क्रान्तिकारी जीवन दर्शन के प्रणेता- ‘‘भगवान महावीर”

March 1988

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भगवान महावीर का जन्म आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ था। काल की दृष्टि से देखा जाए तो यही कहा जा सकता है कि वे पुराने पड़ गये। यह सही भी है क्यों कि महावीर का अवतरण जिस युग में हुआ था, वह गणतंत्र का वर्चस्व-काल था। आज जनतंत्र का विकास हो रहा है। परिस्थितियों में जमीन आसमान जितना अन्तर आ गया। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनके सिद्धान्त बेकार हो गये, जरा-जीर्ण हो गये, उसकी धार समाप्त हो गयी। उनने जिस अनेकान्त दर्शन की नींव रखी, उसके शाश्वत सिद्धान्त मानवी विकास और सह अस्तित्व के उन्हीं तथ्यों का प्रतिपादन करते है, जो समान और राष्ट्र की प्रगति के लिए, सुख शान्ति के लिए आवश्यक है।

यह बात नहीं कि उनने मात्र थोथे सिद्धान्त भर प्रतिपादित कर अपनी छुट्टी पा ली, वरन् उन सिद्धान्तों व जीवन मूल्यों को समाज में प्रतिष्ठापित करने के लिए चोर संघर्ष भी किया। ऐसा संघर्ष, जिसे व्यक्तिगत जीवन का अपूर्व पराक्रम कहा जा सके। कथनी और करनी में समानता के प्रबल पक्षधर होने के कारण उनने जो कुछ कहा, उसे उनके दिखाया। तत्कालीन तमसाच्छन्न समाज में चित्र विचित्र प्रकार की प्रथा परम्पराएं धर्म के नाम पर जी रही थी। कही देवताओं को प्रसन्न करने के लिए निरीह पशुओं की बलियाँ चढ़ायी जा रही थी तो कहीं ऐसे कृत्य हो रहे थे, जिन्हें पैशाचिक ही कहा जाता है। चारों ओर अनैतिकता और अमानवीयता ही सिर उठाये थी। नारी शक्ति प्रतिबन्धित थी। उसे पुरुषों के हाथ की कठपुतली माना जाता था।

इन पाखण्डों ने अपनी जड़ें इतनी मजबूत जमा ली कि समाज व्यवस्था ही चरमरा गयी थी। ऐसे में भगवान महावीर ने समाज से इन प्रपंचों को दूर करने का कठोर

संकल्प लिया। वे शान्तिप्रिय थे और अहिंसा में विश्वास रखते थे। अतः अहिंसक समाज रचना के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। उनका कहना था कि समाज परिवर्तन के लिए क्रान्ति आवश्यक है, पर वह क्रान्ति अहिंसक हो, रक्तहीन हो। उनका मानना था कि जिस क्रान्ति में हृदय परिवर्तन की क्षमता हो, वहीं सबसे बड़ी क्रान्ति है। इसीलिए वे जीवन भर सदा प्यार प्रेम की शिक्षा देते रहे और इसी के माध्यम से समाज के शहतीर को खोखला करने वाले चुनों को निकालने में सफल हो सके। उनने ना तो कभी जातिवाद का समर्थन किया, न सम्प्रदायवाद क्षेत्रीयतावाद का। मनुष्य को सदा मनुष्य जाति के रूप में देखा। एक ऐसी जाति के रूप में जिसमें न कोई ऊंच हो, न नीच कोई बड़ा न छोटा वरन पूरा समुदाय स्नेह, सद्भाव, सहयोग, सहकार की धुरी पर खड़ा हो। उनका कहना था कि ऐसी स्थिति में ही उस आदर्श समाज का निर्माण संभव हो सकता है, जिसमें व्यक्ति का, समाज का और युग का समग्र विकास शक्य हो। वे दूसरों पर अपना रौब–दौब गाँठने, अधिकार जताने के प्रबल विरोधी थे। आत्मानुशासन को भगवान महावीर सबसे पवित्र शासन मानते थे। वे कहते थे कि यदि शासन ही करना हो तो स्वयं पर करो, अपने शरीर, वाणी मन और आत्मा पर करों आत्मसाधना सबसे उत्तर शासन हैं यदि इससे स्वयं पर अधिकार और नियंत्रण पा सको, तो हर प्रकार से कल्याण ही होगा। इस राह पर लोगों को ले जाने के लिए उनने स्वयं आत्मा साधना की, अपने को कसौटी पर खरा सिद्ध किया और इस प्रकार समाज में मानवी मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वयं प्रेरणा स्रोत बने, तभी आज युग उनकी जय गाथा गा रहा है।

उनका जीवन दर्शन सार्वकालिक है-चिरप्राचीन और चिरनवीन के सीमा बन्ध से सर्वथा परे। जैसी सामर्थ्य उनमें तब थी वह शक्ति उनकी विचारधारा में आज है। भगवान महावीर हमारे बीच नहीं है उन उनसे शाश्वत सिद्धान्तों में जीवन को दिशा देने की वही क्षमता अक्षुण्ण विद्यमान है।


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