चमत्कार अध्यात्म नहीं है

March 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

*******

एक राजा को बढ़े-चढ़े सिद्ध पुरुष की खोज थी। उसके मिल जाने पर वह उसका शिष्य बन जाता और सिद्ध की करामातों से-प्रकारान्तर से-अनेकों लाभ उठाते रहने की उसकी योजना थी।

सिद्ध की पहचान कैसे हो? इसके लिए चमत्कार प्रदर्शन कर सकना ही आम लोगों की कसौटी है। राजा ने भी परख का वही माध्यम अपनाया। एक बहुत ऊँचा बाँस मैदान में गाड़ा। उसके ऊपर एक सोने का कमण्डलु लटकाया गया। घोषणा की गई कि जो कोई इस बाँस पर चढ़कर स्वर्ण का कमण्डलु उतार लायेगा, उसे कमण्डलु के अतिरिक्त और भी बड़ा पुरस्कार मिलेगा। राजा उसका शिष्य बनेगा। प्रजा भी राजगुरु को ही अपना गुरु मानेगी। सिद्ध पुरुष को राजघराने में ही महल मिलेगा और उसकी सारी आवश्यकताएं राज-कोष से ही पूरी होती रहेगी।

लालच बड़ा था, पर परीक्षा भी कठिन थी। अनेक सन्त विद्वान आये पर इतनी कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होने का कोई साहस न कर सका।

बहुत दिन बाद एक दुर्बल-सा बौद्ध भिक्षु आया। उसने चुनौती स्वीकार कर ली। खुले मैदान में राज दरबार लगा। हजारों की संख्या में दर्शकों ने जय-जयकार किया। राजगुरु के रूप में उसका वरण किया गया। सारी प्रजा भी उसकी शिष्य बन गयी।

यह सब प्राप्त करने के उपरान्त भिक्षु का मन आया कि भगवान बुद्ध के पास जैतवन चलना चाहिए। तथागत को तथा अपने सभी गुरु भाइयों को अपनी विशिष्टता का परिचय देना चाहिए, सभी को अपनी महिमा से परिचित करा दिया जाए। राजा ने सवारी और सेवकों का प्रबन्ध कर दिया। रास्ता पार करते हुए वह अपने गुरु धाम जा पहुँचा।

तथागत ने समाचार सुना तो वे बड़े सोच में पड़ गये। दूसरे दिन सभी भिक्षुओं को गोष्ठी में एकत्रित किया। तथागत ने उसे राजगुरु भिक्षु का उदास मन से विवरण सुनाया। साथ ही यह भी कहा, “वह भिक्षु बनने से पहले नट था। बाँस पर चढ़ने पर चढ़कर सिद्धाई जताई। यदि ऐसा ही होता रहा तो सभी नट, बाजीगर सिद्ध पुरुष बन जायेंगे और अपनी धूर्त्तता से धर्म के नाम पर स्वार्थ साधन करेंगे।

उन्होंने सभी शिष्यों को आगाह किया कि उनमें से कोई ऐसी प्रवंचना न करे। छल-माध्यम अपना कर धर्म प्रचार का आडम्बर न करे।

स्वर्ण कमण्डलु को सबके सामने तोड़ा गया और उन टुकड़ों को नदी में बड़ा देने का आदेश दिया गया। साथ ही यह भी कहा गया कि बुद्धसंघ का कोई सदस्य न तो चमत्कार दिखाये न सिद्ध बन कर किसी की मनोकामना पूर्ण करें। उसका कर्तव्य तो धर्म-चक्र प्रवर्तन भर है, जो आत्म-शुद्धि के लिए की गई तप-साधना से ही बन पड़ता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles