्यास किया जाना है। एकात्मता के समर्पण का भाव है। ऐसा किये बिना दैन ही बना रहेगा। जब तक अभ्यास काल चल रहा है। तब तक ईश्वर की एक व्यक्ति विशेष के रूप में मान्यता रखी जा सकती है। राम, कृष्ण हनुमान, अल्लाह, ईशु की छवियां प्राचीन काल से प्रचलित है। उनमें से जो भी अपने को अनुकूल पड़ती हों उसकी छवि की अधिक स्पष्ट कल्पना करना और उसके साथ अधिक प्रेम भरे आत्मीयता की भावना करना - यह भक्ति भावना का प्रचलित उपक्रम है। उस छवि के साथ माता पिता सखा स्वामी आदि के सम्बन्ध जोड़े जा सकते हैं। इतने पर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि सर्वव्यापी चेतना सत्ता की कोई वास्तविक छवि नहीं हो सकती। यदि कोई वास्तविक छवि है तो वह है जो अर्जुन और यशोदा को कृष्ण के विराट ब्रह्म के रूप में दिखाई थी। राम ने कौशल्या और काकभुशुंडि जी को उसी विराट ब्रह्म के दर्शन कराए थे। उसकी भक्ति करना, प्राणिमात्र के साथ भाव संवेदना करना, आत्मीयता भरे प्रेम संबंध जोड़ना हो सकता है। वह प्रयोग वस्तुतः अपने अंतःकरण को विराट ब्रह्म के प्रति भाव घनिष्ठ संवेदनाओं से भर लेना है। इसका व्यावहारिक स्वरूप यही हो सकता है कि सब को अपना और अपने को सब का समझा जाए।
संक्षेप में आत्मिक प्रगति का पोषण प्राप्त करने के लिए व्यक्तित्व में उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र का समावेश करने के रूप में ज्ञानयोग चरितार्थ करना चाहिए। लोकमंगल को प्रमुखता देते हुए समाज सेवा में निरत रहने के रूप में कर्मयोग का पालन करना चाहिए और साथ ही अंतरात्मा की आत्मीयता से प्रेम भावना से ओत-प्रोत रखना चाहिए। यह भक्तियोग है। तीनों योगों का व्यावहारिक जीवन में अधिकाधिक समावेश करते हुए पूजा पाठ का जप तप का जितना संभव हो अभ्यास करते रहना चाहिए। किन्तु मूलभूत दर्शन को कभी नहीं भूलना चाहिए। अंतःकरण से उद्भूत श्रद्धा ज्ञानजन्य प्रज्ञा के अभाव में बहिरंग के सारे कृत्य अर्थहीन है।