धर्मतत्व का आठवाँ अनुशासन विद्या

March 1988

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विद्या का मोटा अर्थ है - विद्या संचय! भगवती सरस्वती को उसी का प्रतीक माना जाता है। बहुप्रचलित उक्ति है कि ‘विद्या विहीन पशु। जिसने विद्या के साथ सघन सम्बन्ध नहीं जोड़ा, वह नर-पशु की संज्ञा में गिना जायेगा। कूप–मण्डूकों की ज्ञान परिधि उतनी ही छोटी होती है जितनी कि कुएं की लम्बाई, चौड़ाई। उसे बाहरी दुनिया का कोई ज्ञान नहीं होता। गूलर के भुनगे के लिए उस फल का पोला भाग ही समूचा ब्रह्माण्ड है पर पक्षी उन्मुक्त आकाश में उड़ सकता है उसे जानकारी होती है कि दुनिया कितनी बड़ी और कितने चित्र-विचित्र दृश्यों और घटनाक्रमों से घिरी हुई है।

अशिक्षित मनुष्य भी कूप मण्डूक की तरह बाड़े में पशु की तरह है। उसकी जानकारी संपर्क क्षेत्र के प्रचलनों और क्रियाकलापों के दायरे भर में घिरी रहती है जो उसके परिचित क्षेत्र में हो रहा है, उसकी दृष्टि में दुनिया की गतिविधियाँ इतनी ही सीमित है, जबकि वस्तुतः ज्ञान क्षेत्र का विस्तार इससे असंख्य गुना बड़ा हे। जिसका ज्ञान विस्तार जितना बड़ा है, समझना चाहिए कि उसकी विज्ञता उतनी ही बड़ी है। वस्तुतः यही सच्च बड़प्पन भी है। बड़प्पन ही नहीं वैभव भी।

अब संसार बहुत छोटा हो गया है, दुनिया बहुत सिकुड़ गयी है। ज्ञान विज्ञान का दायरा इतना बड़ा हो गया है कि उसके संपर्क में न आने से हम गई गुजरी पिछड़ी हुई परिस्थितियों में ही घिरे पड़े रहेंगे। बौद्धिक दृष्टि से पिछड़ापन आर्थिक दरिद्रता से भी गया बीता है। हम चारे धनवान न बन सके पर ज्ञानवान तो बनना ही चाहिए, क्योंकि वह अपेक्षाकृत सरल भी है और व्यक्तित्व के मूल्याँकन की दृष्टि से बहुमूल्य हीरक हार की तरह भी।

सद्शासन रूपी हिमालय की दो प्रमुख धाराएं है। एक शिक्षा दूसरी विद्या। शिक्षा की परिधि में भौतिक जानकारियाँ आती हैं जिनके सहारे उपार्जन करने की क्षमता और बहुज्ञ समझे जाने की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। स्कूलों में शिक्षा का ही पाठ्यक्रम आदि से अन्त तक है। शिल्पी कलाकार जिस विशिष्टता का परिचय देते है वह शिक्षा की परिधि में ही आता है। विशेषज्ञ वैज्ञानिक साहित्यकार, संगीतज्ञ, याँत्रिक आदि इसी वर्ग में आते है उन्हें शिक्षित कहते है। अधिक बढ़ा चढ़ा होने पर उसे सुशिक्षित भी कहा जाता है।

विद्या इससे भिन्न है। उसे दूसरे शब्दों में सभ्यता या सुसंस्कारिता भी कह सकते है। जीवन एक अनगढ़ धातु की तरह है। उसे जिस भट्टी में तपाया, शोधा, ढाला और निखारा जाता है, उसे विद्या कहते है। मनुष्य के गुण, कर्म स्वभाव कई बार वे इतने उज्ज्वल और उत्कृष्ट होते है कि हाड़ माँस के पुतले में ही देवता विराजमान और गतिशील प्रतीत होता है। व्यक्तित्व की दृष्टि से गिरे हुए व्यक्ति को नर कीटक, नर पशु या नर पिशाच कहते है। पर जिसकी स्थिति उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के साथ घुल मिल जाती है, उसे देव मानव ऋषि, तपस्वी, सन्त आदि कहते है और सहज श्रद्धा में द्रवित होकर उसे भाव भरा नमन करते हैं। भले ही भौतिक सम्पदाओं की दृष्टि से वे दरिद्र या अपरिग्रही जैसा अभावग्रस्त परिस्थितियों में ही क्यों न रह रहा हो?

विद्या का क्षेत्र है-चिन्तन, चरित्र और व्यवहार। चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता और व्यवहार में शालीनता का समावेश करना विद्या का काम है। उसकी बढ़ती हुई मात्रा सुसंस्कारिता के रूप में दृष्टि गोचर होती है। ब्राह्मण और साधु वर्ग के लोग महामानव स्तर के होते है। उनका व्यक्तित्व इतना भारी और वजनदार होता है कि उस दबाव से व्यक्ति, समाज और वातावरण को बदलते, सुधरते देर नहीं लगती।

शिक्षा प्राप्ति के लिए उस्तादों के पास जाना पड़ता है और अपने विषय की प्रवीणता में निष्णात गुरुजनों की शरण में जाना पड़ता है। विभिन्न प्रकार के कलाकौशल वे ही सिखाते है। अपने विषय का प्रवीण, पारंगत होना ऐसे शिक्षकों के लिए पर्याप्त माना जाता है। इनके सम्बन्ध में यह खोज बीन नहीं की जाती है कि वे चरित्रवान है या नहीं? दुर्व्यसनों से तो घिरे हुए नहीं। इनका दृष्टिकोण घटिया तो नहीं है। यदि हो भी तो शिक्षक और शिक्षार्थी मिलकर शिक्षा प्राप्त करने कर गाड़ी धकेलते रहते है।

विद्वान यदि सुशिक्षित भी हो तो सोना सुगन्ध अन्यथा कम पढ़े या बिना पढ़े पढ़े होने पर भी उनका काम चल सकता है। मध्यकालीन सन्तों में बहुत कम सुशिक्षित थे। उनकी कविताओं और कहानियों में शब्द रचना और छन्द शास्त्र कर दृष्टि से ढेरों अशुद्धियाँ भरी पड़ी है। इससे प्रतीत होता है कि उनने शिक्षा की दिशा में विशेष ध्यान नहीं दिया या अवसर नहीं मिला। यह भी हो सकता है कि उनसे वैसे कौशल की आवश्यकता ही न समझी हो।

कबीर ने तो “पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े से पंडित होय” वाले बहुचर्चित दोहे में इस तथ्य को और भी अच्छी तरह उजागर कर दिया है। वे भावना क्षेत्र की मान्यताओं आस्थाओं, आकाँक्षाओं और विचारणाओं को ही मनुष्य की वास्तविक पूँजी मानते हैं। उनमें यदि उत्कृष्टता का समावेश है तो फिर गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता की कमी न रहेगी और कम पढ़े होने पर भी विद्या की आवश्यकता पूरी हो जायेगी।

विद्या का उद्देश्य दृष्टिकोण परिष्कृत और व्यवहार को सज्जनोचित बनाने का लक्ष्य है। वह चरित्र पर पूरा जोर देता है। निजी आवश्यकता में अधिकतम कटौती करके जो कुछ जीवन रस बचता है, उसे परमार्थ प्रयोजन में उड़ेल देने की उमंग भरती है। चरित्र के धनी इतने प्रभावी होते है कि उन पर मोटे पेट वाले ध्नाध्यक्षी हजार धन कुबेरों को निछावर किया जा सकता है। देवता असुरों से सदा हारते रहे है किन्तु निष्ठावान टूट जाते है पर झुकते नहीं, वे अपनी आन पर दृढ़तापूर्वक चट्टान की तरह अडिग खड़े रहते हैं। उनकी प्रत्यक्ष सफलताओं की तो बड़ी सी बड़ी गाथा नहीं मिलती किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जाता है कि उनने अपने संपर्क क्षेत्र के अनेक झाड़–झंखाड़ों चन्दन तरु की तरह महाकाया है उन्होंने अपनी नाव पर बिठा कर अनेकानेकों को पार किया है, उन्होंने अनेकों की दिशा-धार मोड़ी और भटकाव में निकाल कर राज-मार्ग तक पहुँचाया है।

शिक्षा की परिणति सम्पदा और प्रतिष्ठा है। इसलिए उसे लोग पढ़ते भी है। इसके लिए निजी स्कूल खुलते तथा सरकारी बनते रहते है। हर साल लाखों लड़के मध्यवर्ती और ऊंची शिक्षा प्राप्त करके उनमें से निकलते भी है। इसके उपरान्त कुछ को ही काम मिल पाता है। शेष अपनी बेकारी की शिकायतें करते हुए उद्विग्न फिरते है पर विद्यावानों को ही ऐसी विपन्नता का सामना नहीं करना पड़ता वे अपनी प्रामाणिकता, चरित्रनिष्ठा, अनुशासन परायणता के आधार पर जहां भी पहुँचते हैं काम और सम्मान पाते है। सद्गुण ही वह पूँजी है जिसकी पूरी तरह परख, परीक्षा न होने तक ही उपेक्षा होती है। जब तक उसका मूल्याँकन कसौटियों पर कस कर नहीं कर लिया जाता है। इस आधार पर निखरे हुए मनुष्य को छोड़ने या छुड़ाने में प्राण हरण जैसा कष्ट होता है। वे जिस भी काम में हाथ डालते हैं उसमें क्रमिक उन्नति करते हुए सफलता की चरम सीमा तक पहुँचते है। सर्वथा अभावग्रस्त परिस्थितियों का घेरा तोड़ते हुए भी उच्च महत्व के शिखरों पहुँचे है, उनकी प्रमुख विशेषता एक ही रही है-उत्कृष्टता। आध्यात्मिक साधनाओं का नन्दनवन चरित्र निष्ठा की उर्वरा भूमि पर ही फलता फूलता है।

शिक्षा प्रसार के लिए बहुत कुछ हो रहा है। होना यह भी चाहिए कि विद्या के प्रति बरती जाने वाली श्रद्धा का अन्त हो विद्यावानों का विद्यालयों का अभाव यथा संभव जितनी जल्दी बन पड़े दूर किया जाए।


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