तन्मयता (kahani)

March 1988

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महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ। कौरव तो सभी युद्ध में मारे जा चुके थे। पाण्डव भी कुछ समय तक राज्य करके हिमालय पर चले गये। वहाँ पर एक, एक करके सभी भाई गिर गये। अकेले युधिष्ठिर अपने एक मात्र साथी कुत्ते के साथ बचे रहे और वे स्वर्ग गये

कहते हैं युधिष्ठिर जीवित ही स्वर्ग में गये थे। वहाँ उन्होंने स्वर्ग और नरक दोनों को देखा। स्वर्ग में प्रवेश करते ही दुर्योधन दिखाई दिया। अपने भाइयों से भी उनका सामना हुआ। रास्ते में अन्य भाइयों को गिरते समय प्रश्न करने वाले भीम के मन में यहाँ भी जिज्ञासा उठी पूछा “भैया! दुष्ट दुर्योधन तो आजीवन अनीति का ही पक्ष लेता रहा। उसने अपने पूरे जीवन में कोई धर्म कार्य नहीं किया जिसके पुण्य से उसे स्वर्ग मिला हो। क्या ईश्वर के न्याय में भी अंधेरगर्दी है”?

नहीं भीम! ईश्वरीय विधान के अनुसार प्रत्येक पुण्य का परिणाम चाहे वह किंचित ही क्यों न हो, स्वर्ग मिलता है। सभी बुराइयों के होते हुए भी दुर्योधन में एक सद्गुण था जिसके प्रसाद स्वरूप उसे स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ है।

वह क्या- भीम ने पूछा। वह अपने संस्कारों के कारण जीवन को सही दिशा भले ही न दे सका हो परंतु उसका मार्ग अवश्य सही था। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने लिये तन्मयतापूर्वक जुटा रहा। ध्येय के प्रति एकनिष्ठ रहना बहुत बड़ा सद्गुण है। इस सद्गुण के पुण्य के परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए उसे स्वर्ग में स्थान मिलना उचित था।

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