दृष्टिकोण का सम्यक् परिष्कार

March 1988

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नेत्र न होने पर अन्धा मनुष्य अनेक सुख-सुविधाओं से वंचित रह जाता है। उसे दूसरों पर अधिकांश कार्यों के लिए पराश्रित रहना पड़ता है। समुचित स्थान प्राप्त करना और प्रगति पथ पर तेजी से आगे बढ़ सकना भी अपेक्षाकृत कम ही सम्भव हो पाता है। इसीलिए “आँख गई तो जहान गया” की लोकोक्ति अक्सर सुनी जाती है। आँखों में विकार भर जाने से, छोटा-मोटा दुःख दर्द खड़ा हो जाने से लोग अधिक चिंतित और चौकन्ने होते है। उपचार में कमी नहीं रहने देते। सोचते है आँखें चली गई तो क्या होगा?

आम-लोग चर्मचक्षुओं को ही देखते और जानते है उन्हीं को सौंदर्य का प्रतीक मानते हैं। आँखों में आँखें डालकर एक दूसरे के मनोभावों को परखते है। उन्हीं क सहारे अपना व्यवहार, व्यवसाय चलाते है। अन्य इन्द्रियों का जीवन में जितना महत्व है उससे कम नहीं, वरन् अधिक बड़ी भूमिका चक्षुओं की है पर यह समस्त गुण गान चर्मचक्षुओं के ही किये जाते है।

मनुष्य को ऐसे अदृश्य चक्षु भी उपलब्ध हैं जो प्रत्यक्षतः चेहरे पर सटे दिखाई नहीं पड़ते, पर उन्हें परोक्ष रूप से महती भूमिका निबाहते देखा जा सकता है। यह है ज्ञानचक्षु। इन्हें प्रजा-चक्षु भी कहते है। इनका कर्तव्य दूरदर्शी विवेकशीलता के रूप में दीख पड़ता है। इन्हें आमतौर से बन्द ही पाया जाता है। प्रायः लोग उतनी ही परिधि में देख-भाल कर पाते हैं, जितना कि प्रत्यक्ष आंखें देख पाती है। इतने ही क्षेत्र को अपनी सीमा समझते हैं। उसी दायरे में कुछ सोचने की, करने की आवश्यकता समझते है। घाटे और नफे को भी इसी सीमा में घटित होने वाले घटना-क्रम के आधार पर मूल्याँकन करते है। प्रगति भी इसी सीमा में सीमित रहती है। एक प्रकार से इतनी ही परिधि में उनका अपना संस्कार सिकुड़ा हुआ होता है।

नेत्रों की दृष्टि कम हो जाने पर दूर की चीजें दीखना बंद हो जाता है और जिसे देखना है उसे आँखों के समीप लाना पड़ता है। दूर रहने पर एक धुँधली-सी छवि ही चलती फिरती दीखती है जो इस विशाल विश्व के कण कण में बिखरा पड़ा है, जो युग युगान्तरों से बढ़ता चला आया है।

यों अशिक्षितों को भी कूप मंडूक कहते हैं, वह भी अपने निकटवर्ती तथा उपलब्ध जानकारी से ही परिलक्षित होते है। उसी से प्रभाव परिष्कार प्राप्त करते है। संसार कितना विस्तृत है और उसमें कितनी विविधताएं, ज्ञान सम्पदाएं भरी पड़ी है, इसे जान सकना उनकी सीमित दृष्टि के लिए संभव ही नहीं हो सकता। पुस्तकों के पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से वे जितना जान सकते है उसके लिए अवसर ही नहीं रहता। सीमित ज्ञान के आधार पर ही उन्हें जानकारियों पाने, निष्कर्ष निकालने और कदम उठाने का अवसर मिलता है। इन परिस्थितियों को दुर्भाग्यपूर्ण ही कहना चाहिए। अशिक्षा एक प्रकार की दरिद्रता है, जिसके कारण ज्ञानधन कमा सकने और सच्चे अर्थों में धनी बनने का सुयोग प्राप्त कर ही नहीं पाते। विद्वानों की, सभ्यजनों की पंक्ति में बैठ सकना उनके लिए संभव ही नहीं हो पाता। बहुज्ञता और सभ्यता की दृष्टि से उनमें अनेकों त्रुटियाँ पाई जाती है।

निरक्षरों और साक्षरों की दृष्टि में स्तर में अन्तर रहने के अतिरिक्त यह भी जानना आवश्यक है कि इन दोनों ही स्थितियों से ऊंची है-दिव्य-दृष्टि। जिसको सम्यक् दृष्टि भी कहा गया है। दूसरे शब्दों में इसे दूरदर्शी विवेकशीलता भी कहा जा सकता है। यह जिन्हें उपलब्ध है, उन्हीं की मेधा तत्व दर्शन कर सकने में समर्थ होती है। यथार्थता का सत्य का दर्शन इन्हीं से बन पड़ता है। ईश्वर का साक्षात्कार भी इन्हीं के सहारे संभव है।

चर्मचक्षुओं से मिट्टी का ढेला अनगढ़ स्थिति में ही दीख पड़ता है। उसका कुछ मूल्य भी नहीं होता। किन्तु जब वैज्ञानिक उपकरणों से उसका वर्गीकरण, विश्लेषण किया जाता है तो उसे परमाणु समुच्चय के रूप में जाना जाता है। इसमें से प्रत्येक परमाणु अपने में असाधारण शक्ति धारण किये होता है। जिसका विस्फोट होने से तहलका मच जाता है। यह सूक्ष्म दृष्टि है इसे प्राप्त कर सकने पर विश्व के कण कण में संव्याप्त ब्रह्म-चेतना का दर्शन होता है।

यही है वह दृष्टि जिसके मिलने पर आत्म-स्वरूप का बोध होता है। अपने को परमात्मा का युवराज होने का भान होता है। साथ ही यह विश्व परिवार भगवान का सुरम्य उद्यान प्रतीत होता है। उसे सींचने संजोने के लिए माली का दायित्व संभालने के लिए मन मचलता है। जीवन एक बहुमूल्य अवसर प्रतीत होता है। जिसका सदुपयोग बन पड़ने पर नर नारायण, पुरुष पुरुषोत्तम बन सकने की संभावना का आधार प्रत्यक्ष रूप में परिलक्षित होता है। साथ ही वह सम्यक् दृष्टि भी प्राप्त होती है, जिसे दूसरे शब्दों में स्वर्ग कहा जाता है।

सम्यक् दृष्टि प्राप्त होने पर संसार अपना नहीं भगवान का प्रतीत होता है। उस पर स्वामित्व जमाने की भ्रान्ति नहीं उभरती है। आत्मीयता तो किसी पर भी आरोपित की जा सकती है पर ममता के आँचल में सबको नहीं समेटा जा सकता। वस्तुओं को व्यक्तियों को मेरा कहने पर उनके संदर्भ में अनेकानेक जिम्मेदारियों सिर पर लदती है और बदलाव आते ही रौब जमाने का सिलसिला चल पड़ता है। अधिकार जमाने के कारण ही बैल भैंसे, भेड़ें और कुत्ते आपस में लड़ते है। वस्तुएं जहाँ की तहाँ रहती है पर अधिकार जमाने वाले खून–खराबा करते और कराते देखे जाते है।

सम्यक् दृष्टि न होने के कारण ही मनुष्य अपने को शरीर मान बैठता है और उसकी ललक लिप्साओं के लिए सारा प्रयत्न खपा देता है। इतना ही नहीं नीति मर्यादाओं के उल्लंघन में भी नहीं हिचकता। यदि उसे भगवान का मंदिर माना जा सके और संयम एवं पुण्य द्वारा उसकी अभ्यर्थना की जा सके तो यह शरीर न केवल स्वस्थ समर्थ रहता है, पर पुण्य यश और वैभव कमाते हुए लोक परलोक को सब प्रकार सुसम्पन्न बनाता है। छोटी दृष्टि शरीर या घर-परिवार का ही सब कुछ मानती है और उसी छोटे परिवार के लिए मरती खपती रहती है पर विशाल दृष्टिकोण के लिए सब अपने होते है। मनुष्य ही नहीं अन्यान्य प्राणी भी प्रकृति के सभी पक्ष और घटक भी इस अपनेपन के दायरे में आ जाते है। तब दूसरों का दुख बंटाने और अपना सुख बाँटने की आकाँक्षा सहज उठती है। आत्मीयता के चरितार्थ होने का यही एक मात्र आधार भर है।

सम्यक्-दृष्टि परिणाम को देखने, परखने के उपरान्त कार्य आरम्भ करती है। वर्तमान को सुखद सम्भावनाओं के लिए आरंभ करती है। वर्तमान को सुखद संभावनाओं के लिए न्यौछावर भी कर सकती है। वृक्ष बनने के लिए बीज को अपना वर्तमान स्वरूप गलाना पड़ता है। विज्ञजन भी आज की सुविधाओँ की इसलिए उपेक्षा करते है कि उज्ज्वल भविष्य का दिग्दर्शन हो सके। अदूरदर्शी .... वर्तमान की सुविधा देखते हैं और उसके लिए आतुर होकर भविष्य को अन्धकारमय बनाते है।


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